हसन जमाल को इंटरनेटेनिया क्यों नहीं हो सकता


बेताल पच्चीसी की तरह इस ब्लॉग पोस्ट में लिंक और पेंच हैं. पहला और डायरेक्ट लिंक है रवि रतलामी का ब्लॉग. उसमें 4-5 लिंक हैं जो आप फुर्सत से वहीं से क्लिक करें.

हसन जमाल एक मुसलमान का नाम है. ये सज्जन लिखते हैं. नया ज्ञानोदय जैसे अभिजात्य हिन्दी जर्नल-नुमा-पत्रिका में इनके पत्र/प्रतिक्रियायें छपती हैं तो इंटेलेक्चुअल ही होंगे. कई चिठेरों ने इनपर कलम चलाई है. मुझे इनसे न जलन है न इनके मुसलमान/इंटेलेक्चुअल होने पर कोई वक्र टिप्पणी करनी है. मैं तो इंटरनेट को लेकर उन्होने जो कहा है उसके समर्थन (?) में कुछ कहना चाहता हूं.

यह इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया क्या है? मोटे तौर पर इंटरनेट बग जिसे काट लेता है और जो यदा-कदा-सर्वदा गूगल सर्च में मूड़ी घुसाये रहता है, वह इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया ग्रस्त जीव होता है. आप अगर यह ऑन-लाइन पढ़ रहे हैं और आप के दायें हाथ की तर्जनी माउस को सतत सहलाती रहती है, तो आप को यह विशेष फोबिया (सही शब्द मेनिया, जैसा बासूती जी ने स्पष्ट किया है) इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया है.

हसन जमाल जी इंटरनेट के खिलाफ हैं. जाहिर है उनको इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया नहीं हो सकता. पर इतना कहने से बात समाप्त नहीं हो जाती. उन्होने अपने रिसाले में जो अजीब तर्कों से युक्त सम्पादकीय लिखा है, उसके बावजूद उनसे ईर्ष्या करने का मन कर रहा है.

प्रयोग कै तौर पर मैने अपना कम्प्यूटर बन्द कर दिया है। केवल ऑफलाइन ही नहीं, यह लेखन मैं कागज-कलम लेकर कर रहा हूं. जेल पेन इस्तेमाल करने की बजाय, बहुत समय बाद मैने अपने फाउण्टेन पेन में रॉयल ब्ल्यू स्याही भरी है. निब हो धोया-पोंछा है. अपने ट्रांजिस्टर को बाहर निकाल कर वन्देमातरम सुनते हुये सवेरे छ बजे की हिन्दी खबर का इंतजार कर रहा हूं.

इंटरनेट के दंश से पीड़ित होने के कारण अपने बगीचे को मैने काफी समय से नहीं देखा था. आज ध्यान से देखा है. सूरजमुखी उदात्त मन से खिला है. किचन गार्डन में भिण्डी और नेनुआ में फूल लगे हैं. मनी-प्लाण्ट की बेल जो गमले से निकाल कर जमीन में रोपी गयी थी, न केवल जड़ पकड़ गयी है वरन पास के ठूंठ पर चढ़ने भी लगी है. कितना कुछ हो गया है, और मोजिल्ला/इण्टरनेट एक्स्प्लोरर की शरणागत इस जीव को उनका पता भी नहीं चला. लानत है.

यह पढ़कर हमारी जैसी प्रवृत्ति के अन्य सज्जन, जो इण्टरनेटोबिया इंटरनेटेनिया से ग्रस्त हैं; अपने कदम जरा पीछे खींचें. मेरी तरह अपने को कोसते हुये इंटरनेट कनेक्शन बन्द करें और हसन जमाल जी का प्रशस्ति गायन करें.

हसन जमाल जी के प्रशस्ति गायन का अर्थ उनके मुसलमान परस्ती के (कु)तर्क को समर्थन देना नहीं है. पर हम लोगों में इंटरनेटीय ऑब्सेशन के प्रति उनके आगाह करने को धन्यवाद देना जरूर है. शनै-शनै हम भूलते जा रहे हैं कि हमें यह ऑब्शेसन भी है.

