बहुत पहले जब बीबीसी सुना करता था, मधुकर उपाध्याय अत्यंत प्रिय आवाज हुआ करती थी. फिर उनकी किताब किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार की समीक्षा वर्ष २००० मे रतलाम में पढी। समीक्षा इतनी रोचक लगी कि वह पुस्तक दिल्ली से फ्रंटियर मेल के कंडक्टर से मंगवाई।
पहले बात मधुकर जी की कर ली जाये। मधुकर जी से मैं व्यक्तिगत रुप से जान-पहचान नहीं रखता हूँ। उनको बीबीसी पर सुनता था,वही परिचय है। उनकी आवाज अत्यन्त मधुर है। बीबीसी सुनना बंद हो गया तो उनसे भी कट गया। उनके बीबीसी पर भारतीय स्वातंत्र्य के १५० वर्ष होने पर धारावाहिक शृंखला में बोलने और उनकी दांडी यात्रा पुन: करने के विषय में काफी सामग्री मैंने अखबार से काट कर रखी थी, जो अब इधर- उधर हो गयी है।
वर्ष २००३-०४ मे उन्हें टीवी चैनल पर समाचार पत्रों की समीक्षा में कई बार देखा था। उनके व्यक्तित्व में ओढ़ी दार्शनिकता या छद्म-बौद्धिकता के दर्शन नही हुये, जो आम पढ़े-लिखे (और सफ़ल?) भारतीय का चरित्र है। फिर पता चला कि मधुकर लोकमत समाचार के ग्रुप एडीटर हो गए हैं। अभी व्हिस्पर न्यूज़ में था कि वहाँ से त्यागपत्र दे दिया है। पता नही सच है या नही। अखबारों में जो बाजार हथियाने की स्पर्द्धा चला रही है, वहा निश्चय ही तनाव देने वाली रही होगी। खैर, पुस्तक पर छपे के अनुसार वे मेरे समवयस्क होंगे। अगर ईश्वर अपना मित्र चुनने की आजादी देते हों तो मैं मधुकर उपाध्याय को चुनना चाहूँगा।
किस्सा पांडे सीताराम सूबेदार (१७९७-१८८०) कम्पनी और फिर अंग्रेज सेना के एक सिपाही की आत्म कथा है जो सूबेदार बन कर पेंशन याफ्ता हुये। सीताराम अवध के थे और उन्होने अपनी आत्म कथा अवधी में वर्ष १८६०-१८६१ मे लिखी। इसका कालांतर में जेम्स नोर्गत ने अगेजी मे अनुवाद किया। यह पुस्तक अत्यंत महत्वपूर्ण है – अंग्रेजों के शासन काल में ब्रिटिश सेना की नौकरी के इच्छुक लोगों के लिए यह अनिवार्य था कि वे यह पुस्तक पढ कर परीक्षा पास करें।
सीताराम पांडे वास्तव में थे और उन्होंने यह पुस्तक अवधी में लिखी थी, यह मधुकर जी की पुस्तक की प्रस्तावना से स्पष्ट हो जाता है। सन १९१५ में सर गिरिजाशंकर वाजपेयी ने अपने सिविल सेवा के इन्टरव्यू में यह कहा था कि सीताराम पांडे ने यह किताब उनके दादा को दी थी और उन्होने यह किताब पढी है। पर उसके बाद यह पाण्डुलिपि गायब हो गयी और मधुकर जी काफी यत्न कर के भी उसे ढूढ़ नहीं पाये। तब उन्होने इस पुस्तक को अवधी मे पुन: रचने का कार्य किया। मेरे जैसे अवधी से कट गए व्यक्ति को अपनी जड़ों से जोड़ने में इस पुस्तक की बड़ी भूमिका है. मैं मधुकर जी की प्रस्तावना से अन्तिम वाक्यांश उधृत करना चाहूँगा – ‘…लाभ उन लोगों को भी हो सकता है जो इस क्षेत्र के तो हैं पर अपनी बोली से कट गए हैं। उम्मीद है कि यह किताब आपको पसंद आयेगी।’
पुस्तक के आभार पृष्ठ से:
“सीताराम सूबेदार” की कहानी मेरे लिए एक सपने की तरह थी जिसे लेकर मैं कई साल जिया।…..” – मधुकर उपाध्याय
