मूरत यादव और मिश्री पाल के साथ गपशप


घुमा फिरा कर मुझसे पूछते हैं – कितने लोगों को नौकरी दिया होगा रेल सेवा के दौरान?

बताने पर कि 3-4 को बंगलो पीयून रखा था; वे कहते हैं कि आपसे पहले मिले होते तो जिनगी तर गयी होती! तब भेंड़ी-गाय-भैस थोड़े पालनी पड़ती।

विजय कुमार मिस्त्री – नायाब ब्लॉग चरित्र!


“ऐसे तुरत फुरत में थोड़े ही बता सकता हूं। आपको चार पांच दिन बैठना होगा सुनने के लिये। परिवार पालने के लिये अस्सी रुपया महीने में रिक्शा चला चुका हूं। कर्जा पाटने के लिये एक समय था जब गांजा भी बेचा है।”

विस्थापित – न घर के न घाट के


अपने गांव के चमरऊट को मैं गरीब समझता था। पर इनकी दशा तो उनसे कहीं नीचे की है। उनके पास तो घर की जमीन है। सरकार से मिली बिजली, चांपाकल, सड़क और वोट बैंक की ठसक है। इन विस्थापितों के पास वह सब है? शायद नहीं।

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