हसन जमाल जी को इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया नहीं हो सकता क्यों कि वे इंटरनेट के सख्त खिलाफ हैं. (वे इसे चैटिंग-चीटिंग का माध्यम मानते हैं जैसे कि इससे पहले लोग पूजा-नमाज में ही तल्लीन रहते रहे हों!) पर हम जो इंटरनेट के सख्त पक्षधर हैं, वे भी, क्यों इंटरनेटोबिया इंटरनेटेनिया ग्रस्त हों? किसी तकनीक का प्रयोग मानव जीवन की सहूलियतें बढ़ाने में होना चाहिये, न कि बतौर अफीम, एडिक्शन के लिये. आफीमची होना घोर कर्म है, जिसे अफीमची ही सत्व संकल्प से दूर कर सकता है.

शूल हो, बस फूल ही हो; इनटरनेट एक टूल ही हो.

(मुझे खेद है – जहां भी इंटरनेटोबिया शब्द का प्रयोग हुआ है, उसे कृपया इंटरनेटेनिया पढ़ें. वास्तव में बीमारी मेनिया की है, फोबिया की नहीं. चेताने के लिये बासूती जी को धन्यवाद)

अस्वीकृति को अधिकाधिक आमंत्रण दें


एक चीज जो आधी जिन्दगी के बाद मुझे बढ़िया (?) मिली है वह है ब्लॉगिंग में अस्वीकृति का अभाव. आप अण्ट-शण्ट जो लिखें छाप सकते हैं.पब्लिश बटन आपके अपने हाथ में है. और भला हो नारद का, कुछ शिकार तो होते ही हैं जो आप की पोस्ट पर क्लिक कर बैठेंगे.

पर क्या वास्तव में अस्वीकृति बुरी चीज है?

मैने लेख लिख कर सम्पादक को भेजने और स्वीकृति/अस्वीकृति का इंतजार नहीं झेला है. पर अन्य क्षेत्रों में अस्वीकृति तो झेली ही है.

ऐसा बहुत पढ़ा है कि फलाने की रचना कुछ जगह रिजेक्ट हुयी; बेचारा टूट गया. उसके मरने के बाद जब वह रचना छपी तो कालजयी साबित हुई. अत: लेखन या रिजेक्शन गलत नहीं था; लेखक का टूटना गलत था. बिना टूटे वह यत्न जारी रखता तो जीवित ही यशस्वी हो जाता.

कथा है कि एडीसन 1000 बार फेल हुये बल्ब के अनुसन्धान में. फिर एडीसन, एडीसन बन गये.

रिजेक्शन एक अनुशासन तो बनाता है. इतने ब्लॉगर जो लिख रहे हैं; अगर यह हो कि उनका लेखन एक मॉडरेटर देखेगा तो आप पायेंगे कि ब्लॉग की गुणवत्ता में 10% सुधार तो स्वत: आ जायेगा (यह वर्तमान गुणवत्ता पर प्रतिकूल टिप्पणी न मानी जाये). हमारा लेखन चमकेगा नहीं, अगर हम असफलता या अस्वीकृति का जायका नहीं पायेंगे. अस्वीकृति जरूरी नहीं बाहरी हो. अच्छे ब्लॉगर बता सकते हैं कि उन्होंने कितनी ब्लॉग पोस्ट कितनी बार मॉडीफाई की हैं या कितनी परमानेण्टली रिसाईकल बिन में फैंक दी हैं. वह भी तो रिजेक्शन ही है, सेल्फ-इंफ्लिक्टेड ही सही.

अगर आपके जीवन में असफलता/अस्वीकृति/रिजेक्शन नहीं है तो या तो आप बहुत भाग्यशाली हैं, या आपके लक्ष्य बहुत साधारण हैं. आज के युग में जहां इतनी जद्दोजहद है. मैं साधारण लक्ष्य की बात नहीं मान सकता. और परमानेण्ट भाग्यशाली तो वाल्ट-डिज़्नी के कार्टून चरित्र अंकल स्क्रूज़ को ही पाया है मैने.

