एक सामान्य सा दिन कितना सामान्य होता है? क्या वैसा जिसमें कुछ भी अनापेक्षित (surprise) न हो? क्या वैसा जिसमें अनापेक्षित तो हो पर उसका प्रभाव दूरगामी न हो? मेरा कोई दिन सामान्य होने पर भी इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
मेरा दिन होता है अमूमन, फीका और बेमजा। प्लेन वनीला आइसक्रीम सा लगता है। पर ऐसे दिन का जब पूरी तरह प्रकटन होता है तो न उसे व्यर्थ कहा जा सकता है न छद्म।
सवेरे मुझे मालूम था कि विशेष कुछ नहीं होना है। मेरे दफ्तर के अधिकांश अधिकारी महाप्रबन्धक महोदय के वार्षिक निरीक्षण के सम्बन्ध में ट्रेन में होंगे। न ज्यादा बैठकें होंगी और न ही काम की आपाधापी। पर अपना जीव भी अपने चाल से चलता है। वह श्लथ होकर चुपचाप नहीं पड़ जाता। अपने पेस से वह सोचता है। मुझे जाग्रत स्तर पर लगा भी नहीं कि कब मैने अपना कम्प्यूटर खोला और कब मैं अपनी योजनाओं की सोच को मूर्त अक्षरों में लिखने लगा। दो पन्ने का दस्तावेज बनाने और उसे प्रिण्ट करने में मुझे एक घण्टा लगा। वह काम महीनों से टल रहा था।
जब पानी स्थिर होता है तो उसका मटमैलापन बैठने लगता है। कुछ ही देर में पानी स्वच्छ हो जाता है – जिसमें अपना चेहरा देखा जा सके। समय और मन के विक्षेपण के साथ जब यह होता है तो अचानक सामान्य सा दिन विलक्षण हो जाता है!
हर रोज की आपाधापी में कितना समय हम अपने लिये निकालते हैं? रोज का आधे घण्टे का विचार मन्थन और रिव्यू न जाने कितना लोडेड हो सकता है हमारी क्षमता विकसित करने में। पर मिनटों-घण्टों-दिनों का क्षरण सतत होता रहता है।
वह दिन सामान्य था – जरूर। पर उसने जो सूत्र दिये हैं उनपर सतत मनन न जाने कितना परिवर्तन ला सकता है। आगे देखा जायेगा!
अच्छा, यह भी देखा जाये कि एक सामान्य दिन कितना सामान्य होता है? क्या उस दिन मेँ नित्य कर्म नहीँ होते? क्या उसमेँ कार्य क्षमता नहीं होती? कार्य क्षमता समय या दिन पर निर्भर नहीं, वह समय या दिन के उपयोग पर निर्भर है। सौ में से चौरानवे लोग बिना कार्य योजना के चलते हैं। हम उन अधिकांश लोगों में हैं जो बिना सुनिश्चित सोच के सुनहरे भविष्य की कल्पना करते हैं। हम आशा करते हैं – बिना किसी ठोस आधार के; कि हमारे सुखद दिन आसन्न हैं। हम किसी के स्थानान्तरण, किसी की आकस्मिक सहायता, ग्रहों का अनुकूल होना, वैश्विक आर्थिक स्थिति में परिवर्तन आदि (जिन पर हमारा कोई बस नहीं है) की प्रतीक्षा करते हैं। वह हमारी समृद्धि और विकास की सभी सोच का मूलाधार बन जाता है!
वर्तमान का समय सामान्यत: जुगाली करने या दिवा स्वप्न देखने के लिये प्रयुक्त होता है। अतीत से सीखना, भविष्य के स्वप्नों को साकार करने के लिये वर्तमान का प्रयोग करना और अतीत-भविष्य की दुश्चिन्तओं से असम्पृक्त रहना – यह कितना हो पाता है? जबकि सभी राहें यही बताती हैं वर्तमान ही समाधान है।
मुझे डेल कार्नेगी की “How to Stop Worrying and Start Living” नामक किताब में कालिदास की कविता का अंग्रेजी अनुवाद बहुत भाता है। उसका हिन्दी अनुवाद तो मेरे पास नहीं है। लिहाजा मैं ही प्रस्तुत कर देता हूं (यद्यपि कालिदास जैसे महान कवि के साथ तो यह मलमल के कपड़े पर पैबंद सा होगा):
नव प्रभात को नमन
इस नये दिन को देखो!
यह जीवन है; जीवन का भी जीवन!
अपने छोटे से विस्तार में
तुम्हारे अस्तित्व की कितनी विविधतायें और सचाइयां समेटे है
तुम्हारे कर्म की भव्यता
तुम्हारी सफलताओं की जगमगाहट!
बीता हुआ कल तो एक स्वप्न है
और आने वाला कल एक भविष्य दृष्टि
पर आज, एक अच्छी तरह जिया गया आज
बीते कल को बनायेगा एक मधुर स्वप्न
और प्रत्येक आने वाले कल को आशा की भविष्य दृष्टि
इसलिये, आज पर गहन दृष्टि से देखो!
