ये अखबार की कतरनें क्यों बटोरते हैं लोग?


अखबार में हिन्दी ब्लागिंग के बारे में छप जाये तो सनसनी छा जाती है. नोटपैड एक दिन पहले बताता है कि कल कुछ छ्पने वाला है. अपनी प्रति सुरक्षित करा लें. एक और जगह से विलाप आता है कि अरे हमारे यहां तो फलां पेपर आता नहीं भैया, स्कैन कर एक पोस्ट छाप देना. जिसने अखबार देख लिया, वह दौड़ लगाता है – स्कैन कर पहले छाप देने के लिये. एक और सज्जन कहते हैं कि वे जा रहे हैं देखने कि अखबार के लोकल एडीशन में कवरेज है या नहीं.

यह अखबार-मेनिया कब जायेगा?

हिंदी अखबार, मेरे आकलन में, अपनी साख बहुत कुछ खो चुके हैं. समाज का भला करने की दशा में वे नहीं रहे. दशा क्या बदलेंगे उनके पास दिशा ही नहीं है. कोई अखबार खोल लें; कितनी ओरिजनालिटी है उनमें? ज्यादातर तो थाने की क्राइम फाइल और सरकारी प्रेस विज्ञप्तियों पर जिन्दा हैं. बाकी पी टी आई की खबर पर फोंट/फोटो बदल कर अपना लेबल चस्पां करते हैं. अखबार के मालिक बेहतर लेखन की बजाय बेहतर विज्ञापन की तलाश में रहते हैं.

चिठेरा अपने आंख-कान-दिमाग से कहीं बेहतर खबर या लेख पोस्ट कर सकता है. उसके पास अगर एक-दो मेगा पिक्सेल का कैमरा हो तो फिर कमाल हो सकता है.

हो सकता है कि आज मेरा कथन थोड़ा अटपटा लगे जब हिन्दी के चिठेरे हजार-पांच सौ भर हैं. पर यह संख्या तेजी से बढ़ेगी. ज्योमेट्रिकल नहीं एक्स्पोनेंशियल बढेगी. परसों मैने देख कि मेरा सहायक भी ब्लॉग बनाने लग गया है. चलता पुर्जा जीव है खबरों का पिटारा है. जवान है. वैसी ही सोच है. ऐसे ही लोग बढ़ेंगे.

मेरे विचार से आने वाला लेखन चिठेरों का लेखन होगा. गूगल या अन्य न्यूज-ब्लॉग समेटक (Aggregator) व्यक्तिगत रुचि के अनुसार नेट पर समाचार, एडिटोरियल और विज्ञापन परोसेंगे. फिर (अगर अखबार जिन्दा रहे तो) फलां अखबार फख्र से कहेगा कि फलां धाकड़ चिठेरे ने उसके लिये ये शुभाशीष कहे हैं.

चिठेरों भावी इतिहास तुम्हारा है!

क्या चुनाव आयोग नव शृजन कर रहा है?


उत्तर प्रदेश में पहले दो चरणों में वोट प्रतिशत गिरा है. यह माना जा रहा है कि यह जनता की उदासीनता के कारण नहीं, बूथ कैप्चरिंग फैक्टर डिस्काउंट करने के कारण है. अगर यह स्वयम-तथ्य (Axiom) सही मान लिया जाये तो जो प्रमेय सिद्ध होता है वह है कि नव शृजन हो रहा है. बिहार में यह होते देखा गया है. वहां का सत्ता पलट जन भावनाओं की अभिव्यक्ति थी जो चुनाव के कमोबेश भय मुक्त आयोजन से सम्भव हो पाई. सामंतवादी, जातिवादी और अपराधी समीकरण वहां मुह की खा गये थे. कुछ लोग कह सकते हैं कि वहां अब भी अराजकता है. पर शृजन की प्रक्रिया मां काली के पदाघात सी नहीं होती. वह क्रांति नहीं, कली की तरह खिलती है. उत्तर प्रदेश भी उसी राह पर चल चुका है. एक हाथी नीला था; वह अचानक गणेश बन गया है. सामाजिक मंथन जैसा कुछ है यह. मंथन से कितना नवनीत निकलेगा यह देखना बाकी है.