इसलिये बन्धुओं, अगर दैदीप्यमान होना है तो अस्वीकृति/रिजेक्शन को अधिकाधिक आमंत्रण दो।

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पीसा जाता जब इक्षुदण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड
मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का शृंगार
मानव जब जोर लगाता है
पत्थर पानी बन जाता है
जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं
मन को मरोड़ते हैं पलपल, तन को झंझोरते हैं पलपल
सत्पथ की ओर लगा कर ही
जाते हैं हमें जगा कर ही

(रश्मिरथी : दिनकर)

चिठेरों को टिप्पणी-निपटान की जल्दी क्यों रहती है?


हिन्दी ब्लॉगर्स दनादन कमेंट करते है? कई बार आपको लगता है कि आप (चिठेरा) कह कुछ रहे हैं, पर टिपेरे (टिप्पणीकार) एक लाइन, एक बहुप्रचलित शब्द को चुनकर दन्न से टिप्पणी कर आगे बढ़ जाते हैं. आप का मन होता है कि आप फिर से एक स्पष्टीकरण लिखें. टिपेरों का पुन: आह्वान करें हे टिपेराधिपति, कृपया मेरा आशय समझें और फलानी बात पर अपना आशीर्वाद दें. यह आशीर्वाद जम कर आपकी मजम्मत का भी हो सकता है. पर आशीर्वाद टू-द-प्वाइण्ट हो.

देखिये यहां जो जमात है; वह दोनो रोल अदा करती है. एक ही आदमी चिठेरा है और वही टिपेरा भी है. टिपेरे के रोल में 2 मूल तत्व हैं पहला (तत्व-क) स्वांत: सुखाय पढ़ने का और दूसरा (तत्व-ख) टिप्पणी दे कर कटिया फंसाने का. कटिया का मतलब कि ब्लॉगर आपका प्रोफाइल देखे, आपके ब्लॉग पर जा, टिपेरियाकर ऋण उतारे. तत्व-क जो टिप्पणी प्रोड्यूस करता है, वह आनन्दित करने वाली होती है. स्टेटेस्टिकली, यह तत्व हिन्दी चिठेरों में ज्यादा है करीब 50% तक. (अन्यथा जैसा रिसर्च पेपर्स में होता है केवल लिखने वाला ही पढ़ता है!). तत्व-ख (कटिया फंसाने वाला तत्व) जब ज्यादा होता है तो टिप्पणी सूखी-बासी-बेस्वाद सब्जी जैसी होती है.

(टिप्पणी : अहो रूपम, अहो ध्वनि!)

ऐसा नहीं है कि दो अलग-अलग प्रकार के टिपेरे हैं. एक ही टिपेरे में दोनो तत्व होते हैं. जिसमें तत्व-क 70% व तत्व-ख 30% है, वह बड़ा मस्त टिपेरा होगा. चिठेरे के रूप में भी भावी इतिहास उसका है. पर जिसमें इसका उल्टा; तत्व-क 30% या कम और तत्व-ख 70% या ज्यादा है, उसका तो नारद ही भला कर सकते हैं; कि उसे येन-केन-प्रकरेण पन्ना एक पर ज्यादा समय समय मिल सके, उसकी फीड में 200-250 शब्द एडीशनल आते हों, उसकी फोटो भी आती हो पोस्ट की चिप्पी के साथ, या जिसके ऑथर आर्काइव में एरर 404 नॉट फाउण्ड न आता हो।

खैर, यह तो विषयान्तर हो गया. पर दूसरे प्रकार के टिपेरे-चिठेरे को काफी सीखना होगा.

हिन्दी ब्लॉगरी में बड़ा रोचक राग दरबारी बज रहा है. कहीं मुहल्ला है, लोक मंच है, पंगेबाज है, सल्क कर रहे सृजनशिल्पी हैं, निषेध को निमंत्रण मानने वाले धुरविरोधी हैं, हमारे जैसा हिन्दी ब्लॉगरी में चौंधियाया नया एलीमेण्ट भी है … (बस-बस, नहीं तो छूटने वाले कहीं मेरे ब्लॉग पर आना ही बन्द न कर दें!). जरूरत है कि आत्ममुग्धता छोड़ राग दरबारी के आर्केस्टा वाले ब्लॉगर बढ़िया टिपेरा बनने में भी जोर लगायें.

