बढ़ती उम्र में धर्म का आधार

कैलाशनाथ मिश्र जी नित्य गंगा स्नान को जाया करते थे। उनके मित्र पंडित सूर्यनारायण मिश्र और वे साइकिल से आते जाते और गंगा के द्वारिकापुर तट पर बहुधा दीखते थे। फिर मैने नियमित साइकिल सैर में गंगा तट जाना बंद कर दिया। गंगा जी के करार से घाट पर उतरना घुटनों को ज्यादा कष्ट देने लगा था। मेरी साइकिल गंगाजी की बजाय कस्बाई बाजार की ओर ज्यादा चलने लगी। बरसों हो गये गंगा आते जाते कैलाशनाथ जी को देखे। उनकी पत्नी जी भी पैदल गंगा स्नान को जाती थीं। अपने आंचल में गंगा जी की मछलियों के लिये दाना लिये और रामनाम का जप करते हुये। उन्हें भी देखे कई साल गुजर गये थे। यद्यपि उनका गांव/घर मेरे यहां से आधा किलोमीटर की ही दूरी पर है, पर जाना ही नहीं हुआ उनकी ओर। … मैं पर्याप्त असामाजिक जीव हूं।

आज मिश्र जी का बेटा दिखा तो मैं प्रयास कर उनके घर हो आया। सवेरे नौ बजे का समय था। प्रातकालीन दिनचर्या से निवृत्त हो मिश्र दम्पति अपनी दालान के कमरे में आराम कर रहे थे। मुझे देख उठ बैठे। छोटे कमरे में उनके दो तख्ते बिछे थे। उनपर गद्दा। एक दीवार के साथ भगवान के चित्र और पूजापाठ की सामग्री थी। श्रीमती और श्री मिश्र के शरीर पर चंदन, रुद्राक्ष और अन्य प्रकार की मालायें थीं। श्रीमती मिश्र अपने आंचल में ढंक कर माला फेर रही थीं।

श्रीमती मिश्र अपने आंचल में ढंक कर माला फेर रही थीं।

कैलाशनाथ जी ने बताया कि वे गंगा स्नान को तो उम्र बढ़ने के कारण नहीं जा रहे पर घर में उनकी गतिविधि पर्याप्त है। वे घर में पूजा पाठ करना, मंदिर जाना नियमित कर रहे हैं। आपस में उन दोनो में से एक सुखसागर/भागवत का पाठ करते और दूसरे सुनते हैं। सही जुगलबंदी में बुढ़ापे का आनंद ले रहे हैं। उनके जीवन मैं दैनिक गंगा स्थान नहीं तो क्या, गौ माता हैं ही। कैलाशनाथ जी सवेरे चार बजे उठ कर गौ माता की सेवा करते हैं। उनको सानी देते हैं। उनके आसपास साफसफाई करते हैं। … उम्र और बढ़ेगी और “अगर” गौ सेवा का पौरुष भी न रहे तो भग्वत-भजन, माला जपने को तो उनसे कोई छीन नहीं सकता।

गंगा और गाय ही उनके लिये ईश्वर के प्रतीक नहीं हैं। एक पेड़ से निकला एक विचित्र आकार का बेल का फल भी प्रतीक बन गया। उन्होने एक थाल में रख कर मुझे दिखाया – देखिये, यह कूर्मावतार विष्णु भगवान लगते हैं न? और उस बेल फल के प्रति उन्होने श्रद्धा दिखाते हुये नमस्कार भी किया। … मुझे उतनी सहजता से प्रकृति में ईश्वर के दर्शन नहीं होते। …

एक पेड़ से निकला एक विचित्र आकार का बेल का फल भी प्रतीक बन गया। उन्होने एक थाल में रख कर मुझे दिखाया – देखिये, यह कूर्मावतार विष्णु भगवान लगते हैं न?

