भारतीय रेल का पूर्व विभागाध्यक्ष, अब साइकिल से चलता गाँव का निवासी। गंगा किनारे रहते हुए जीवन को नये नज़रिये से देखता हूँ। सत्तर की उम्र में भी सीखने और साझा करने की यात्रा जारी है।
श्रीयुत श्रीप्रकाश मेरे ब्लॉग के नियमित पाठक हैं। जब वे (सन 2009 में) हमारे सदस्य यातायात (रेलवे के यातायात सेवा के शीर्षस्थ अधिकारी) हुआ करते थे, तब से वे लोगों को मेरे ब्लॉग के बारे में बताते रहे हैं। उस समय वे सक्रिय रूप से भारतीय रेलवे यातायात सेवा की साइट पर अधिकारियों को सम्बोधित करती पोस्टें लिखा करते थे। तब वे मुझसे कहा करते थे – मैने तुम्हारा ब्लॉग पढ़ा, तुम मेरा ब्लॉग (अधिकारियों को सम्बोधन) पढ़ते हो या नहीं? उनकी एक पोस्ट का अंश अपने ब्लॉग पर मैने फरवरी’09 में प्रस्तुत भी किया था।
अभी कुछ दिन पहले श्रीप्रकाश जी इलाहाबाद आये थे। तब उन्होने बताया कि मेरा यह वर्डप्रेस का ब्लॉग (halchal.org) वे सप्ताह में एक बार खोल कर जो भी नई पोस्टें होती हैं, पढ़ लेते हैं। शायद उनको ब्लॉग की फीड सब्स्क्राइब करने में दिक्कत आई थी।
मैने उन्हे ब्लॉग की फीड भेजना प्रारम्भ कर दिया है। इसी बहाने ई-मेल से उनसे सम्पर्क हुआ। मेल में उन्होने अपने विचार व्यक्त किये –
श्रीयुत श्रीप्रकाश
तुम्हारा ब्लॉग पढ़ने का मेरा एक कारण (और बहुत से कारण हैं) यह है कि इसके माध्यम से मैं गंगा नदी से अपने जुड़ाव को पुन: महसूस करता हूं। मैं बहुधा अपने बाबाजी के साथ होता था, जब वे गांव से चार किलोमीटर दूर बहती गंगाजी में स्नान के लिये जाते थे।
इलाहाबाद में भी,पचास के दशक के उत्तरार्ध और साठ के दशक के पूर्वार्ध में गंगाजी स्टेनली रोड से करीब एक किलोमीटर दूर (म्यूराबाद के समीप) बहती थीं।[1] हम मम्फोर्डगंज में रहते थे और तब भी मैं अपने बाबाजी के साथ गंगा तट पर जाया करता था।
जब मैं अपने बच्चों को बताता हूं कि गंगाजी का पानी इतना साफ था कि उसमें हम मछलियों और कछुओं को दाना खिलाया करते थे; तब उनके चेहरों पर अविश्वास के भाव साफ दीखते हैं।
यह अलग बात है कि मैने गंगा स्नान नहीं किया (सिवाय हरिद्वार के, जब मैने सन 1972 में इलाहाबाद छोड़ा)।
तुम्हारा ब्लॉग मुझे इलाहाबाद के अपने बचपन की याद दिलाता है।
इलाहाबाद - म्यूराबाद, शिवकुटी, दारागंज और गंगा नदी।
पचास-साठ के दशक में गंगा नदी को देखने समझने वाले सज्जन जब मेरे ब्लॉग की प्रशंसा करें तब एक अलग तरह की सुखद अनुभूति होती है, ब्लॉग की सार्थकता में एक नया आयाम जुड़ जाता है।
मैने श्रीप्रकाश जी से अनुरोध किया कि अगर वे 50-60 के दशक की अपनी इलाहाबाद/गंगा विषयक यादों से मेरे पाठकों को परिचित करा सके तो बहुत अच्छा होगा। मेल से उन्होने मुझे उस समय की गंगा नदी के प्रवाह/मार्ग के बारे में यह सामग्री दी –