है कोई ई-पण्डित जो बढ़िया टिपेरा कैसे बनें पर फड़कती हुई पोस्ट लिखदे.

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पोस्ट स्क्रिप्ट:

मुझे डिल्यूज़न हो रहा है कि हिन्दी ब्लॉगर सिद्धांत कौमुदी बनाई जा रही है, और उस संहिता के लिये मैने धर्म संसद के समक्ष प्रस्ताव रखा है:

“यह चिठेरा-धर्म है कि चिठेरा अपने चिठ्ठे पर जितनी टिप्पणियों की इच्छा रखता है; पोस्ट लिखने के साथ-साथ कम से कम उतने ब्लॉग्स पर जा कर तत्व-क अनुप्रेरित टिप्पणियां अवश्य करे. और अगर वह किसी घेट्टो (समूह) से जुड़ा है तो घेट्टो के बाहर जा कर कम से कम 25% टिप्पणियां वहां करे. यह न हो कि पत्रकार/मुहल्ला/लोकमंच बिरादरी वाले अपने पट्टीदारों में ही टिपेरते रहें।”
(वरना हमारे जैसे गरीब निर्दलीयों का क्या होगा?)

पोस्ट स्क्रिप्ट 2:

जिस तरह से टिपेरा जा रह है, लगता है जूते खाने कि नौबत जल्दी आने वाली है. भैया क्षमा करें अगर आपकी भावनायें आहत हो रही हैं. किसी व्यक्ति विशेष को लपेटने के लिये यह नहीं लिखा है. आपमें से कोई भी कह दें तो मैं यह पोस्ट हटा दूंगा

क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें?



मेरे घर और दफ्तर – दोनो जगहों पर विस्फोटक क्रोध की स्थितियां बनने में देर नहीं लगतीं। दुर्वासा से मेरा गोत्र प्रारम्भ तो नहीं हुआ, पर दुर्वासा की असीम कृपा अवश्य है मुझ पर. मैं सच कहता हूं, भगवान किसी पर भी दुर्वासीय कृपा कभी न करें.


क्रोध पर नियंत्रण व्यक्ति के विकास का महत्वपूर्ण चरण होना चाहिये. यह कहना सरल है; करना दुरुह. मैं क्रोध की समस्या से सतत जूझता रहता हूं. अभी कुछ दिन पहले क्रोध की एक विस्फोटक स्थिति ने मुझे दो दिन तक किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था. तब मुझको स्वामी बुधानन्द के वेदांत केसरी में छ्पे लेख स्मरण हो आये जो कभी मैने पढ़े थे. जो लेखन ज्यादा अपील करता है, उसे मैं पावरप्वाइण्ट पर समेटने का यत्न करता हूं। इससे उसके मूल बिन्दु याद रखने में सहूलियत होती है. ये लेख भी मेरे पास उस रूप में थे.

मैने उनका पुनरावलोकन किया. उनका प्रारम्भ अत्यंत उच्च आदर्श से होता है – यह बताने के लिये कि क्रोधहीनता सम्भव है. पर बाद में जो टिप्स हैं वे हम जैसे मॉर्टल्स के लिये भी बड़े काम के हैं.

कुछ टिप्स आपके समक्ष रखता हूं:

राग और द्वेष क्रोध के मूल हैं.
जब तक हममें सत्व उन्मीलित (सब्लाइम) दशा में है, हम क्रोध पर विजय नहीं पा सकते.

