साल भर पहले मैने पोस्ट लिखी थी – पवनसुत स्टेशनरी मार्ट। इस साल में पवन यादव ने अपना बिजनेस डाइवर्सीफाई किया है। अब वह सवेरे अखबार बेचने लगा है। मेरा अखबार वाला डिफाल्टर है। उसके लिये अंग्रेजी के सभी अखबार एक समान हैं। कोई भी ठेल जाता है। इसी तरह गुलाबी पन्ने वाला कोई भी अखबार इण्टरचेंजेबल है उसके कोड ऑफ कण्डक्ट में! कभी कभी वह अखबार नहीं भी देता। मेरी अम्मा जी ने एक बार पूछा कि कल अखबार क्यों नहीं दिया, तो अखबार वाला बोला – "माताजी, कभी कभी हमें भी तो छुट्टी मिलनी चाहिये!"
लिहाजा मैने पवन यादव से कहा कि वह मुझे अंग्रेजी का अखबार दे दिया करे। पवन यादव ने उस एक दिन तो अखबार दे दिया, पर बाद में मना कर दिया। अखबार वालों के घर बंटे हैं। एक अखबार वाला दूसरे के ग्राहक-घर पर एंक्रोच नहीं करता। इस नियम का पालन पवन यादव नें किया। इसी नियम के तहद मैं रद्दी अखबार सेवा पाने को अभिशप्त हूं। अब पवन सुत ने आश्वत किया है कि वह मेरे अखबार वाले का बिजनेस ओवरटेक करने वाला है। इसके लिये वह मेरे अखबार वाले को एक नियत पगड़ी रकम देगा। अगले महीने के प्रारम्भ में यह टेक-ओवर होने जा रहा है।
अखबार और दूध जैसी चीज भी आप मन माफिक न ले पाये। अगर पोस्ट से कोई पत्रिका-मैगजीन मंगायें तो आपको पहला अंक मिलता है – वी.पी.पी छुड़ाने वाला। उसके बाद के अंक डाकिये की व्यक्तिगत सम्पत्ति होते हैं। अमूल तीन प्रकार के दूध निकालता है – पर यहां पूरा बाजार घूम जाइये, सबसे सस्ता वाला टोण्ड मिल्क कहीं नहीं मिलेगा। शायद उसमें रीटेलर का मार्जिन सबसे कम है सो कोई रिटेलर रखता ही नहीं।
आपकी जिन्दगी के छोटे छोटे हिस्से छुद्र मफिया और छुद्र चिरकुटई के हाथ बन्धक हैं यहां यूपोरियन वातावरण में। खराब सर्विसेज पाने को आप शापित हैं। चूस लो आप प्रगति का लेमनचूस।
राज भाटिया जी, मुझे तो एक ब्लॉगन (अहा! नया शब्द!) की इस टाइप की धमकी मिल भी चुकी है। “फलानी आपकी पोस्ट पर टिप्पणी नहीं करतीं तो आपभी वहाँ न करें… आदि”गुरुदेव, मुझे सिद्धार्थनगर में दो हॉकर्स के बीच मारपीट कराने का आरोप सहना पड़ा था। अनियमित और देरसे अखबार देने वाले को जब मैने मना करके सुबह सड़क पर सबसे जल्दी दिखायी देने वाले हॉकर को तय कर लिया तो पहले वाले ने उसे अगले ही दिन पीट दिया। बाद में मुझे दोनो को बिठाकर समझौता कराना पड़ा। दूसरे वाले ने मेरे बदले अपना एक अन्य ग्राहक पहले के हवाले किया तब जाकर मामला शान्त हुआ।
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उपभोक्ताओं के असंगठित और व्यस्त होने के कारण्ा ही यह स्िथति बनती है । इससे बचाव का कोई रास्ता हाल-फिलहाल तो नजर नहीं आता ।
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अब मुझे तो डर हे लोग अब बांलाग पर भी ना घेरा बंदी कर ले टिपण्णी देने के लिये , फ़िर यहां भी दादा गिरी शुरु ना हो जाये यहां से ले कर वहा तक आप कए बलांग, वहा से ले कर तहा तक नारियो की हकुमत…राम राम
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जो अखबार आपको कल मिले उसमें जरा आप देख के बताइयेगा कि समीरलाल के टंकी से उतरने की कथा है कि नहीं!
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सटीक!
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