यह भी एक स्वयम-तथ्य (Axiom) माना जा सकता है कि अधिकांश नेता चाहे वे जिस भी दल के हों धूर्त होते हैं. चुनाव के बाद वे कैसी पलटी मारेंगे; कहा नहीं जा सकता. इसमें भी सच्चाई है. घूम फिर कर वही लोग हैं पहले इस दल से थे, अब उस दल से हैं. उनमें व्यक्तिगत (और दलों में भी) क्या पक रहा है समय ही बतायेगा. पर इतना जरूर है; अगर लठैतों की वोट डालने में भूमिका कम हो गयी तो उनकी राजनीति में भी भूमिका कम होती जायेगी. उनकी भय की राजनीति से लड़ना कठिन है. यह कठिन काम चुनाव प्रक्रिया कुछ सीमा तक पूरा कर रही है. सामान्य नेताओं के शकुनि वाले खेल को तो सम्भाला जा सकता है. उसके लिये भारतीय प्रजातंत्र काफी हद तक सक्षम है।

इसके अलावा थोक वोट बैंक की राजनीति भी अपनी सीमायें जान रही है. पिछले चुनावों में थोक वोट बैंक से पार्टियों को सीटें तो मिली थीं जनता तो बन्धुआ रही, पर चुन कर आने वाले विधायक बन्धुआ नहीं रहे। वे अपने हित के आधार पर पल्टी मारते गये। थोक वोट बैंक का तिलस्म आगे आने वाले समय में और भी टूटेगा.

माफिया का राज वैसे भी कम होना तय है. देश अगर 7-10 प्र.श. की रफ्तार से तरक्की करेगा तो वह मार्केट की ताकत के बल पर करेगा. उसके लिये जरूरी है कि हत्या-अपहरण-बल प्रयोग आदि का युग समाप्त हो. जब लोगों को पता चल जायेगा कि जीविका के साधन हैं (अर्थात सब कुछ अँधेरा नहीं है); तो यह भी स्पष्ट होगा की वे आतंक की उपेक्षा कर ही मिल सकते हैं, तब आतंक से लड़ने की ताकत भी आ जायेगी लोगों में. बम्बई में यह देखा जा चुका है कि बड़े से बड़े आतंकी हमले के बाद भी शहर के सामान्य होने में ज्यादा वक्त नहीं लगता. देर-सबेर वह बिहार-उत्तर प्रदेश में भी होगा.

मैं यह ग्लास आधा भरा देखने के भाव के वशीभूत लिखा रह हूँ। जरुरत नहीं वह पूर्ण सत्य हो। पर मुझे अभी तो उत्तर प्रदेश का चुनाव आयोजन एक मौन क्रांति का हिस्सा प्रतीत होते हैं।

विकलांगों को उचित स्थान दें समाज में


भारतीय समाज विकलांगों के प्रति निर्दय है. लंगड़ा, बहरा, अन्धा, पगला, एंचाताना ये सभी शब्द व्यक्ति की स्थिति कम उसके प्रति उपेक्षा ज्यादा दर्शाते हैं. इसलिये अगर हमारे घर में कोई विकलांग है तो हम उसे समाज की नजरों से बचा कर रखना चाहते हैं कौन उपेक्षा झेले.. या यह सोचते हैं कि उस विकलांग को प्रत्यक्ष/परोक्ष ताने मिलें; इससे अच्छा तो होगा कि उसे लोगों की वक्र दृष्टि से बचा कर रखा जाये.

पर क्या यह सोच सही है? ऐसा कर हम उस विकलांग को एक कोने में नहीं धकेल देते? उसके मन में और भी कुंठायें नहीं उपजा देते? सही उत्तर तो मनोवैज्ञानिक ही दे सकते हैं. अपने अनुभव से मुझे लगता है कि विकलांग व्यक्ति को हम जितनी सामान्यता से लेंगे उतना ही उसका भला होगा और उतना ही हम अपने व्यक्तित्व को बहुआयामी बना सकेंगे.