किस्सा पांडे मुझे यह भी अहसास कराती है कि सोच-समझ या उत्कृष्टता पढे-लिखे बुद्धिजीवियों कि बपौती नहीं है। मेरे गांव के छोटे किसान अवधबिहारी तिवारी जब यह कहते हैं ‘भइया खेत-जमीन के लग्गे खड़ा होए पर जमीन खुदै फ़सल क हाल कहथ’; तब मुझे सीताराम पांडे जैसे चरित्र कि याद हो आती है. इस किताब में इसी तरह के विचार हैं जो सीतारामजी ने बिना लागलपेट के लिखे हैं।
किस्सा पांडे का किस्सा शुरू होता है गांव से पांडे के पैदल आगरा जा कर सिपाही के रूप में भारती होने से। रस्ते में ठगी प्रथा से रूबरू होने का चित्रण भी है। पुस्तक में सीताराम पांडे की सात बड़ी लड़ाइयां और छः बार गम्भीर घायल होना भी है। ग़दर में उनके अपने बेटे के बाग़ी के रुप में पकडे जाने और उसको गोली मरने के लिए पांडेजी को ही आदेशित होने का प्रसंग भी है। ग़दर क्यों हुआ – इसपर पांडेजी के विचार भी है। मैं पुस्तक के छोटे-छोटे अंश आपके समक्ष रखता हूं।
ठगी का प्रसंग:….रात मा जब हमरे सब रुकेन तौ हमैं इहै सोचि-सोचि कै बहुत देर तक नींद नहीं आई कि ई सब ठग हैं! हम जागै कै पूरी कोसिस किहेन लेकिन थोडी देर बाद सोइ गयन! कुछै देर बीता कि हमार आंख मुर्गा के बांग अस आवाज से खुलि गय! हम उठि के बैठ गयन तो देखेन कि मजदूरन मा से एक-दुइ मनई हमरे लोगन के लगे हैं जे सोवत रहे! हम बहुत जोर से चिल्लायन और हमरे मामा तुरंतै तलवार लइ कै उनकी ओर लपके! ई सब पलक झपकत भय लेकिन तब तक ठग देवनारायन के भाई कै रेसम कै रस्सी से गटई घोंटि चुका रहे और तिलकधारी का बेहोश कई दिहे रहे! मामा तिलकधारी के उपर खडे ठग का काट डारिन और तिलकधारी कै जान बचि गय! यतनी देर मा ठग हमरे मामा कै सोना वाली जंजीर चोराइ लिहिन जेकर दाम अढाई सौ रुपया रहा और तिलकधारी कै तमंचा लै उडै! वहि समय पहरा देय कै जिम्मेदारी तिलकधारी कै रही लेकिन वै सोइ गय रहे! ….
बेटे को गोली मरने का प्रसंग:
…..एक दिन लखनऊ के लगे एक घरे मा कयू जने पकरि लिहा गए! वै सब सिपाही रहे! ओन्हैं पकरि कै, बान्हि कै हमरे रेजीमंट कै कमांडर के आगे पेस किहा गय और अगले रोज सबेरे आडर भय कि सबका गोली मारि दिही जाय! वहि समय फैरिंग पारटी हमरे जिम्मे रही! हम सिपहियन से ओनके नावं और रेजीमंट पूछेन! पांच-छह जने के बाद एक सिपाही वहि रेजीमंट कै नांव लिहिस जेहमा हमार बेटवा रहा! हम ओसे पुछेन कि का ऊ लैट कंपनी कै अनंती राम का जानत है औ उ कहिस कि ई वही कै नांव है! अनंती राम बहुत जने कै नांव होत है यहि मारे हम पहिले ज्यादा ध्यान नहिं दिहेन! दुसरे, हम पहिलेन मानि चुका रहेन कि हमार बेटउवा सिंध मा बुखार से मरि गय एहसे बात हमैं नहीं खटकी लेकिन जब ऊ कहिस कि ओकर गांव तिलोई है तौ हमार करेजा हक्क से होइ गय! का ऊ हमरै बेटवा रहा? यहि मा कौनौ सक नही रहि गय जब ऊ हमार नांव लइकै कहिस कि वै हमरे बाबू आंय! फिर ऊ हमसे माफी मांगत हमरे गोडे पै गिरि परा! ऊ अपने रेजीमंट के बाकी सिपहियन के साथे गदर मा चला गय रहा और लखनऊ आइ गय रहा! एक दायं जौन होय क रहा, होइ गय; ओकरे बद ऊ का करत? अगर ऊ भगहूं चाहत तौ कहां जात?