  • अगर आप क्रोध पर विजय पाना चाहते हैं तो दूसरों में क्रोध न उपजायें. 
  • अगर कोई अपने पड़ोसी के घर में आग लगाता है तो वह अपने घर को जलने से नहीं बचा सकता.
  • जो लोग कट्टर विचार रखते हों, उनसे विवादास्पद विषयों पर चर्चा से बचें.
  • अपने में जीवंत हास्य को बनाये रखें और जीवन के विनोद पक्ष को हमेशा देखने का प्रयास करें.
  • याद रखें; जैसे आग के लिये पेट्रोल है, वैसे क्रोध के लिये क्रोध है. जैसे आग के लिये पानी है, वैसे क्रोध के लिये विनम्रता है.
  • बुद्ध कहते हैं: अगर तुम अपना दर्प अलग नहीं कर सकते तो तुम अपना क्रोध नहीं छोड़ सकते.
  • धैर्य से क्रोध को सहन करें. विनम्रता से क्रोध पर विजय प्राप्त करें.
  • क्रोध का सीमित और यदा-कदा प्रयोग का यत्न छोड़ दें.
  • जैसे कि सीमित कौमार्य का कोई अर्थ नहीं है, वैसे ही तर्कसंगत क्रोध का कोई अस्तित्व नहीं है.
  • क्रोध में कोई कदम उठाने में देरी करें. चेहरे पर क्रोध छलकाने से बचें. क्रोध छ्लक आया हो तो कटु शब्द बोलने से बचें. कटु बोल गये हों तो हाथ उठाने से बचें. पर अगर आप हाथ उठा चुके हों तो बिना समय गंवाये आंसू पोंछें और पूरी ईमानदारी और विनम्रता से क्षमा याचना करें.
  • क्रोध न रोक पाने के लिये अपने आप पर बहुत कड़ाई से पेश न आयें. अपने आप को पूरी निष्ठा और सौम्यता से संभालें.
  • अहंकार, अपने को सही मानने की वृत्ति, और स्वार्थ को निकाल बाहर फैंकें.
  • अपने में व अपने आसपास सतर्कता का भाव रखें. बुराई को अपने अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर न जाने दें.
उक्त विचार स्वामी बुधानन्द के धारावाहिक लेख से रेण्डम चयन किये गये हैं. सूत्रबद्ध पठन के लिये निम्न पीपीएस फाइल के आइकॉन पर क्लिक कर डाउनलोड करें, जिसे मैंने हिंदी में रूपांतरित कर दिया है। चूंकि उसमें बिन्दु दिए गए हैं, आपको धाराप्रवाह पढ़ने में दिक्कत हो सकती है.

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ऊपर जिस छोटी पुस्तक का चित्र है, वह स्वामी बुधानंद की अंग्रेजी में लिखी “How to Build Character” के हिंदी अनुवाद का है। यह अद्वैत आश्रम, कोलकाता ने छापी है। मूल्य रुपये ८ मात्र। क्रोध पर लेख इस पुस्तक में नहीं है। किसी को छोटी सी गिफ्ट देने के लिए यह बहुत अच्छी पुस्तक है।


बाबूभाई कटारा की तरफदारी (?) में एक पोस्ट


मुझे भाजपा और कटारा पर तरस आ रहा है. जब मैं रतलाम में था तो झाबुआ-पंचमहल-दाहोद कांग्रेस के गढ़ हुआ करते थे. मैं आदिवासियों से पूछ्ता था कि देश का प्रधानमंत्री कौन है? तब या तो वे सवाल समझ नहीं पाते थे, या वेस्ता पटेल, कंतिलाल भूरिया अथवा सोमाजी डामोर जैसे स्थानीय कांग्रेसी का नाम लेते थे. उन गरीबों के लिये दुनियां में सबसे बड़े वही थे.

फिर आर.एस.एस.वालों ने वनवासी विकास संघ जैसे प्लेटफार्म से आदिवासियों में पैठ बनाई. मिशनरियों का वर्चस्व कुछ सिमटा. उस क्षेत्र से भाजपा जीतने लगी चाहे मध्यप्रदेश हो या गुजरात.

और अब कटारा ने लोढ़ दिया है! बेचारे आर.एस.एस. के कमिटेड वर्कर मुंह पिटा रहे होंगे. कटारा परमजीत कौर को ले जा रहे थे; सो तो ठीक; शिलाजीत(? – देसी वियाग्रा) काहे को ले जा रहे थे जब पत्नी साथ नहीं जा रही थी? पैसे के लिये भ्रष्ट आचरण तो खास बात नहीं है वह तो चलता है! पकड़े गये, वही गड़बड़ हो गया. पर खांटी दैहिक वासना का भ्रष्टाचार यह अति हो गयी.

मुझमें यह वक्र सोच क्यों है, यह मैं नहीं जानता. जनता कबूतरबाजी-कबूतरबाजी की रट लगाये है और मुझे खोट देसी वियाग्रा में नजर आ रहा है.

