खेतों से गेंहू अब लगभग कट चुका है। बहुत से लोग अब खलिहान भी सफरा चुके हैं। हमारा अधियरा राजू और उसकी पत्नी सुग्गी कल गेंहू की फसल निपटा लिये। अब अरहर पर लगे हैं।
गेंहू की थ्रेशिंग के लिये ट्रेक्टर पर लदी मशीन किराये पर राजू लाया। मशीन शाम ढलने पर ही उसे मिली। थ्रेशिंग पूरी होते होते रात के इग्यारह बज गये। राजू का पूरा परिवार और उसके काम में सहायता करने वाले उसके नाते-रिश्तेदार रात के अंधेरे में छोटी छोटी एलईडी की बत्तियां जला कर खेत में ही काम पर लगे रहे। मेरी पत्नीजी और मैं भी वहां थ्रेशिंग देखने और थ्रेशिंग के बाद अपना हिस्सा बटवाने वहां गये। हम लोगों का ध्येय उनके काम का निरिक्षण करना नहीं था। हम यह भी नहीं देखने गये थे कि अधियरा ईमानदारी से सारा अनाज एक जगह जमा कर रहा है या नहीं। वहां हर गतिविधि पर पैनी नजर रखना और यह देखना कि अंतिम किलोग्राम तक हमारा हिस्सा हमें मिल रहा है या नहीं – यह हमारी प्रवृत्ति में नहीं है। खेती हमारे लिये व्यवसाय नहीं है। जो मिल जाये उसमें संतोष करना हमारा मूल स्वभाव है।
थ्रेशिंग गतिविधियां देखना हमारे लिये कौतूहल शांत करने भर के लिये था। कृषक कार्य का समापन थ्रेशिंग से ही होता है। अनाज के दानों का जब ढेर लगता है तो जो तृप्ति कृषक को होती है वह अनुभव करने या देखने की ही चीज है।

रात के अंधेरे में मोबाइल से नाइट मोड में साध कर बिना हाथ हिलाये चित्र लेने में मेरा सारा समय गुजरा। राजू के लड़के मेरे और मेरी पत्नीजी के लिये दो प्लास्टिक की कुर्सियां ले आये। दोनो अलग अलग बनावट की। एक तो समूची थी पर दूसरी का एक हत्था टूटा हुआ था। खलिहान में राजू और सुग्गी का यह आतिथ्य भी बहुत था।
कुल सात आठ लोग वहां काम कर रहे थे। राजू और उसके लड़के गेंहू के गट्ठर ला ला कर थ्रेशिंग के लिये डाल रहे थे। मशीन तेजी से काम कर रही थी। उन्हें गट्ठर लाने-डालने का काम उतनी ही फुर्ती से करना पड़ रहा था, जितना मशीन कर रही थी। गेंहूं की बालों के कटे टुकड़े – भूसा – वातावरण में उड़ रहे थे। राजू और उसके लड़के उन टुकड़ें से सन गये थे।

थ्रेशिंग के बाद भूसा और गेंहू अलग हो रहा था। अलग होता गेंहू महिलायें सहेज कर ढेर बना रही थी। मैने देखा कि एक छोटी लड़की बड़े मनोयोग से तसले में गेंहू के दाने ला कर जमा कर रही थी। ज्यादा उम्र नहीं रही होगी। मेरी पोती चिन्ना पांड़े से कम ही उम्र की होगी। पर उसे खलिहान में काम करने का अनुभव इतनी कम उम्र से ही मिल रहा था। यह अनुभव उसे जिंदगी भर काम देगा। श्रम की महत्ता का पाठ बचपन से ही परिस्थितियां सिखा रही थीं।



थ्रेशिंग खत्म होने पर मैने उस लड़की से पूछा – वह दो किमी दूर कटका पड़ाव पर रहती है। अपने माता-पिता के साथ हाथ बटाने आयी है। स्कूल जाती है। दर्जा दो की छात्रा है। पढ़ाई के नाम से उसमें बहुत उत्सुकता नहीं थी। पढ़ाई उसके और उसके परिवार के लिये गौण थी। खेत खलिहान का यह अनुभव ज्यादा काम का था।
नाम बताया – आकांक्षा। नाम नई पीढ़ी का था। अन्यथा, सुग्गी जैसा कोई नाम होता।
रात के सवा दस बज चुके थे। थ्रेशिंग के बाद टीन के कनस्तर से गेंहू की नपाई हो रही थी। बोरियों में गेंहू भरा जा रहा था। हमारे गेंहूं को बोरियों में भर कर सुग्गी के लड़के हमारे घर पंहुचा देंगे। उनका अपना गेंहूं तो खलिहान में ही रहेगा। पूरा परिवार वहीं सोयेगा। सवेरे खलिहान से अपना गेंहू और भूसा उठा कर ले जाने का उपक्रम करेंगे। राजू आसमान की ओर देख कर बोला – लागत त नाहीं बा कि दऊ बरसिंहीं (बारिश होने की कोई सम्भावना तो नहीं लगती)। … किसानी में कैल्क्यूलेटेड रिस्क लेना उसकी प्रवृत्ति में है। मौसम विभाग की भविष्यवाणियों को उसका परिवार बहुत अहमियत देता है।
वहां से वापस आते समय देखा – गांव सो गया था। बगल में बिसुनाथ का मंझला लड़का धुत अंटशंट बड़बड़ाये जा रहा था। मेरी पत्नीजी ने कयास लगाया कि अब राजू के यहां सामुहिक भोजन होगा। जरूर एक मुरगे की बलि दी गयी होगी आज। नया अन्न आने की खुशी में चिकन बनना तो बनता है! … एक युग पहले की बात होती तो नवान्न पर पूड़ी-लपसी बनती। अब उसका स्थान चिकन ने ले लिया है।

रात में अंधेरे पक्ष में भी चंद्रमा निकल आये थे। हल्की रोशनी में कुछ दिख रहा था। महुआ के वृक्षों का मोबाइल कैमरे से नाइट मोड में लिया चित्र अजब तिलस्म भरा था। आगे रेलवे स्टेशन की लाइटें दिख रहीं थीं।
घर आ कर बिस्तर में लेटने में हमें इग्यारह बज गये। अमूमन गांव में इतनी देर घर के बाहर हम रहते नहीं। … यह अनुभव अलग प्रकार का था।

बेहद जुड़ाव सा
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हमारे त्योहार भी किसी न किसी ऐसे ही घटनाक्रम के कारण प्रारंभ किये होंगे, जैसे होली. अनाज कटा, किसान खुश और अन्न की बालियों को भून कर उत्सव मना लिया. और बरसात आई नहीं कि मार्ग अवरुद्ध और शादी बंद, वर्षा ख़त्म मार्ग खुले, शादियाँ प्रारंभ. मुझे ऐसा लगता है. शब्द चित्र के लिए आपका आभार. दयानिधि
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किसान के पकवान भी कितने सामयिक होते हैं। नये अन्न के पकवान – गुलगुला, लपसी, बड़ा, महुये का ठोकवा…
पहले गीत भी हुआ करते थे, अब वे डीजे और यूट्यूब के कारण दब गये हैं।
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