ओन्हैं सब का संझा कै चार बजे गोली मारि जाय का रही औ अपने बेटवा का गोली मारै का काम हमहीं का करे का रहा! ई है किस्मत?……(खैर, पांडेजी को गोली नहीं मारनी पड़ी। औरों की लाशें जंगल में फैक दी गईं पर वे अपने लडके का दाह संस्कार कर पाये। वे अपने लडके से नाराज जरूर थे पर यह भी था कि बाग़ी होने पर भी उसे बेटा मान रहे थे।)
ग़दर के कारण पर विचार:
…..गदर कै आग मुसलमान लगाइन और हिंदू भेडी यस ओनके पीछे-पीछे नदी मा चला गए! बगावत कै असल कारन ई रहा कि सिपहिन का ताकत कै नसा होइ गय रहा और अफसरन के लगे ओन्हैं रोकै कै ताकत नहीं रही! एसे सिपाही ई समझि लिहिन कि सरकार ओनसे डेरात है जबकि सरकार ओनपै भरोसा करत रही, यहि मारे कुछ नही कहत रही! लेकिन केहु के बेटवा बागी होइ जाय तौ ओहका घरे से नहीं निकारि दीन जात! हमैं लागत है कि यहि गदर के लिए बागी बेटवा का जौन सजा मिली है ओकर असर बहुत दिन तक रही। …..
भ्रष्टाचार पर विचार:
…..बरतानी अफसर ई सुनिकै बहुत गुस्सा होइ जात हैं कि केहू घूस दिहिस है! ओसे पूछा जात है ऊ घूस काहे दिहिस! ओका सायद नहीँ पता होत कि ऊ मनई इहै सोचि कै घूस देत है कि घूस कै कुछ पैसा साहब के लगे जात है! यही मारे ऊ साहब से कुछ कहत नही काहे कि चपरासी से लइकै किलरक तक सब ओसे इहै कहत हैं कि पइसा सहबौ क गय है! हम यस कौनो दफ़्तर के बारे मा नहीं सुनेन जहां किलरक ई न कहत होंय कि साहब घूस लेत हैं! वै चाहत हैं कि घूसखोरी चला करै काहे कि ओनकै तौ जिन्नगी यही से चलत है! हमरे गांव कै पटवारी एक रोज हमसे कहिस कि हमरै गलती रही होई जौन हम्मैं तरक्की नहीं मिली या यतनी देर से मिली!……
वइसे बिलैती और हिंदुस्तानी सिपहियन मा ई खुब चलत है और घूस के मामला मा ओनमा कौनो फरक नहीं है! हम जानित है कि साहब लोग घूस नहीं लेते लेकिन हमसे ज्यादा पढा-लिखा कयू मनई दावा से कहत हैं कि साहब लोग घूस लेत हैं! जब वै खुदै इहै काम करत हैं तौ और काव कहिहैं?…..
(क्या सीताराम पांडे आज की बात नहीं कर रहे? डेढ़ सदी बीत गयी पर भ्रष्ट आदमी का चरित्र नहीं बदला!)
