बहुत सी समस्यायें इस सोच के कारण हैं कि हिन्दी ब्लॉगिंग साहित्य का ऑफशूट है। जो व्यक्ति लम्बे समय से साहित्य साधना करते रहे हैं – वे लेखन पर अपना वर्चस्व मानते हैं। दूसरा वर्चस्व मानने वाले पत्रकार लोग हैं। पहले पहल, शायद आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के युग में पत्रकारिता भी साहित्य का ऑफशूट थी। वह कालांतर में स्वतंत्र विधा बन गयी।
मुझे हिन्दी इतिहास की विशेष जानकारी नहीं है कि साहित्य और पत्रकारिता में घर्षण हुआ या नहीं। हिन्दी साहित्य में स्वयम में घर्षण सतत होता रहा है। अत: मेरा विचार है कि पत्रकारिता पर साहित्य ने वर्चस्व किसी न किसी समय में जताया जरूर होगा। मारपीट जरूर हुई होगी।
वही बात अब ब्लॉगरी के साथ भी देखने में आ रही है। पर जिस प्रकार की विधा ब्लॉगरी है – अर्थात स्वतंत्र मनमौजी लेखन और परस्पर नेटवर्किंग से जुड़ने की वृत्ति पर आर्धारित – मुझे नहीं लगता कि समतल होते विश्व में साहित्य और पत्रकारिता इसके टक्कर में ठहरेंगे। और यह भी नहीं होगा कि कालजयी लेखन साहित्य के पाले में तथा इब्ने सफी – गुलशन नन्दा छाप कलम घसीटी ब्लॉग जगत के पाले में जायेंगे।
चाहे साहित्य हो या पत्रकारिता या ब्लॉग-लेखन, पाठक उसे अंतत उत्कृष्टता पर ही मिलेंगे। ये विधायें कुछ कॉमन थ्रेड अवश्य रखती हैं। पर ब्लॉग-लेखन में स्वतंत्र विधा के रूप में सर्वाइव करने के गुण हैं। जैसा मैने पिछले कुछ महीनों में पाया है, ब्लॉगलेखन में हर व्यक्ति सेंस ऑफ अचीवमेण्ट तलाश रहा है। अपने आप से, और परस्पर, लड़ रहा है तो उसी सेंस ऑफ अचीवमेण्ट की खातिर। व्यक्तिगत वैमनस्य के मामले बहुत कम हैं। कोई सज्जन अन-प्रिण्टएबल शब्दों में गरिया भी रहे हैं तो अपने अभिव्यक्ति के इस माध्यम की मारक क्षमता या रेंज टेस्ट करने के लिये ही। और लगता है कि मारक क्षमता साहित्य-पत्रकारिता के कंवेंशनल वेपंस (conventional weapons) से ज्यादा है!
मैं यह पोस्ट (और यह विचार) मात्र चर्चा के लिये झोँक रहा हूं। और इसे डिफेण्ड करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। वैसे भी अंतत: हिन्दी ब्लॉगरी में टिकने का अभी क्वासी-परमानेण्ट इरादा भी नहीं बना। और यह भी मुगालता नहीं है कि इसके एडसेंस के विज्ञापनों से जीविका चल जायेगी। पर यह विधा मन और आंखों में जगमगा जरूर रही है – बावजूद इसके कि उत्तरोत्तर लोग बर्दाश्त कम करने लगे हैं।
क्या सोच है आपकी?