उनकी दिनचर्या की अपनी दिनचर्या से तुलना कर अपने पर लाज लगी मुझे। मेरे पास पुस्तकें हैं। पत्र-पत्रिकायें हैं। बेशुमार पठन-श्रवण सामग्री है। पर उनमें कितना वाद विवाद है। क्या सही है और क्या गलत – उसको ले कर अनेकानेक मत हैं। विचारों की केकॉफोनी है। उसके अलावा आसपास को भी देखता हूं तो छिद्रांवेषी प्रवृत्ति के कारण दोषदर्शिता और परनिंदा मन पर हावी रहती है। और भगवान का जप-ध्यान? वह तो स्नान करने के बाद उतनी देर तक ही होता है जितनी देर में कमीज के बटन बंद किये जाते हैं।

सही मायने में वानप्रस्थ का अनुभव तो मैने किया ही नहीं। अभी भी राजसिक वृत्ति पीछा नहीं छोड़ती। लोगों, विचारों और परिस्थितियों की सतत तुलना करने और एक को बेहतर, दूसरे को निकृष्ट मानने-देखने की आदत जीवन से माधुर्य चूस लेती है।

बाबा तुलसीदास कहते हैं – कलिजुग केवल नाम अधारा। उस नाम का आधार भी मेरे पास नहीं है। मैं कैलाशनाथ जी और उनकी पत्नीजी से मिलने गया था पर जब लौटा तो इस भावना के साथ कि मेरे-हमारे जीवन में बहुत कुछ नहीं है जो होना चाहिये। और मुख्य बात यह है कि क्या होना चाहिये, उसपर भी मन दृढ़ नहीं है। तमस और रजस से सत्व की ओर कैसे जीवन की गाड़ी मोड़ी जाये, वह मार्ग/दिनचर्या ही नहीं बन पाई। उसपर अमल तो बाद की बात है।

कैलाशनाथ मिश्र जी

मैं कैलाशनाथ दम्पति से यह कह कर लौटा कि अपनी पत्नी जी के साथ उनके यहां आऊंगा। भाव यह था कि किसी तरह अपने कोर्स ऑफ लाइफ को सेट करूं। सेट मुझे ही करना है और चलना भी मुझे ही है।

कैलाशनाथ जी का कहना है कि मेरी पत्नीजी इस गांव की बेटी हैं। इस मायने वे उनकी बेटी हैं। मेरी पत्नीजी के पिताजी उनके भाई लगते थे। इसलिये वे हमारे यहां आ कर कुछ खा पी नहीं सकते। उनकी पत्नीजी अपनी पुरानी मान्यताओं के अनुसार हमारे घर आयेगी भी नहीं। हमें ही उनके यहां जाना होगा। उनकी यह सोच हमें पुरातन लगती है, पर इन सब सोचों के साथ वे अपने जीवन का एक आधार बनाने में सक्षम रहे हैं। मेरे जैसा व्यक्ति तो अपना आधार ही तलाश रहा है! वे हम से कहीं श्रेष्ठ मानव हैं।

आगे जीवन का धर्म आधार होगा? पता नहीं। पर मुझे आधार ही तलाशना है।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “बढ़ती उम्र में धर्म का आधार

  1. समय सोच को बदल देता है. एक निस्पृहता सी कब आ जाये कहा नहीं जा सकता. और उस निस्पृहता को काउन्टर करने के लिए जरूरत पड़ती है किसी न किसी सहारे की.

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  2. आस्था विश्वास से अधिक निरंतर क्रिया का परिणाम है। बार बार लगातार दोहराए जाने से यह शेष दैनिक क्रिया कलापों की भांति सामान्य रूप से अनवरत चलती है। जैसे बार बार बोले जा रहे झूठ को सुनने पर कई बार उसपर विश्वास होने लगता है उसी प्रकार नित्य पूजा पाठ से प्रवृति भक्ति की ओर बढ़ जाती है।

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    1. सच और झूठ का अंतर समझना कठिन है। जिंदगी भर जो सच लगा वह एकबारगी झूठ भी लगने लगता है और कभी कभी, आप जैसा कह रहे हैं, निरंतर झूठ में जीता आदमी झूठ को ही सच मानने लगता है। ….

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