एक बाबू रिश्वत ले कर मकान बना लेता है, बच्चों को डाक्टरी/इंजीनियरी पढ़ा देता है. लड़की की ठीक से शादी कर देता है, सुबह शाम मन्दिर हो आता है, सुन्दर काण्ड का पाठ और भागवत श्रवण कर लेता है. यह मानक व्यवहार में फिट हो जाता है.

पर अगर वह पैसा पीटता है, दारू-मुर्गा उड़ाता है, रेड़ लाइट एरिया के चक्कर लगाता है, इधर-उधर मुंह मारता है; तब गड़बड़ है. कटारा देसी वियाग्रा के कारण दूसरे ब्रैकेट में लग रहे हैं. आगे क्या निकलेगा, भगवान जाने.

कैश और क्वैरी या कबूतरबाजी छोटा गुनाह है. उसपर तो सांसद निकाल बाहर किये गये. बड़ा गुनाह है माफियागिरी, औरत को मार कर जला देना, आई.एस.आई. से सांठ-गांठ, मधुमिता शुक्ला जैसे मर्डर, पोलिटिकल दबंगई के बल पर देह/असलाह/नशा आदि के व्यापार चलाना. ऐसे गुनाह करने वाले ज्यादातर छुट्टा घूम रहे हैं. उनकी नेतागिरी बरकरार है या चमक रही है.

ब्लॉगर भाई तलवारें तान सकते हैं. कह सकते हैं कि सरकारी नौकर है, रिश्वत को जस्टीफाई (?) कर रहा है. जरूर चक्कर है. पर ब्लॉगरी का मायने ही यह है कि (मर्यादा में रहते हुये) जो जंचे, लिखा जाये.

सड़क पर होती शादियां


हिन्दुस्तान में सड़क केवल सड़क नहीं है. जन्म से लेकर परलोक गमन के सभी संस्कार सड़क पर होते हैं. जीवन भी इन्हीं पर पलता है. सचिन तेन्दुलकर से लेकर मुन्ना बजरंगी तक इन्ही सड़कों पर बनते हैं.

लोग ज्यादा हो गये हैं तो स्कूल, मैदान, मैरिज हॉल, धर्मशालायें कम पड़ने लगी हैं. लिहाजा शादियां इन्ही सड़कों पर होती हैं.

समाज के रहन-सहन के मैन्युअल में यह कोडीफाइड है. आपके घर में शादी है तो सड़क पर टेंण्ट गाड़ लो. किसी नगर पालिका, मुहल्ला समिति, पास पड़ोस से पूछ्ने की जरूरत नहीं. और पूछना क्यूं? जब पड़ोस के लाला/सुकुल/गोयल/पासवान जी के पप्पू या गुड्डी की शादी में किसी ने सड़क बन्द करते समय आप को नहीं ग़ांठा तो आपको क्या जरूरत है?

(यह सड़क देख रहे हैं आप। पास में बफे डिनर का कचरा भी था जो मैं केप्चर नहीं कर पाया)

रात भर कान फोड़ू संगीत बजाना, ट्रेफिक की ऐसी तैसी कर देना, सवेरे बचे-खुचे भोजन और थर्मोकोल/प्लास्टिक के इस्तेमाल हुये प्लेट-गिलास-चम्मच सड़क पर बिखेर देना, जयमाल के लिये लगे तख्त-स्टेज-टेण्ट को अगले दिन दोपहर तक खरामा-खरामा समेटना…..यह सब हिन्दू/मुस्लिम पर्सनल लॉ में स्पेसीफाइड है. सवेरा होने पर बरात और टेण्ट हाउस के बन्दे सड़क पर सोते मिलते हैं और गाय-गोरू बचे-खुचे भोजन में मुंह मारते पाये जाते हैं. सवेरे की सैर के जायके में मिर्च घुल जाती है.

प्रवचन देने की तथागती मुद्रा अपनाना बेकार है. जन संख्या बढ़ती रहेगी. सड़क का चीर हरण होता रहेगा और भी फ्रीक्वेंट हो जायेगा.

सड़क आपकी, आपकी, आपकी.
सड़क हमारे बापकी.

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