अजय पटेल की मडैयाँ डेयरी दूध कलेक्शन सेण्टर पर भीड़ बढ़ती जा रही है। अब आसपास के ही नहीं, दूर से भी पशुपालक अपना दूध देने आते हैं। हर रोज नये नये चरित्र मिलते हैं। हर एक के बारे में लिखा जाये तो एक डेयरी चरित सागर ग्रंथ रचा जा सकता है।
वहां भीड़ होने के कारण मुझे प्रतीक्षा भी करनी होती है। वह खलती नहीं। दूध ले कर आये लोगों को देखना एक अनूठा अनुभव है।
आज के चरित्र थे अजय दुबे। वे पांच सात अलग अलग पशुओं का दूध अलग अलग डिब्बों में ले कर आये थे। सब की पर्चियां एक साथ निकलीं। एक मीटर लम्बा था प्रिण्ट आउट। सब पर अंकित मूल्य को मैंने जोड़ा तो नौ सौ- हजार के आसपास निकला।
अजय दुबे के मुंह में पान मसाला या बुद्धिबर्धकचूर्ण (सुरती – बीबीसी) भरा था। उनसे बातचीत करना कठिन था। पर फिर भी सम्प्रेषण हो पाया – आसपास वालों के सहयोग से।
उन्होने बताया कि छ अलग अलग गोरू हैं उनके जो दुधारू हैं। उनका दूध मिला कर लायें तो औसत फैट के बेसिस पर रेट कम मिलता है। अलग अलग लाने और अलग अलग नपाई पर पैसा ज्यादा बनता है।
वे रेट ज्यादा मिलने से ज्यादा पशुपालन की नहीं सोच रहे? – मैंने यह सवाल पूछा।
उन्होने अपना बिजनेस बताया। वे गाय-भैंस खरीदते बेंचते रहते हैं। कोई पशु स्थाई रूप से उनके पास नहीं रहता। गोरू की खरीद-बेंच भी अपने आप में मुनाफे का सौदा है। लेकिन जब से दूध के रेट ज्यादा मिलने लगे हैं, वे अपने पास ज्यादा पशु रखने लगे हैं। “पहले मैं एक डिब्बा दूध का लाता था सेण्टर पर। अब छ डिब्बे आते हैं। छ का अर्थ है छ गोरू। मैं सवेरे भी दूध ले कर आता हूं और शाम को भी।” – अजय दुबे ने कहा।
अर्थात उनका बिजनेस मॉडल बदल रहा है। वे गाय गोरू के खरीद-फरोख्त के कारोबार से दूध के लिये पशुपालन के कारोबार की ओर उन्मुख हो गये हैं। अजय दुबे जैसे व्यक्ति, जिसमें बिजनेस सेन्स है; डेयरी के इस मॉडल का सही मायने में फायदा उठाने में अग्रणी रहेंगे।
उनका गांव मै मटकीपुर। इस सेण्टर से साढ़े तीन किलोमीटर दूर। अधिकतर आसपास के किसान-पशुपालक आते हैं सेण्टर पर। पर अब दूर दूर से भी आने लगे हैं।
रोचक है गांवदेहात में बदलाव को देखना, परखना। मैं डेयरी सेण्टर पर जाना और इंतजार करना पसंद करने लगा हूं। नये पात्र और नये विषय जो मिलते हैं वहां, लिखने के लिये! 🙂