ब्लॉग या वेबसाइट पर लेखन, आने वाले समय में लेखन की सबसे विशाल विधा बन जायेगा और साहित्य इसी का एक योग्यतम रुप बन जायेगा। सबसे बड़ा तम्बू नेट लेखन का ही रहेगा, बाकी सभी रुप इसके भाग बन जायेंगे। अभी कुछ लोग ऐसा समझते हैं कि ब्लॉग पर स्तरीय सामग्री नहीं लिखी जाती। ऐसा है नहीं। बहुत लोग इस विचारधारा के होते हैं जहाँ वे अपने लिये तय मानक के अनुसार काम करते हैं। जरुरी नहीं कि कक्षा में दूसरे विधार्थियों से होड़ करके ही प्रतियोगिता की जाये। एक विधार्थी यह तय कर सकता है कि उसे ९०% अंकों की श्रेणी बनाये रखनी है, और दूसरे कितना लाते हैं इससे उसे मतलब नहीं।
बेहद अच्छे लेखक को भी ब्लॉग या नेट लेखन एक स्वतंत्रता देता है जो पत्रिकायें कभी नहीं दे सकतीं। वह जैसे अपने निजी जीवन में आराम से जीता है वैसे ही उसी अंदाज़ में वह नेट लेखन कर सकता है। आना तो पड़ेगा ही सभी लेखकों को नेट पर अगर उन्हे स्वतंत्रता का स्वाद चखना है।
जितने भी साहित्य के पुरोधा सम्पादकों के हाथों सताये गये थे वे सभी आज होते तो निस्संदेह ब्लॉग पर लिख रहे होते।
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bhaiya pranaam.aapki ek ek shabd se sahmat hun.waise stariya rachnaye koi bhi likhe kahin bhi likhe wah kal jayi hoti hai.Yadi koi sahitya ki garima ka khayal rakhe to rachna use amar bana deti hai.satsahitya kisi ki kripa ki muhtaaz nahi hoti.apne amaratva ki raksha use swayan hi karni aati hai.
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ब्लॉगिंग के रूप में पहली बार संचार का एक इंटरएक्टिव माध्यम हमारे हाथ लगा है. ब्लॉगों के असंख्य प्रकार को देखते हुए लगता नहीं कि इसे सृजन की किसी एक विधा से जोड़ कर देखा जाना चाहिए. (वैसे, मुझे यह माध्यम पत्रकारिता के ज़्यादा क़रीब दिखता है.) ब्लॉगों की दुनिया अपार विस्तार वाली है, इसलिए यहाँ हर प्रकार के, हर विचार के लोग एक-दूसरे की सीमा का अतिक्रमण किए बिना अपना तंबू डाल सकते हैं. यहाँ वैचारिक टकराव निरंतर चलते रहेंगे, और तथाकथित मठाधीशों के लिए भी किसी व्यक्ति या समूह विशेष को ज़बरन चुप कराना असंभव होगा. ब्लॉगिंग का कौन-सा प्रकार ज़्यादा चलेगा और कौन पीछे छूट जाएगा…कहना मुश्किल है. सार्वभौम अपील वाला कोई ब्लॉग लिखना तो कतई संभव नहीं है. लेकिन, जैसा बाक़ी के संचार माध्यमों के मामले में सच है; विश्वसनीय सूचनाओं, उपयोगी जानकारियों, सच्चे अनुभवों और निष्पक्ष विश्लेषण वाले ब्लॉग हमेशा ही सम्मान के पात्र रहेंगे.
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अनिल जी और आलोक जी की बातों से सहमत
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जहाँ तक मेरी राय है ..ब्लोग को में सिर्फ एक पर्सनल डायरी मानता हूँ ..जिसमे हम अपने विचार ,भावना, जीवनी आदि करते हैं ..इससे इतर हम आज की धक्का मुक्की को देख कर हम ये कह सकते है की ये साहित्य का ऑफ-शूट है .ब्लोग साहित्य कि एक अलग विधा है या नही इस पर लोगो के अपने अपने अलग विचार है…जो कुछ भी हो गुरु देव जी आपने अच्छा लिखा है ….आपकी लेखनी से मैं इस कदर प्रभावित रहा हूँ कि कुछ पूछो मत….क्युकी आप में “गागर में सागर” भरने कि काबिलियत है अपनी लेखनी से.
