चुनाव, त्यौहार, बाढ़ और आलू


potato मैं तो कल की पोस्ट – "आलू कहां गया?" की टिप्पणियों में कनफ्यूज़ के रास्ते फ्यूज़ होता गया।

समीर लाल जी ने ओपनिंग शॉट मारा – "…मगर इतना जानता हूँ कि अर्थशास्त्र में प्राइजिंग की डिमांड सप्लाई थ्योरी अपना मायने खो चुकी है और डिमांड और सप्लाई की जगह प्राइज़ निर्धारण में सट्टे बजारी ने ले ली है।"

आभा जी ने आशंका जताई कि आलू और अन्य खाद्य सामग्री चूहे (?) खा जा रहे होंगे।

अशोक पाण्डेय का कथन था कि किसान के पास आलू नहीं है। जो है वो कोल्ड स्टोरेज में व्यापारियों के चंगुल में है। वह दशहरे के समय तक निकलेगा मेरे रेक लदान के लिये। दशहरे तक भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। थोड़ा ही समय है। लदान के क्रेडिट लेने में जो शो बाजी होगी, उसके लिये मैं अपने को तैयार कर सकता हूं! यह भी कह सकता हूं कि उसके लिये मैने बड़ा विश्लेशण, बड़ी मार्केटिंग की! :-)

ballot_box पर असली शॉट मारा शिव कुमार मिश्र ने। उनकी टिप्पणी यथावत दे रहा हूं –

चुनाव के साल में प्रवेश करने की तैयारी है. आलू, प्याज वगैरह की गिनती वैसे भी चुनावी सब्जियों में होती है. ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि खाने वालों को अच्छे आलुओं का चुनाव करना पड़ता है और नेता-व्यापारी-जमाखोर नेक्सस को यह चुनाव करना पड़ता है कि आलू की कमी बनाई जाए या नहीं.
वैसे अशोक जी ने लिखा है कि दशहरे का इंतजार करना चाहिए लेकिन मुझे लगता है कि जमाखोरी चालू है. जमाखोरी वाली बात को कमोडिटी फ्यूचर्स में लगे पैसे और बिहार में आई भयंकर बाढ़ से भी जोड़कर देखा जाना चाहिए. आलू उत्तर प्रदेश के उन क्षेत्रों से अगर नहीं निकला है, जिनकी बात आपने कही है तो निश्चिंत रहें, समय देखकर इसे निकालने का स्क्रीनप्ले लिखा जा रहा होगा. अगर आलू का निर्यात होना ही था तो रेल से ही होता. इसलिए भी क्योंकि पिछले कई महीनों में डीजल और पेट्रोल की कीमतों में बढोतरी हुई है, और ऐसे में आलू को सड़क के रास्ते बाहर ले जाना घाटे का सौदा साबित होता.
मेरा मानना है कि आलू अभी भी उत्तर प्रदेश में ही है. (उसका निकलना) त्यौहार, बाढ़ और कमोडिटी में लगाये गए पैसे कहाँ से आए हैं, उसपर निर्भर करेगा.

floodऊपर बोल्ड करना और कोष्ठक में लिखना मेरे द्वारा हुआ है। मुझे पक्का यकीन नहीं है कि आलू को लेकर जमाखोरी और कमॉडिटी फ्यूचर्स का जबरदस्त कारोबार हुआ/हो रहा है। पर इतना जरूर है कि आलू उत्तरप्रदेश के कोल्डस्टोरेज में पड़ा है तो बेवकूफी या अक्षमता के चलते शायद ही हो। उसका चुनाव/बाढ़ जैसी आपदा और आगामी त्यौहारों के दौरान मांग का दोहन करने की वृत्ति के चलते होना ज्यादा सम्भव है। और इस खेल में पैसा कहां से लगा है – यह अपने आप में एक गोरखधन्धा होगा; जिसे हम जैसे अपनी महीने की तनख्वाह गिनने वाले और इन्क्रीमेण्ट/प्रॉविडेण्ट फण्ड तक अपना गणित सीमित रखने वाले नहीं समझ सकते। Sad

चलो मित्र, कोई कोई क्षेत्र ऐसे हैं जहां हमारी मानसिक हलचल परिधि में यूं ही इर्द-गिर्द घूमती है। अपनी पढ़ाई और सोचने की क्षमता की पंगुता समझ आती है। अब इस उम्र में कितना सीख पायेंगे! Happy  


यह तो यकीन हो गया कि सामान्य विषय से इतर लिखने पर भी ज्ञानवर्धक टिप्पणियां सम्भव हैं। लोगों को पैराडाइम (paradigm) शिफ्ट करने में शायद कुछ समय लगे; बस!

भारत में चुनाव उत्तरोत्तर खर्चीले होते गये हैं। उनके लिये कुछ या काफी हद तक पैसा कमॉडिटी मार्केट के मैनीप्युलेशन से आता है। आपकी सहमति है क्या इस सोच से!?!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

17 thoughts on “चुनाव, त्यौहार, बाढ़ और आलू

  1. संग्रह कर रखने में भी खर्च होता है, वह खर्च होने वाले मूनाफे से कम होना चाहिए. वरना रोक कर रखा बेकार. इधर कहीं और से भी आलू आ सकता है. बोले तो मूनाफाखोरी/ जमाखोरी पता नहीं क्या क्या वही लोग ज्यादा बड़बड़ाते हैं जिन्हे व्यापार की समझ नहीं. इसे आपकी पोस्ट से जोड़ कर न देखे, इसे मौका देख अनयों के लिए कहा गया सामांतर कथन माने.

