घुमा फिरा कर मुझसे पूछते हैं – कितने लोगों को नौकरी दिया होगा रेल सेवा के दौरान?
बताने पर कि 3-4 को बंगलो पीयून रखा था; वे कहते हैं कि आपसे पहले मिले होते तो जिनगी तर गयी होती! तब भेंड़ी-गाय-भैस थोड़े पालनी पड़ती।
ज्ञानदत्त पाण्डेय का ब्लॉग। भदोही (पूर्वी उत्तर प्रदेश, भारत) में ग्रामीण जीवन। रेलवे के मुख्य परिचालन प्रबंधक पद से रिटायर अफसर। रेल के सैलून से उतर गांव की पगडंडी पर साइकिल से चलता व्यक्ति।
घुमा फिरा कर मुझसे पूछते हैं – कितने लोगों को नौकरी दिया होगा रेल सेवा के दौरान?
बताने पर कि 3-4 को बंगलो पीयून रखा था; वे कहते हैं कि आपसे पहले मिले होते तो जिनगी तर गयी होती! तब भेंड़ी-गाय-भैस थोड़े पालनी पड़ती।
सुकुआर (नाजुक) हो गये हैं लोग। अब मेहनत नहीं करते। अब यह हाल है कि कुल्ला करने (खेत में हगने) भी मोटर साइकिल से जाने लगे हैं। ट्रेक्टर से खेती करते हैं। वह भी आलस से।
अपने गांव के चमरऊट को मैं गरीब समझता था। पर इनकी दशा तो उनसे कहीं नीचे की है। उनके पास तो घर की जमीन है। सरकार से मिली बिजली, चांपाकल, सड़क और वोट बैंक की ठसक है। इन विस्थापितों के पास वह सब है? शायद नहीं।
घर पर आते आते थक जाता हूं मैं। एक कप चाय की तलब है। पत्नीजी डिजाइनर कुल्हड़ में आज चाय देती हैं। लम्बोतरा, ग्लास जैसा कुल्हड़ पर उसमें 70 मिली लीटर से ज्यादा नहीं आती होगी चाय। दो तीन बार ढालनी पड़ती है।
देश की डेयरियां और लोग भैंस के दूध की बदौलत चल रहे हैं। अमूल – जो विश्व के बीस सबसे बड़ी डेयरियों में है; भैंस के दूध के बल पर है। अगर भैंस का दूध बुद्धि कुंद करता है तो अमूल को ब्लैकलिस्ट कर देना चाहिये।
जातियां, काम धंधे, गांव की हाईरार्की – इन सब से मेरा पाला रोज रोज पड़ता है। कभी लगता है कि समाजशास्त्र का विधिवत अध्ययन कर लूं। एक दो साल उन्हीं पर पुस्तकें पढूं। शायद मेरी समझ और नजरिया सुधरे।