मेदिनीपुर, पठखौली, इटवा उपरवार, हुसैनीपुर/महराजगंज, बनवारीपुर, दिघवट – ये मेरे लिये वैसे ही नाम हैं, जैसे कोई देश-परदेश वाला बोस्टन, मासेचुसेट्स, कैलीफोर्निया, फ्लोरिडा, स्टॉकहोम, शांघाई और सिंगापुर के बारे मेँ कहता होगा।
मेरे बिट्स, पिलानी के बैचमेट्स और रेलवे के वेटरन अफसरों ने मुझे ह्वाट्सएप्प ग्रुपों मेँ मुझे जोड़ रखा है। उन ग्रुपों में वे लोग इन बड़े बड़े जगहों की बात करते हैं। कोई खुद वहां हैं, किसी के बच्चे वहां हैं। और कुछ तो अभी एक्टिव हैं और अपने कामधाम के सिलसिले में इन स्थानों की यात्रा करते रहते हैं। पर मेरे जीवन में तो यही आसपास के गांव और बटोही – मेरी साइकिल की सवारी भर है। 😦
लॉकडाउन युग में इन आसपास की जगहों पर एन95 मास्क (मैने ये दो साल पहले अमेजन पर खरीदे थे, इलाके की मिट्टी और बालू की धूल से बचने के लिये, पर काम अब आ रहे हैं) लगाये घूमना अजीब लगता है। अलग प्रकार का जीव लगता हूं।

पत्नीजी कहती हैं कि अगर मुँह पर इस मास्क से पसीने और उमस की तकलीफ होती है, तो गमछा लपेटा करो। वह ट्राई भी किया है। जरा हाथ सेट हो जाये और गमछा बार बार खुलने की झंझट न रहे तो वही लगाया करूंगा। यह मास्क तो वातानुकूलित वातावरण के लिये ही मुफीद है।
खैर, आज तो वही मास्क लगाये थे। एक छोटी बोतल सेनीटाइजर की भी है किट में – बिटिया ने मेरी फिक्र कर बोकारो से भेज दी है। वैसे वह फोन पर धमकाती भी रहती है कि इधर उधर न निकला करूं। निकलता हूं केवल व्यायाम के लिये। चालीस मिनट से एक घण्टा साइकिल चलाना ही मेरे लिये व्यायाम है।
मेदिनीपुर में थ्रेशिंग करने के लिये ट्रेक्टर वाले ने रंगमंच सजा लिया था। अगर काम चालू कर दिया होता तो उस गांव की सड़क से निकलता ही नहीं। अभी काम चालू करने और गर्दा उडाने में देर थी।

घास छीलने वाली सवेरे सवेरे निकल पड़ी थीं। आपस में बोल बतिया भी रहे थीं। गर्मी बढ़ रही है। गाय-गोरू के लिये घास मिलनी कम हो गयी है। उसके लिये इन महिलाओं को अब ज्यादा मशक्कत करनी पड़ने लगी है।

इस कच्चे रास्ते से साइकिल ले कर निकलना मुझे हाईवे से ज्यादा सुखद लगता है।
पठखौली में सड़क के किनारे यह वृद्ध लेटा था। सवेरे की चाय पी चुका था। यही नातिन बना कर लाई थी सड़क के उस पार घर से। अच्छा लगा यह देखना। कोरोना का संक्रमण इतनी जल्दी जाने वाला नहीं। अखबार लिखते हैं 2022 तक सम्भाल कर रखना होगा अपने स्वास्थ्य और अपने सीनियर सिटिजन्स को। ऐसी ही सेवा करती रहे यह नातिन!

इटवा मेें मुसलमान हैं। यहां मस्जिद से रात में आने वाली अजान – अगर हवा का रुख ईशान कोण की ओर हुआ – मेरे घर तक सुनाई पड़ती है। जब मैँ सेकुलर मोड में होता हूं तो अजान और संस्कृत की ऋचाओं में फर्क नहीं लगता। पर आजकल तबलीगी नंगई ने इन लोगों के प्रति बहुत अविश्वास जगा दिया है। … क्या पता मस्जिद में कोई तबलीगी घुसाये बैठे हों! लोग किसी मुसलमान से मिलने में कतरा रहे हैं। यह गलत है। पर जो है, सो है!

इटवा गाँव तक आया मैं। गाँव में घुसने के पहले रुका। दृष्य ऐसा था कि कहीं भी भीड या पांच सात लोगों के एक जगह होने की सम्भावना थी संकरी होती सड़क के किनारे। गांव के पार गंगाजी का किनारा है। वहां जाने का मन था, पर सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल कर साइकिल मोड़ ली वापस आने को।

आगे रेलवे फाटक था। कोई खास जगह नहीं। पर महुआ के पेड़, जहाँ भी हों, आकर्षित करते हैं। वहां साइकिल रोक कर चित्र लिया। लेवल क्रासिंग आजकल निर्बाध खुला है। शायद गेटमैन भी नहीं है गेट पर। कोरोना लॉकडाउन में तीन हफ्ते से ज्यादा हो गया कोई रेलगाड़ी पास हुये इस ट्रैक पर।

समय हो गया था और आज का भ्रमण/साइकिल व्यायाम भी पर्याप्त हो गया था। घर वापस आ कर हस्तप्रक्षालन अनुष्ठान किया; भले ही न कहीं रुका और न किसी से मिला भ्रमण के दौरान मैँ!