कम ही लोग जानते होंगे कि गंगा म्यूराबाद और बेली गांव (सप्रू अपताल के पीछे) बहा करती थी। चांदमारी घाट स्टेनली रोड से एक किलोमीटर से ज्यादा दूर न रहा होगा। नदी लगभग स्टेनली रोड के समान्तर बहती थी और उसके आगे रसूलाबाद होते हुये शिवकुटी पंहुचती थी। गंगाजी की मुख्य धारा इसी प्रकार से थी और इसी लिये चांदमारी घाट (सन् ६२ में आर्मी केण्टोनमेण्ट था और वहां चांदमारी हुआ करती थी) बना था।
स्टेनली रोड के दोनो ओर का क्षेत्र बैरीकेड किया हुआ था और सेना के नियमित स्थापत्य साठ के दशक में बने थे। सन् 1971की लड़ाई के दौरान पकड़े गये पाकिस्तानी सैनिक यहां बन्दी बना कर रखे गये थे। इस बैरीकेडिंग के कारण स्टेनली रोड से गंगा नदी तक जाना रसूलाबाद के पहले सम्भव नही था।
सन् 1967मे ममफोर्डगंज में बाढ़ का बड़ा असर पड़ा। बाढ़ का पानी लाजपत राय रोड के पास से बहते नाले से आया और म्यूराबाद, बेली तथा ममफोर्डगंज तीन-चार दिन तक पानी से भरे रहे। ये पहली और शायद अन्तिम बाढ़ थी जो ममफोर्डगंज तक आई[2]। अब तो नाले पर बाढ़ नियन्त्रण व्यवस्था बन गई है।
गंगाजी अपना मार्ग बदलती रही हैं और यही कारण है कि दोनो ओर कछारी जमीन का विस्तार है। सन् १९६६ के कुम्भ के दौरान नदी लगभग दारागंज बांध के पास से बहती थी। इस लिये मेला नदी के दोनो ओर लगा था। उस साल करीब आठ पॉण्टून पुल थे गंगा पर कुम्भ मेले के दौरान।
नदी के मार्ग बदलने का साल-दर-साल का रिकॉर्ड कहीं न कहीं रखा गया होगा। एक साल में ही कभी कभी नदी अपना मार्ग कई बार बदल लेती हैं। तुम्हें इस विषय में और जानकारी वहां के किसी बढ़े बूढ़े से मिल सकेगी। शायद रसूलाबाद मरघट का पुजारी कुछ बता पाये, यद्यपि वह उम्र में मुझसे छोटा है। उसकी मां अपने जमाने में बहुत ख्याति अर्जित कर चुकी थीं और शायद इस पेशे में वह अकेली महिला थी। वे (महराजिन बुआ) रसूलाबाद घाट पर अन्त्येष्टि का पचास साल तक इन्तजाम करती रही।
श्रीयुत श्रीप्रकाश जी अभी अपने अन्य कार्यों (जिनमें पुस्तकें लिखना भी शामिल है) में व्यस्त हैं। उनसे पुरानी गंगा/इलाहाबाद विषयक यादें साक्षात्कार के माध्यम से लेनी होंगी, जब भी वे इलाहाबाद आयें!
चालीस-पचास साल पहले की बातें सुनने, जानने और ब्लॉग पर प्रस्तुत करने का औत्सुक्य जग गया है मेरे मन में।
[1] गूगल मैप में देखने पर लगता है कि 60 के दशक से गंगा तीन-चार किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में हट गई हैं इलाहाबाद से।
[2] श्रीप्रकाश जी ने बताया कि शायद 1978 की बाढ़ में भी ममफोर्डगंज में पानी आ गया था, पर वे इलाहाबाद छोड़ सन 1971 में चुके थे, और यह बाढ़ उनके समय में नहीं थी।
आज के समय गंगा किनारे जाते लोग। वैसे ही हैं जैसे पचास-साठ के दशक में रहे होंगे?!
Exploring rural India with a curious lens and a calm heart.
Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges.
Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh.
Writing at - gyandutt.com
— reflections from a life “Beyond Seventy”.