उत्तर-मध्य रेलवे के महाप्रबन्धक श्री बुधप्रकाश का बेटा विकलांग है. पर किसी भी सार्वजनिक अवसर पर वे उसे अपने साथ ले जाना नहीं भूलते. लड़के की विकलांगता उन्हें आत्म-दया से पीड़ित कर उनके व्यक्तित्व को कुंठित कर सकती थी. लेकिन विकलांगता को उन्होने सामान्य व्यवहार पर हावी नहीं होने दिया है. कल हमारे यहां 52 वां रेल सप्ताह मनाया गया. इस समारोह में हमारे महाप्रबन्धक ने उत्कृष्ट कार्य के लिये कर्मचारियों व मंडलों को पुरस्कार व शील्ड प्रदान किये. समारोह में जब वे मंचपर पुरस्कार वितरण कर रहे थे तब उनका बेटा व्हील चेयर पर समारोह का अवलोकन कर रहा था. समारोह के बाद व्हील चेयर पर बाहर जाते समय कुछ अधिक समय लगा होगा – बाहर जाने की जल्दी वाले लोगों को कुछ रुकना पड़ा होगा. पर वह सब एक व्यक्ति को सामान्य महसूस कराने के लिये बहुत छोटी कीमत है.

जरूरी है कि हम किसी को लंगड़ा, बहरा, अन्धा, पगला, एंचाताना जैसे सम्बोधन देने से पहले सोचें और उस व्यक्ति में जो सरल-सहज है, उसे सम्बोधित करें उसकी विकलांगता को नही.

आप अपने आस-पास के विकलांगों को देखें उनकी क्या स्थिति है?

कोंहड़ौरी (वड़ी) बनाने का अनुष्ठान – एक उत्सव


जीवन एक उत्सव है. जीवन में छोटे से छोटा अनुष्ठान इस प्रकार से किया जाए कि उसमें रस आये यह हमारे समाज की जीवन शैली रही है. इसका उदाहरण मुझे मेरी मां द्वारा वड़ी बनाने की क्रिया में मिला।

मैने अपनी मां को कहा कि वो गर्मी के मौसम में, जब सब्जियों की आमद कम हो जाती है, खाने के लिये वड़ियां बना कर रख लें. मां ने उड़द और मूंग की वड़ियां बनाईं. शाम को जब वे सूखी वडियां कपडे से छुड़ा कर अलग कर रहीं थीं तब मैं उनके पास बैठ कर उनके काम में हाथ बटाने लगा. चर्चा होने लगी कि गांव में उडद और कोहंड़े (कद्दू) की वड़ी कैसे बनाई जाती थी।

मेरी माँ द्वाराबनाईंवडियां

मां ने बताया कि कोंहड़ौरी (कोंहड़े व उड़द की वड़ी) को बहुत शुभ माना गया है. इसके बनाने के लिये समय का निर्धारण पण्डित किया करते थे. पंचक न हो; भरणी-भद्रा नक्षत्र न हो यह देख कर दिन तय होता था. उड़द की दाल एक दिन पहले पीस कर उसका खमीरीकरण किया जाता था. पेठे वाला (रेक्सहवा) कोहड़ा कोई आदमी काट कर औरतों को देता था. औरतें स्वयं वह नहीं काटती थीं. शायद कोंहड़े को काटने में बलि देने का भाव हो जिसे औरतें न करतीं हों. पड़ोस की स्त्रियों को कोहंड़ौरी बनाने के लिये आमंत्रित किया जाता था. चारपाई के चारों ओर वे बैठतीं थीं. चारपाई पर कपड़ा बिछाकर, उसपर कोंहड़ौरी खोंटती (घोल टपकाकर वडी बनाती) थीं. इस खोंटने की क्रिया के दौरान सोहर (जन्म के अवसर पर गाया जाने वाला मंगल गीत) गाती रहतीं थीं.

सबसे पहले सात सुन्दर वड़ियां खोंटी जाती थीं. यह काम घर की बड़ी स्त्री करती थी. उन सात वड़ियों को सिन्दूर से सजाया जाता था. सूखने पर ये सात वड़ियां घर के कोने में आदर से रख दी जातीं थीं. अर्थ यह था कि जितनी सुन्दर कोंहड़ौरी है, वैसी ही सुन्दर सुशील बहू घर में आये.

कोंहड़ौरी शुभ मानी जाती थी. लड़की की विदाई में अन्य सामान के साथ कोंहड़ौरी भी दी जाती थी.