बहुत रोचक लगी य किताब, किताब की समिक्षा के लिये धन्यवाद, कभी हाथ लगी तो पढ भी लेगे
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ऐसा नहीं कि घूस के मामले में न बदले हों। वहाँ भी बहुत विकास हुआ है।
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अब तकनीकी विकास तो हुआ ही है। 🙂
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@अगर ईश्वर अपना मित्र चुनने की आजादी देते हों तो मैं मधुकर उपाध्याय को चुनना चाहूँगा।
अपनी बात उन तक पहुँचा दीजिये। मुझे विश्वास है कि वे भी आपसे दोस्ती पसन्द करेंगे। दो महीने पहले मैने तात्या टोपे के वंशज और ऑपरेशन रैड लोटस के लेखक से एक दोस्ताना मुलाकात (और शायद नई-नई दोस्ती भी) की है। कहने की ज़रूरत नहीं कि मैने उन्हें आशा से अधिक विनम्र और मित्रवत पाया।
बहुत छोटा था तब कई रविवारों को पिताजी के वरिष्ठ सहकर्मी को इस पुस्तक का अंग्रेज़ी संस्करण पढते हुए पाया था। नेपाली मूल के खत्री अंकल अंग्रेज़ी सेना में रहे थे। आपकी पोस्ट से उनका और पुस्तक का सम्बन्ध समझ आया।
पिता-पुत्र की मार्मिक घटना पर अपनी ओर से कुछ नहीं कहूँगा मगर इससे दो ईरानी पिता-पुत्र सैनिकों सोहराब और रुस्तम की कथा याद आ गयी।
घूस के मामले में वाकई हम बदले नहीं हैं, परंतु ठगी के मामले में बेहतर हैं।
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ठगी का रूपांतरण हो गया है! 🙂
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पुस्तक तो रोचक लग रही है ! कभी मिली तो जरूर पढ़ी जायेगी.
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asha karat hoon ki madhukar ji apki ye post padh rahe honge…ya padheinge !!pustak samixa acchi thi !!
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किताब बहुत रोचक लग रही है। काश हमें पढ़ने को मिल जाती। ठगी का किस्सा तो बिल्कुल वैसा लग रहा है जैसा हमने अपनी एक पोस्ट में एक उपन्यास का जिक्र करते हुए बताया था। उसे पढ़ कर तो ट्रेन से भी सफ़र करते डर लगता है
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ज्ञान दा एक अच्छी और जरूरी किताब की जानकारी के लिए आभार, क्या आपके जरिये मधुकर जी का सम्पर्क सूत्र् या ईमेल आइडी मिल सकता है. उनसे सीधे बात करने का सुख उठाना चाहता हूं.सूरज प्रकाश
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यह पुस्तक आज भी प्रासंगिक लगती है। आप जब भी किसी पुस्तक के बारे में बताएँ तो उसके मुद्रक-प्रकाशक की जानकारी भी दें तो अधिक अच्छा होगा, यदि कोई यह पुस्तक खरीदना, पढ़ना चाहे तो उसके लिए पुस्तक प्राप्त करना आसान होगा।
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कल आपकी यह पोस्ट पढ़ी थी पर टिप्पणी का कोई उपाय नहीं था आपके चिट्ठे पर .१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर जितने भी दस्तावेज़/पुस्तकें/पुरालेख हों उन्हें सरकार द्वारा एक स्थान पर उपलब्ध कराया जाना चाहिये . वरना खानापूरी भर होती रहेगी इसकी १५० वीं वर्षगांठ पर.अवधी में लिखी पांडे सीताराम सूबेदार की आत्मकथा के अतिरिक्त दिल्ली के पहाड़गंज थाने के तत्कालीन कोतवाल मोईनुद्दीन हसन के आत्मप्रसंग और वर्णन भी इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं कि वे एक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं उस समय को समझने का.गालिब के ‘दस्तम्बू’का भी एक अच्छा हिंदी अनुवाद आना चाहिये इस अवसर पर.वह उस बड़े कवि के माध्यम से १८५७ के संक्रांतिकाल के इतिवृत्त को जानने और समझने का महत्वपूर्ण स्रोत होगा .पांडे सीताराम सूबेदार सेना में महज़ इस लिये भर्ती हो गये थे कि इससे परिवार को ४०० पेड़ों वाले आम के बगीचे पर चल रहे मुकदमे में मदद मिलेगी . उनके ज़रिये तत्कालीन अवध की सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक स्थिति की भी जानकारी मिलती है उन्हीं की और वहीं की ज़ुबान में .आपकी पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्छा लगा .
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अनूठी किताब का ज़िक्र किया आपने.. बहुत ही रोचक पाठ है.. सच में तो ऐतिहासिक स्रोत है..
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