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23 thoughts on ““तुम्हारा ब्लॉग पढ़ने का कारण””
यह पोस्ट पढकर लगता है कि ऐसे तथ्यों और जानकारियों का अभिलेखीकरण करना कितना जरूरी है।
हाय रि किस्मत! हमे तो केवल बोतल में गंगा जल छूने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें न मछली थी न कछुए :( अब जा कर संतोष हुआ कि गंगा नदी में भी ये दिखाई नहीं दे रहे हैं॥
मैं समझ सकता हूं आपकी उत्सुकता को…जब भी पुरानी बातें सुनने को मिलती हैं इस प्रकार की उत्सुकता जाग उठती है
मोबाइल पर आपको पढ़ने के कारण टिप्पणी करना संभव नहीं होता… पर आपका ब्लॉग पढ़ने का मजा भी बड़ी-स्क्रीन पर ही आता है
आज दफ्तर आते हुये वह चान्दमारी स्थल, वह नाला जिससे बाढ़ का पानी आया होगा सन 1966 में और सप्रू अस्पताल ध्यान से देखा। अन्यथा उसके पास से यूंही निकल जाया करता था!
गंगाजी अपना मार्ग बदल देती हैं, जब भी हम गढ़ गंगा से निकलते थे तो मम्मी के मुँह से हमने हमेशा यही सुना, वहाँ का गंगा जी का पाट हाथीडूब होता है, जब पहली बार वहाँ स्नान करने गये थे तब इस बात का अहसास हुआ था। त्रिवेणी के स्नान की इच्छा बहुत तीव्र है, और अगर सब ठीक रहा तो इस कुंभ पर स्नान जरूर होंगे।
स्वच्छन्द प्रवाह! गंगामाई तो एक दो किलोमीटर इधर उधर होती हैं अपने सामान्य ट्रैक से, पर बिहार की नदियाँ तो दसियों किलोमीटर अपना कोर्स बदल लेती हैं। उसमें कहीं बम्पर पैदावार होती है खेती की और कहीं बाढ़ की विभीषिका होती है।
जल का वर्णन जीवन का वर्णन है!
६० वर्ष पहले की गंगा और आज की गंगा में बहुत अंतर आ गया है, आज की गंगा विशुद्ध स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता की देन है। नदियाँ अनुशासन में रह सकती हैं पर हम ही नहीं उदाहरण स्थापित रख पाते हैं।
गंगा का मार्ग तो बदलता ही रहता है प्रवृत्ति और प्रकृति में भी परिवर्तन आता रहता है।
हम जब छोटे थे, मुज़फ़्फ़रपुर से पहलेजाघाट आते थे, गंगा स्नान के लिए। घाट पर कितने मगर (सोंस) दिखते थे। अब तो लुप्त प्राय हैं। जब हम मिड एट्टीज़ में गंगा पौलूशन रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, तो बाढ़ के पास वे दिखे। तब सरकार को इसके एक्स्टिंक्ट होने के खतरे के बारे में बताया गया। उनको प्रिज़र्व करने के लिए एक प्रोजेक्ट बनाया गया। अब तो पटना जाना ही कभी-कभार होता है, इसलिए उसकी गतिविधियों का पता नहीं।
हमें रिसर्च के दौरान पौलीकीट (जीव) मिला था। वह प्रायः समुद्री जल में मिलता है। पता नहीं उस पर आगे काम हुआ या नहीं।
अच्छा? समुद्री जल का जीव 5-700 किलोमीटर अन्दर की यात्रा कर नदी में चला आया। यह तो वास्तव में अध्ययन का विषय है।
मुझे भी अपनी सैर के दौरान बहुत वनस्पतिक और जैव विविधता दीखती है। उनके अध्ययन के लिये पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं है, अन्यथा वह करना बहुत रोचक रहता!
यह पोस्ट पढकर लगता है कि ऐसे तथ्यों और जानकारियों का अभिलेखीकरण करना कितना जरूरी है।
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हाय रि किस्मत! हमे तो केवल बोतल में गंगा जल छूने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें न मछली थी न कछुए :( अब जा कर संतोष हुआ कि गंगा नदी में भी ये दिखाई नहीं दे रहे हैं॥
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shradhya shree-yut sahi kah rahe…………ghatnaon ko thora dekhne bhar se kitna-kuch
choot jane ka ahsas hota hai…….
jai ganga mai…
pranam.
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हम तो गंगाजी से दूर हैं. हर नदी को गंगा ही समझते हैं. वे सभी (मिलजुल कर) सागर में ही तो मिलते हैं.