वह सही मायने में नव प्रभात को नमन होगा।

@ आलोक पुराणिक – भैया, यह सुकुल जी के बारे में खबर तो हमें नहीं मालुम। सुकुल और कविता?! अपनी लिख रहे हैं या किसी और की ठेल रहे हैं?! :-)
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धांसू च फांसू चिंतन है। असाधारण उपलब्धियां इन्ही सामान्य दिनों के कर्मों के नतीजा होता। लाइमलाइट में जो आता है, उसकी जाने कितनी नाइट ऐसी ही सामान्य तरीके से बीतती हैं। सतत कर्म सतत कर्म, इसके अलावा और कुछ रास्ता नही है। इधर मैं विकट तनावों से निकलने का एक रास्ता इजाद किया है। विकट तनाव जब भी घेरें, सोचने के बजाय कोई भी काम निपटाने में जुट जाओ। तनाव गायब हो जाता है। बल्कि अब तो मैं यह भी कह सकता हूं, तनाव अकर्मण्य तनस्थिति और मनस्थिति का ही दूसरा नाम है। तनाव को दूर करने के लिए भी तो कुछ करना ही पड़ेगा। जमाये रहिये। अच्छा अनूप शुक्लजी के बारे में एक खबर यह आयी है कि सुकीर्ति नामक कवियित्री बनकर कविता का ब्लाग चला रहे हैं। ये ब्लाग देखा क्या आपने।
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मै रोज एक लक्ष्य बना लेता हूँ। आम तौर पर ऐसे काम निर्धारित करता हूँ जो किसी भी हालत मे एक दिन मे नही हो सकते फिर दिन भर उसे पूरा करने मे जुटा रहता हूँ। ऐसा कम ही होता है पर कभी-कभी यह असम्भव लक्ष्य भी पूरा हो जाता है। उस दिन लगता है थोडा और काम कर लिया जाये। खुशी के पल मे सोचता हूँ कि यह पहले किये गये कार्य से सम्भव हुआ है इसलिये आगे भी इसी तरह खुश होना है तो अभी काम करना होगा। इसलिये तय किये गये लक्ष्यो के आगे यह औसत जीवन बहुत कम लगता है। और समय चाहिये।
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GYAAN JI aapki ISS TARAH KI posts apney aap me puurn hoti hai ismey aagey kya jodaa jaaye ? bas itna hi shayaad ki…….BAAT MUNBHAAYII
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अरे वाह!!! जो बहाव आया है कि अब तो लगे हाथ और कई कविताओं का अनुवाद कर ही डालिये. बहुत खूब,
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इस तरह के चिंतन राग को देखकर अक्सर मैं अपनी गाड़ी के हैंडल को हल्का सा खम देकर साईड से निकल लेता हूं। वैसे अंतिम पैराग्राफ मुझे सहमत होने और यह कहने के लिए मजबूर कर रहा है कि सही लिखा है आपने!!एक फीके और बेमजा दिन की तुलना प्लेन वनीला आइस्क्रीम से मैं नही कर सकता क्योंकि प्लेन वनीला आइस्क्रीम का स्वाद ही मुझे याद नही [ आइस्क्रीम आदि का शौकीन न होने के कारण ;) ]
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अरविन्द मिश्र >…टिप्पणी तो महज एक औपचारिकता ही हैअरे मिश्र जी यह गजब न करियेगा। इस ब्लॉग पर पोस्ट नहीं, टिप्पणियां ही जान हैं – वर्ना हम जैसे नॉन एलाइण्ड को कौन पूछे!
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कालिदास की मूल संस्कृत -कविता भी रहती तो अलग ही मजा था ,इसका आशय नही कि आप का अनुवाद ठीक नही .विवेकानन्द ने कहा था -जब आप सब कुछ खो दिए हों तो देखिये भविष्य अभी भी पूरी तरह सुरक्षित है -ऐसी सोच वर्तमान को स्पूर्तिमय बना देती है.सनातन काल से दो विचारधाराएँ भारतीय मानस को आंदोलित करती रही हैं -भाग्यवाद ,कर्मवाद .बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि आप किसे तवज्जो देते हैं -‘होयिहें सोई जो राम रचि राखा’ या फिर ‘कर्म प्रधान विश्व कर राखा’ बात और साफ कर दूँ -दास मलूक क्या कहते है -अजगर करे ना चाकरी पक्षी करे ना काम ,दास मलूका कह गए सबके दाता राम .विज्ञान का विद्यार्थी होते हुए भी मैं यही मानता हूँ कि मनुष्य अपने भावी का नियंता नही है -सुनहु भारत भावी प्रबल ……..अरे मैं तो भूल ही गया कि मुझे बस थोडा सा कुछ टिपिया भर देना था …….टिप्पणी तो महज एक औपचारिकता ही है ……..
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आपकी पोस्ट पढ़ कर मन को अच्छा लगा, हर दिन वैसे ही होती है बस उसे समझने और व्यातीत करने के तरीके पर दिन निर्भर करता है।
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बहुत सही व सुन्दर लिखा है । परन्तु बहुत से लोग केवल आज भर जी लें यही कामना करते हैं , या फिर आज का दिन कैसे भी किसी को कष्ट दिये बिना निकल जाए तो सफल मानेंगे, सोच कर चलते हैं ।कालीदास की कविता यदि संस्कृत में देकर उसका हिन्दी अनुवाद देते तो बढ़िया रहता ।घुघूती बासूती
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