मैं, ज्ञानदत्त पाण्डेय गाँव विक्रमपुर, जिला भदोही, उत्तरप्रदेश (भारत) में रह कर ग्रामीण जीवन जानने का प्रयास कर रहा हूँ। रेलवे के विभागाध्यक्ष के पद से रिटायर रेलवे अफसर।
मेहनती है सुग्गी। घर का काम करती है। खेती किसानी भी ज्यादातर वही देखती है। क्या बोना है, क्या खाद देना है, कटाई के लिये किस किस से सहायता लेनी है, खलिहान में कैसे कैसे काम सफराना है और आधा आधा कैसे बांटना है – यह सब सुग्गी तय करती है।
अपने आसपास के ग्रामीण चरित्रों के बारे में हम ब्लॉग पर लिखेंगे। #ग्रामचरित हैशटैग के साथ। पहला चरित्र थी दसमा। मेरी पत्नीजी द्वारा लिखी गई पोस्ट। अब पढ़ें सुग्गी के बारे में।
सुग्गी गांव में आने के बाद पहले पहल मिलने वाले लोगों में है। उसका घर यहीं पास में है। सौ कदम पर पासी चौराहे पर उसका पति राजू सब्जी की दुकान लगाता है। उसे हमने अपना दो बीघा खेत जोतने के लिये बटाई पर देने का प्रयोग किया था। जब हम यहाँ शिफ्ट हुए तो राजू स्वयं आया था। उसने परिचय दिया कि वह विश्वनाथ का बेटा है। विश्वनाथ मेरे श्वसुर स्वर्गीय शिवानंद दुबे का विश्वासपात्र था। उसी विश्वास के आधार पर पत्नीजी ने खेत उसे जोतने को दिया।
बाद में पाया कि बटाई पर खेती करने के काम में सुग्गी अपने पति की बजाय ज्यादा कुशल है। राजू में अपनी आत्मप्रेरणा (इनीशियेटिव) की कमी है। उसके घर में नेतृत्व का काम शायद सुग्गी करती है।
देखा कि एक साइकिल सवार हैंडिल में एक झोला लटकाये, हाथ में साधारण से मास्क लिये है। चाइनीज वाइरस के जमाने में मास्क की मार्केट की आपूर्ति कर रहा है।
दोपहर दो बजे। मौसम गर्म था, धूप तेज। पत्नीजी ने आवाज सुन कर बाहर झांका ओर आ कर बताया कि कोई मस्क बेच रहा है।
मस्क? कस्तूरी?
कस्तूरी इतनी मंहगी चीज है – आजकल कहां मिलती है और कौन फेरीवाला बेचेगा? वह भी गांव में? जरूर फ्रॉड होगा। फिर भी मैं उठा। आजकल लॉकडाउन काल में हर एक फेरीवाले की इज्जत बढ़ गयी है। क्या पता कौन काम की चीज लिये हो।
“एक साइकिल सवार हैंडिल में एक झोला लटकाये, हाथ में साधारण से मास्क लिये है” : फेरीवाला
घर के बाहर गेट तक निकल कर गया तो देखा कि एक साइकिल सवार हैंडिल में एक झोला लटकाये, हाथ में साधारण से मास्क लिये है। चाइनीज वाइरस के जमाने में मास्क की बढ़ी हुई मांग की आपूर्ति कर रहा है। बताया कि पैंतीस रुपये में एक “मस्क” है। दो कपड़े की लेयर का मास्क। ऊपर काले रंग का कपड़ा है और भीतर अधिक महीन सफेद रंग का। टी-शर्ट और बनियान के कपड़े जैसे। उसी काले कपड़े के दो छल्ले साइड में बने हैं जो कान पर अटकाने के लिये हैं। बहुत साधारण डिजाइन।
दो लेयर का मास्क लगभग 50 से 60 प्रतिशत छोटे पार्टिकल्स छानने में सक्षम होगा, मैंने अंदाज लगाया। कोरोना वायरस को मुंह और नाक में जाने से रोकने के लिए शायद काम करेगा। लोग गमछा लपेटने की सलाह दे रहे हैं। वह लपेटने में बार बार सरक जाने और ढीला पड़ जाने की परेशानी होती है। यह उससे बेहतर ही होगा।
घास छीलने वाली सवेरे सवेरे निकल पड़ी थीं। आपस में बोल बतिया भी रहे थीं। गर्मी बढ़ रही है। गाय-गोरू के लिये घास मिलनी कम हो गयी है। उसके लिये इन महिलाओं को अब ज्यादा मशक्कत करनी पड़ने लगी है।