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आप तो नर्मदामाई के करीब हैं। होशंगाबाद से गुजरती नर्मदा का दृष्य मुझे अभी भी याद है!
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मैं समझ सकता हूं आपकी उत्सुकता को…जब भी पुरानी बातें सुनने को मिलती हैं इस प्रकार की उत्सुकता जाग उठती है
मोबाइल पर आपको पढ़ने के कारण टिप्पणी करना संभव नहीं होता… पर आपका ब्लॉग पढ़ने का मजा भी बड़ी-स्क्रीन पर ही आता है
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आज दफ्तर आते हुये वह चान्दमारी स्थल, वह नाला जिससे बाढ़ का पानी आया होगा सन 1966 में और सप्रू अस्पताल ध्यान से देखा। अन्यथा उसके पास से यूंही निकल जाया करता था!
उत्सुकता यह कराती है। :-)
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गंगाजी अपना मार्ग बदल देती हैं, जब भी हम गढ़ गंगा से निकलते थे तो मम्मी के मुँह से हमने हमेशा यही सुना, वहाँ का गंगा जी का पाट हाथीडूब होता है, जब पहली बार वहाँ स्नान करने गये थे तब इस बात का अहसास हुआ था। त्रिवेणी के स्नान की इच्छा बहुत तीव्र है, और अगर सब ठीक रहा तो इस कुंभ पर स्नान जरूर होंगे।
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कुम्भ की तैयारियाँ अब शुरू होने को हैं। योजनायें तो सबने बना ही ली हैं।
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गंगा, हमारी सांस्कृतिक धारा, देश-काल के कई अंतरालों को समेट लेती है.
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जी हां। वहां जा कर उनके मौन से पूछें तो बहुत कुछ बताती हैं। पूरे आर्यावर्त का भूत वर्तमान भविष्य समेटे हैं अपने में!
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नदी का प्रवाह स्वछंद होता है,उसका बहते जाना ही जीवन की प्रेरणा देता है।
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स्वच्छन्द प्रवाह! गंगामाई तो एक दो किलोमीटर इधर उधर होती हैं अपने सामान्य ट्रैक से, पर बिहार की नदियाँ तो दसियों किलोमीटर अपना कोर्स बदल लेती हैं। उसमें कहीं बम्पर पैदावार होती है खेती की और कहीं बाढ़ की विभीषिका होती है।
जल का वर्णन जीवन का वर्णन है!
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६० वर्ष पहले की गंगा और आज की गंगा में बहुत अंतर आ गया है, आज की गंगा विशुद्ध स्वतन्त्रता और स्वच्छन्दता की देन है। नदियाँ अनुशासन में रह सकती हैं पर हम ही नहीं उदाहरण स्थापित रख पाते हैं।
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गंगा का मार्ग तो बदलता ही रहता है प्रवृत्ति और प्रकृति में भी परिवर्तन आता रहता है।
हम जब छोटे थे, मुज़फ़्फ़रपुर से पहलेजाघाट आते थे, गंगा स्नान के लिए। घाट पर कितने मगर (सोंस) दिखते थे। अब तो लुप्त प्राय हैं। जब हम मिड एट्टीज़ में गंगा पौलूशन रिसर्च प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे, तो बाढ़ के पास वे दिखे। तब सरकार को इसके एक्स्टिंक्ट होने के खतरे के बारे में बताया गया। उनको प्रिज़र्व करने के लिए एक प्रोजेक्ट बनाया गया। अब तो पटना जाना ही कभी-कभार होता है, इसलिए उसकी गतिविधियों का पता नहीं।
हमें रिसर्च के दौरान पौलीकीट (जीव) मिला था। वह प्रायः समुद्री जल में मिलता है। पता नहीं उस पर आगे काम हुआ या नहीं।
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अच्छा? समुद्री जल का जीव 5-700 किलोमीटर अन्दर की यात्रा कर नदी में चला आया। यह तो वास्तव में अध्ययन का विषय है।
मुझे भी अपनी सैर के दौरान बहुत वनस्पतिक और जैव विविधता दीखती है। उनके अध्ययन के लिये पर्याप्त ट्रेनिंग नहीं है, अन्यथा वह करना बहुत रोचक रहता!
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