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  2. अरे! पाण्डे जी, श्राद्ध पक्ष में कहाँ विदेशी आलू की चर्चा छेड़ बैठे हैं। मौसम खीर, बासूंदी, मालपुए, बेड़ई का है। इस से तो अच्छा होता आप एक दो दिन यह काम रीता भाभी को पकड़ा दें। कम से कम रसोई घर से निकलती गंध हमें भी मिल जाती।

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  3. भारत में चुनाव उत्तरोत्तर खर्चीले होते गये हैं। उनके लिये कुछ या काफी हद तक पैसा कमॉडिटी मार्केट के मैनीप्युलेशन से आता है। आपकी सहमति है क्या इस सोच से! ?!अगर सहमति का ही प्रशन्न है तो बिल्कुल है ! और सोच ये है की आजकलइतने सोर्स अर्थ आवक के बना लिए गए है मेहरवानों द्वारा की इससे कोई फर्क नही पङता ! शेयर मार्केट की एक उठा पटक ही फंड के लिए काफी है !और एक सरकारी स्टेटमेंट काफी से ज्यादा होता है ! अत: मुझे नही लगताकी किसी सेंसेटिव कमोडिटी को इस काम के लिए लिया जाता हो !

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  4. अभी तो आलू का भाव बाज़ार में स्थिर है -आपके इस खबर्दारिया चिंतन से कहीं पैनिक बाईंग न शुरू हो जाय -क्या आलू भी कंज्यूमर सरप्लस की सूची में आने का माद्दा रखता है ! नकली कमीं दिखा कर कहीं इसेभी प्याज की कोटि में ना ला दिया जाय .इससे एक फायदा /या नुक्सान( ?)होगा कि सरकार को इसके लिए समर्थन मूल्य का इंतजाम नहीं करना होगा .मगर यदि सारा आलू जमाखोरों के पास होगा तो पैनिक बाईंग के चलते लोगों को कंज्यूमर सरप्लस भी ना देना पड़े ? कहीं आप भी तो इस चेन में तो नहीं ? शुक्र मनाईये कि सरकार ने मुझे इस सारे मामले की तहकीकात के लिए जांच अधिकारी नहीं नियुक्त किया है ! अगर कर दिया तो सीधे पहुचूगा आपके प्रशीतित कक्ष में फाईलों का फीता खोलने !क्या समझे ज्ञान जी ?

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  5. .आज एक भोंड़ी सी टिप्पणी कर लूँ ? यहाँ कल से आलू पकते देख कर बड़ा मन कर रहा है ।माडरेट न कर दीजियेगा, आपको अपने पितरों की कसम !बुद्धिजीवियों का कोई भरोसा नहीं रहा करता, माथा फोड़ रहे हैं.. कल से ?और अब तक आलू न पका पाये… आज तक 9 लालाओं को मूली प्रकरण में क्लीनचिट न मिली । कोई फ़िकिर नहीं कि मूली वाले को बचायें, बस कल से आलू ही छीला जा रहा है । नाहक बदनामी हो रही है, वो अलग .. .. .. ” ज्ञान जी मोटे क्यों, आलू के प्रताप से ” निष्कलुष भाव से की गयी इस टिप्पणी का क्या ह्श्र होगा, यह तो दीगर बात है.. हमें तो ठेलने से मतलब ! लेकिन ई तो बता दिहिन पुराणिक मोशाय कि आलू जैसा आलू नहीं, मतलब मतलब आलू की कोई तुलना नहीं , आलू गुटनिरपेक्ष है । मोर कबीर कोहनिया रहे हैं, कि हिम्मत करके बोल दे बेटा, आलू मौकापरस्त है , जनाने मरदाने सभी जगह घुसने में माहिर ! दान-पुण्य, श्राद्ध-तेरहीं , बर्गर-चिप्स हर जगह विद्यमान है, आलू तो महान है !

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  6. बिल्कुल सही कहा आपने. जमाखोरी और बढे दाम का फायदा दुहरा है. पार्टी-फंड में पैसा भी आता है और चुनावी मुद्दा भी मिल जाता है. विपक्ष में आयें तो महंगाई का शोर मचाएं पक्ष में हैं तो दाम बढायें पहले दस गुना पहुंचाएं फ़िर सात गुने तक गिरायें नोट के साथ वोट भी कमायेंऔर साथ में वाहवाही मुफ्त पायें!

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  7. इस खेल में पैसा कहां से लगा है – यह अपने आप में एक गोरखधन्धा होगा..सच में, मैं ऐसा नहीं समझता.खेल खुले आम होता है और हम बिल्ली की भूमिका निभाते हैं. बिल्ली, जो हमेशा आँख बंद कर दूध पीती है, यह सोचते हुये कि उसे कोई देख नहीं रहा…जबकि आँख उसकी बंद है..देखने वालोम की नहीं…कभी गौर करियेगा.वही हाल हम सब आम जनता का है..आँख मींचें हैं..किसी को क्या पता लगेगा.लाईन मत पढ़ियेगा..लाईन के बीच में पढ़ियेगा….read between the lines please. :)

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