मेदिनीपुर, पठखौली, इटवा उपरवार, हुसैनीपुर/महराजगंज, बनवारीपुर, दिघवट – ये मेरे लिये वैसे ही नाम हैं, जैसे कोई देश-परदेश वाला बोस्टन, मासेचुसेट्स, कैलीफोर्निया, फ्लोरिडा, स्टॉकहोम, शांघाई और सिंगापुर के बारे मेँ कहता होगा।
मेरे बिट्स, पिलानी के बैचमेट्स और रेलवे के वेटरन अफसरों ने मुझे ह्वाट्सएप्प ग्रुपों मेँ मुझे जोड़ रखा है। उन ग्रुपों में वे लोग इन बड़े बड़े जगहों की बात करते हैं। कोई खुद वहां हैं, किसी के बच्चे वहां हैं। और कुछ तो अभी एक्टिव हैं और अपने कामधाम के सिलसिले में इन स्थानों की यात्रा करते रहते हैं। पर मेरे जीवन में तो यही आसपास के गांव और बटोही – मेरी साइकिल की सवारी भर है। 😦
कटाई करने वाले ही नहीं, ईंट भठ्ठा मजदूर, आनेवाले पेट्रोल पम्प की दीवार बनाते आधा दर्जन लोग, सूखते ताल में मछली पकड़ते ग्रामीण, ठेले वाले, किराना की दुकान में छोटे वाहन से हफ़्ते भर की खेप लाने वाले, कटाई के बाद खेत से बची हुई गेंहू की बालें बीन कर जीवन यापन करने वाले, धोबी, नाई .. ये सब काम पर लगे हैं। ग्रामीण जीवन और अर्थव्यवस्था (लगभग) सामान्य है।
टेलीवीजन जो दिखाता है वह अर्धसत्य है। उसके कर्मी उतने कुशल नहीं हैं, जितने अन्य देशों (विशेषकर) अमेरिका के हैं। वे चिल्लाचिल्ला कर टिल्ल सी बात को “बड़ी खबर, बड़ी खबर” के नाम से दिन भर बांटते रहते हैं। सरकारी फीड पर जिंदा रहने वाले परजीवी हैं – अधिकांश। एक और नौटंकी – पैनल डिस्कशन की बिसात बिछा कर रोज करते हैं। वही घिसेपिटे चेहरे जो अपने घर के ड्राइंगरूम से उन्ही की तरह बिना शिष्टाचार के चबड़ चबड़ एक दूसरे पर बोलने वाले हैं, उन पैनल डिस्कशन के घटक होते हैं। देखना बंद कर दिया है मैंने।
निकोलस क्रिस्टॉफ का एक लेख है न्यूयार्क टाइम्स में। शीर्षक है – Life and Death in the ‘Hot Zone’। जरा देखिये और पढ़िये। उसमें एक डॉक्यूमेण्ट्री है। उसका स्तर देखिये। क्रिस्टॉफ कहते हैं कि रिपोर्टिन्ग वैसी ही कर रहे हैं वे लोग, जैसे युद्ध के संवाददाता करते हैं।
हमारे यहां कोरोना वायरस पर युद्ध स्तर की रिपोर्टिंग करने वाले संवाददाता विरले हैं। गिनेचुने। … यह मत मैने आजकल की रिपोर्टिंग देख कर नहीं बनाया। पहले भी ऐसा सोचता रहा हूं। हिन्दी ब्लॉगिंग के स्वर्ण युग में हिन्दी के कई पत्रकार हिन्दी ब्लॉग लिखा करते थे; उस समय उनके स्तर को बहुत बारीकी से ऑब्जर्व किया था मैने। और बहुत से घटिया थे। स्नॉब और स्तरहीन। प्यूट्रिड!
ग्रामीण जन जीवन की बहुत रिपोर्टिन्ग मीडिया में नहीं है। मैं सर्च करता हूं तो अन्दाज लगता है कि 20-30 करोड़ के आसपास लोग खेती-किसानी या उससे सम्बन्धित कार्य पर निर्भर हैं। और वह दिखता भी है। पर मीडिया रिपोर्ताज में वह गायब है।
“कहां कोरोना? इस ओर कोई कोरोना नहीं है। इस तरफ़ तो गेंहू की कटाई की धूल है।”
खडंजे की खराब सड़क से गुजरते हुये एक गेंहू की कटाई करने वाले के पास रुकता हूं। सोशल डिस्टेंसिंग के नॉर्म के आधार पर उससे दूरी बनाये बनाये पूछता हूं – यह मास्क काहे पहन रखा है?