कितना रस था जीवन में! अब जब महीने की लिस्ट में वडियां जोड़ कर किराने की दुकान से पालीथीन के पैकेट में खरीद लाते हैं, तो हमें वड़ियां तो मिल जाती हैं पर ये रस तो कल्पना में भी नहीं मिलते.

नमामि देवि नर्मदे – गंगा किनारे नर्मदा की याद


मैंने अपने जीवन का बहुमूल्य भाग नर्मदा के सानिध्य में व्यतीत किया है। रतलाम मे रहते हुये ओँकारेश्वर रोड स्टेशन से अनेक बार गुजरा हूँ। पर्वों पर ओंकारेश्वर के लिए विशेष रेल गाडियां चलाना और ओंकारेश्वर रोड स्टेशन पर सुविधाएं देखना मेरे कार्य क्षेत्र में आता था। नर्मदा की पतली धारा और वर्षा में उफनती नर्मदा – दोनो के दर्शन किये हैं। यहाँ नर्मदा के उफान को देख कर अंदाज लगा जाता था की ३६ घन्टे बाद भरूच में नर्मदा कितने उफान पर होंगी और बम्बई-वड़ोदरा रेल मार्ग अवरुद्ध होने की संभावना बनती है या नहीं।

रतलाम में अखबारों में नर्मदा का जिक्र किसी किसी रुप में होता ही रहता थाबाँध और डूब का मुद्दा, पर्यावरण के परिवर्तन, नर्मदा के किनारे यदा कदा मगरमच्छ का मिलनायह सब रोज मर्रा की जिंदगी की खबरें थीएक बार तो हमारे रेल पुल पर काम करने वाले कुछ कर्मचारी नर्मदा की रेती पर सोये थे, रात में पानी बढ़ा और सवेरे उन्होंने अपने को चारों ओर पानी से घिरे एक टापू में पायाउनका कुछ नुकसान नहीं हुआ पर उस दिन की हमारी अनयूजुअल पोजीशन में एक रोचक एंट्री के रुप में यह घटना छपी

(वेगड जी का नर्मदा तट का एक रेखाचित्र जो उनकी पुस्तक में है)

नर्मदा माई को दिल से जोड़ने का काम किया अमृतलाल वेगड जी की किताब – सौन्दर्य की नदी नर्मदा“* नें. यह पुस्तक बहुत सस्ती थी – केवल ३० रुपये में। पर यह मेरे घर में बहुमूल्य पुस्तकों में से एक मानी जाती है। इसके कुछ पन्ने मैं यदा-कदा अपनी मानसिक उर्वरता बनाए रखने के लिए पढ़ता रहता हूँ। पुस्तक में वेगड जी की लेखनी नर्मदा की धारा की तरह – संगीतमय बहती है। और साथ में उनके रेखाचित्र भी हैं – पुस्तक को और भी जीवन्तता प्रदान करते हुये।
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* मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल द्वारा प्रकाशित

किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार और मधुकर उपाध्याय



बहुत पहले जब बीबीसी सुना करता था, मधुकर उपाध्याय अत्यंत प्रिय आवाज हुआ करती थी. फिर उनकी किताब किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार की समीक्षा वर्ष २००० मे रतलाम में पढी। समीक्षा इतनी रोचक लगी कि वह पुस्तक दिल्ली से फ्रंटियर मेल के कंडक्टर से मंगवाई।

मधुकर उपाध्याय द्वारा लिखी किस्सा पांड़े सीताराम सूबेदार,सारांश प्रकाशन द्वारा सन 1999 में प्रकाशित।

पहले बात मधुकर जी की कर ली जाये। मधुकर जी से मैं व्यक्तिगत रुप से जान-पहचान नहीं रखता हूँ। उनको बीबीसी पर सुनता था,वही परिचय है। उनकी आवाज अत्यन्त मधुर है। बीबीसी सुनना बंद हो गया तो उनसे भी कट गया। उनके बीबीसी पर भारतीय स्वातंत्र्य के १५० वर्ष होने पर धारावाहिक शृंखला में बोलने और उनकी दांडी यात्रा पुन: करने के विषय में काफी सामग्री मैंने अखबार से काट कर रखी थी, जो अब इधर- उधर हो गयी है।

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