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हमारे ख़याल से ब्लॉग को किसी भी चीज मसलन साहित्य,पत्रकारिता,वगैरा से जोड़ना ठीक नही है। ब्लॉग जहाँ आप लिखते है लोग पढ़ते है और टिप्पणी करते है।और इतना instant response तो किसी मे भी नही होता है।और यही ब्लॉग की खासियत है।
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मामला इत्ता सीधा नहीं है कि ब्लागिग अलग, पत्रकारिता अलग,और साहित्य अलग। ब्लागिंग की पत्रकारिता अपने आप में एक अलग मसला है। इराक से जो खबरें आ रही हैं उनमें वहां के ब्लागों का बड़ा रोल है। ब्लाग दरअसल एक माध्यम है, जैसे अखबार है, मैगजीन है टीवी है। कंटेट तो लायेंगे जी। उदयप्रकाशजी बड़े कवि हैं, और ब्लागर भी हैं, तो जी उन्हे कहां रखेंगे। रवीश कुमार महत्वपूर्ण पत्रकार हैं, और ब्लागर हैं। उन्हे कहां रखेंगे। इत्ते सीधे क्लासिफिकेशन प्रेक्टिस में नहीं होते। थ्योरी में जो चाहे कर लो। मूल बात है मीडियम और कंटेट की। मीडियम कोई भी ले लो, कंटेट तो लाओगे ही। कंटेट से तय होगा आप क्या हैं। या कई बार वह भी तय ना होने का। घोंटने बांटने की जरुरत क्या है, मौज लीजिये. अपने आइटम पेश कीजिये। जिसे जो मानना है, मान ले। ना मानना है ना माने। झगड़ा काहे का है। आपका जो लेखन है, वह सीधे अखबारों में छप सकता है। तो क्या आपको ब्लागर नहीं माना जायेगा। इस तरह की बहसों का मतलब खास नहीं होता। साहित्य और पत्रकारिता के संबंधों की कोई अर्थवत्ता प्रेक्टिशनर पत्रकार के लिए नहीं है। साफ है, ये काम करना है, ये करना है। खबर लिख कर बना कर अपनी पत्रकारीय नौकरी पूरी करो। साहित्य इसके अलावा करना चाहो, तो कर लो। दोनों अलग अलग मामले हैं। किसी जमाने में ज्यादातर व्यक्ति दोनों ही काम साध लिया करते थे, सो मान लिया जाता था कि दोनों एक ही किस्म के काम हैं। अब आमिर खान का ब्लाग है। तो क्या हम उसकी पहचान सिर्फ ब्लागर तक सीमित मान लें। अजय ब्रह्मात्मज जाने माने सम्मानित फिल्म जानकार समीक्षक हैं, और ब्लाग भी लिखते हैं। तो उनका प रिचय क्या सिर्फ ब्लागर का होगा क्या। मेरे ख्याल में ब्लागिंग को माध्यम माना जाना चाहिए। इसे किसी विधा और धंधे से लड़वाया नहीं जाना चाहिए। ब्लागिंग में पहले ही लड़ने के भौत मुद्दे हैं।
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नारद वालो से कहा जाये कि इसी पोस्ट के आधार पर अनुगुंज आयोजित करे कि 2012 मे हिन्दी ब्लागिंग कैसी होगी। सभी कल्पना करे और फिर चार साल बाद उसे परखे। अभी तक के आँकलन से लगता है कि भविष्य को हम संकरे दृष्टिकोण से आँक रहे है।
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अनिल रघुराज जी से सहमत हूँ.उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से अपने बात कह दी है.आपने एक बहुत अच्छे विषय पर बहुत ही सुंदर ढंग से अपने विचार रख कर सभी ब्लोगरों को सोचने के लिए कुछ मसाला दिया. आपको धन्यवाद.
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हिन्दी ब्लॉगिंग aur sahityaa , kitnae saahitykaar blog padhtey haen abhi iska pataa nahin challa hae
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