इग्यारह बज रहे थे। कोहरे का पर्दा हल्के से ठेल कर कानी आंख से सूरज भगवान ताकने लगे थे। वह बूढ़ा मुझे मर्यादी वस्त्रालय के आगे अपनी सगड़ी (साइकिल ठेला) पर बैठा सुरती मलता दिखा। बात करने के मूड़ में मैने पूछा – आजकल तो बिजली का ठेला भी आने लगा है। वह लेने की नहीं सोच रहे?
उसने बिजली के ठेले पर कुछ नहीं कहा। शायद समझ ही न आया कि वैसा भी कुछ होता है। पर वह अपने बारे में बताने लगा। भक्तापुर का रहने वाला है। सवेरे तो कोहरे में निकलना नहीं हो पाया। अब जा कर निकला है। अभी कोई काम नहीं मिला। चौरस्ते पर जायेगा तो कुछ काम मिले शायद।

यहां किस लिये आये? पूछने पर उसने पीछे डाकघर की ओर इशारा किया कि वहां आया था। “बिरधावस्ता (वृद्धावस्था) पेंशन” के बारे में तहकीकात करने आया था। उसे मिलती थी पर अब ‘कजनी काहे (पता नहीं क्यों)’ मिलना बंद हो गई है। तीन महीने में तीन हजार मिलती थी। उससे दवा-दारू का खर्चा निकल आता था। दो लड़के हैं उसके पर वे अपना खर्चा ही मजूरी से बमुश्किल निकाल पाते हैं; उसकी देखभाल कहां से करेंगे?
“जिस दिन काम मिल जाता है, उसदिन का इंतजाम हो जाता है। नहीं तो नून-रोटी से गुजारा होता है।” – उसने बताया।
उसके सुरती मलने पर मैने पूछा – कितनी बार खैनी खा चुके सवेरे से?
“आज की पहली है। इसके पहले तो ठंड में गुड़मुड़ियाये पड़े रहे। अब पहली बना रहे हैं। उसके बाद चल कर काम तलाशेंगे।”
आज फिर मुझे बिना पर्स, बिना चिल्लर लिये बाजार की ओर निकलने पर कसक हुई, वर्ना उस बूढ़े सगड़ी वाले को सवेरे की चाय-समोसा का पैसा तो दे देता…
चलते चलते एक सवाल और किया मैने – डाकघर वाले पेंशन के लिये कोई पैसा तो नहीं मांगते?

“नहीं बाबूजी, नहीं। वैसा कुछ कभी नहीं बोले वे लोग। बताये कि पता करेंगे कि काहे किस बजह से रुक गई है। भले आदमी हैं। भरोसा दिलाये हैं।” – उसकी बात से मन में सुकून हुआ मुझे वर्ना इस क्षेत्र की गांवदेहात की पूरी नौकरशाही-नेताई गिद्ध ही नजर आती है मुझे। गरीब को नोचने वाली।
भला हो उस सगड़ी वाले वृद्ध का। भला हो डाकघर वालों का भी!

बिल्कुल सचची बात। नेता ही न पेंशन निकाल के खा रहे हो।
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