वह सामान्यत: अपने सब्जी के खेत में काम करता दीखता है गंगाजी के किनारे। मेहनती है। उसी को सबसे पहले काम में लगते देखता हूं।
दशमी के दिन वह खेत में काम करने के बजाय पानी में हिल कर खड़ा था। पैण्ट उतार कर, मात्र नेकर और कमीज पहने। नदी की धारा में कुछ नारियल, पॉलीथीन की पन्नियों में पूजा सामग्री और फूल बह कर जा रहे थे। उसने उनके आने की दिशा में अपने आप को पोजीशन कर रखा था।
लोग नवरात्रि के पश्चात पूजा में रखे नारियल और पूजा सामग्री दशमी के दिन सवेरे विसर्जित करते हैं गंगाजी में। वह वही विसर्जित नारियल पकड़ने के लिये उद्यम कर रहा था।
एक नारियल उसने लपक कर पकड़ा। फिर उसे हिला-बजा कर देखा। नारियल की क्वालिटी से संतुष्ट लगा वह। कुछ देर बाद बहते पॉलीथीन के पैकेट को पकड़ा उसने। पन्नी खोल कर नारियल देखा। ठीक नहीं लगा वह। सो पन्नी में रख कर ही वापस नदी में उछाल दिया उसने।
नारियल विषयक पुरानी पोस्टें –
मै करीब सौ कदम दूर खड़ा था उससे – गंगा तट पर। जोर से चिल्ला कर पूछा – हाथ लगा नारियल?
हां, कह कर उसने हाथ ऊपर उठा कर नारियल दिखाया मुझे। फिर वह आती नदी की धारा में ध्यान केन्द्रित करने लगा। कुछ दूर दो नारियल बहते आ रहे थे। उसको अपनी बेताबी के मुकाबले बहाव धीमा लगा नदी का।
जैसे हाथ हिला हिला कर किसी को बुलाया जाता है; वैसा ही वह धारा की दिशा में हाथ हिला कर कहने लगा – आउ, आउ; जल्दी आउ! (आओ, आओ, जल्दी आओ!)
सवेरे का आनन्ददायक समय, गंगा की धारा और नारियल का मुफ्त में हाथ लगने वाला खजाना – सब मिल कर उस तीस पैंतीस साल के आदमी में बचपना उभार रहे थे। मैं भी बहती धारा की चाल निहारता सोच रहा था कि जरा जल्दी ही पंहुचें नारियल उस व्यक्ति तक!
आउ, आउ; जल्दी आउ! (आओ, आओ, जल्दी आओ!)
जल्दी आओ नारियल!
लाजवाब |
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ईश्वर ने भक्त को प्रसाद पहुँचा दिया..
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🙂
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बड़ी साधारण सी घटना, मगर जब आप बयान करें तो घटना को असाधारण बनते देर कहाँ लगती है!! नदी में कूदकर सिक्के बटोरने वालों को देखा है और दिल्ली में सड़क पर नारियल खाने की मनाही भी सुनी है.. कहते हैं मुर्दों के ऊपर से नारियल उतारकर बेच देते हैं बाज़ार में..
आणंद आ गया!!
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लप्पक पकुरिया लप्पक, अबहुँ न लपकबै तो लपकबै कब 🙂
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बहुत खूब!
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पकल्ले बे, नरियर. वाह वाह. आपने तो दर्शन ही करा दिये, साक्षात.
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सर नमस्कार,
लिंकेडीन नेटवर्क से जुड़े अभी हफ्ता भर ही हुआ है।आज संयोगवश रात्रि के लगभग दस बजे आपसे आपके ब्लॉग के माध्यम एकाएक से जुड़ ही गया। आपके सानिध्य में बिताये नौकरी के वो स्वर्णिम वर्षो के सुनहरे पल जीवंत हो उठे। वे मेरे जीवन की अनमोल थाती हैं और मैंने इन्हें बहुत संभाल कर उसी तरह रखा है जैसे-” जरा सी गर्दन झुकाई और देख ली”। आप कार्यालय में जब ब्लॉग लिखा करते थे तो हम दूर से देखा करते थे और चले जाते थे। तब ज्यादा कुछ समझ में नहीं आता था और और हम इतने कम्प्युटर-सेवी भी नहीं थे। अब तो काफी दूर निकल आए हैं।
जब भी मुख्यालय आना होता है तो आप के कमरे को प्रणाम कर चला आता हूँ,शायद कुछ ज्यादा ही भावुक हो जाता हूँ। आप के blogs को पढ़ कर मन बहुत गीला हो उठा है। संभवतः आपसे ब्लॉग के माध्यम से लिंक बरकरार रहेगा।
प्रणाम
आपका—
आर.पी.श्रीवास्तव
उप.मुख्य परिचालन प्रबंधक
कोर/इलाहाबाद
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जय हो, आर.पी.। आप जैसे लोगों का स्नेह ही मेरे ब्लॉग की पूंजी है!
टिप्पणी के लिये बहुत धन्यवाद!
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यह तो हमारे लिए नया अनुभव होगा. हाँ सिक्के बिनते लोगों को तो देखा है. कभी कभी ऐसा लगता है शिव कुटी के पास के गंगाघाट पर ज्ञान दत्त जी मानो CCTV हों.
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cctv को मेरा प्रणाम 🙂
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