फाफामऊ, सवेरा, कोहरा, सैर

रात में रुका था अस्पताल में। केबिन में मरीज के साथ का बिस्तर संकरा था – करवट बदलने के लिये पर्याप्त जगह नहीं। बहुत कुछ रेलवे की स्लीपर क्लास की रेग्जीन वाली बर्थ जैसा। उसकी बजाय मैं जमीन पर चटाई-दसनी बिछा कर सोया था। रात में दो तीन बार उठ कर जब भी मरीज (अम्माजी) को देखता था, वे जागती और छत की ओर ताकती प्रतीत होती थीं। सवेरे उनसे कहा – “नींद नहीं आयी?” वे बोलीं – “नहीं, आयी थी।”

उठने के बाद शौच-शेव-स्नान (3स) से निपट कर सोचा कि सवेरे फाफामऊ की ओर से गंगा किनारे तक सैर कर ली जाये। यद्यपि किनारा कुछ दूर है, पर लगा कि अधिक से अधिक 45 मिनट जाने और उतना आने में लगेगा। उतना पैदल चला जा सकता है। बाहर निकलते ही नजर आ गया कि कोहरा घना है। दृष्यता 100 मीटर के आसपास है। यही गंगा समीप आने पर बीस मीटर के लगभग हो गयी। :-(

फाफामऊ तिराहा
फाफामऊ तिराहा

फाफामऊ तिराहे पर पुलीस का साइनबोर्ड और उसके पास पुलीस वाले मुस्तैद नजर आये। मैसेज फ्लैश हो रहा था एलईडी डिस्प्ले पर – फलाने रंग की ढिमाके मॉडल की कार नजर आये तो सूचित किया जाये। पुलीस वाले फलानी-ढिमाकी कार को तलाशने में लगे थे या ट्रक-टैम्पो वालों से उगाही में, यह समझ नहीं आया। तिराहे से आगे गंगा पुल की दिशा में बढ़ा तो कोहरा सघन होने लगा। पीछे से आता कोई वाहन चपेट में न ले ले, इस लिये सड़क की दायीं ओर चल रहा था। पर मैने देखा कि लोग मेरी इस सोच से इत्तेफाक-राय नहीं हैं। आने जाने वाले पैदल लोगों को भी मैने बांये चलो के नियम का पालन करते देखा।

शीतलामाता-हनुमान जी मंदिर
शीतलामाता-हनुमान जी मंदिर

कुछ दूर पर सड़क के किनारे दबाई जमीन पर बड़ा परिसर दिखा एक मन्दिर का। ग्राउण्ड फ्लोर पर शीतला माता और फर्स्ट फ्लोर पर हनुमान जी। पास में सटे कुछ कमरे और उनके पास एक हैंडपम्प। हैंडपम्प पर तीन चार लोग नहा रहे थे। उनमें से एक और ऊपर हनुमान मन्दिर के दरवाजे पर खड़े दूसरे व्यक्ति के बीच तेज आवाज में संवाद चल रहा था जो और तेज होता गया। मसला तो समझ नहीं आया। पर एक शब्द – जो माता के लिये प्रयुक्त होता है और बरास्ते अरबी-फारसी हिन्दी में आया है – मादर; तथा उसके प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त दूसरा क्रियामूलक शब्द, जो हिन्दी में “मैं” के बाद सर्वाधिक प्रचलित है; से स्पष्ट हो गया कि मामला प्रात:कालीन टिर्रपिर्र का है। मेरी जिज्ञासा शान्त हो गयी – इन अ फ्लैश! मैं आगे चल दिया।

???????????????????????????????आगे दांयी ओर ही सडक किनारे कपड़ों या तिरपाल की झोंपड़ियां हैं। दिन में उनमें लाई-चना-गट्टा आदि बिकते देखता हूं। उनमें कुछ लोग रहते भी हैं। एक स्त्री उनमें से बाहर निकल कर खड़ी थी। मुंह में दातून दाबे। एक झोंपड़ी में से एक बच्चा बाहर झांक रहा था। तख्त पर रजाई ओढे बैठा था। लाल रंग की मंकी कैप और पूरी बांह का सिंथैटिक जैकेट पहने। अगर उस सड़क किनारे की बांस-बल्ली और तिरपाल की बनी मडई में न होता तो मध्यवर्गीय परिवार का नजर आता…Nov13r001

चन्द्रशेखर आजाद पुल से बसें, और अन्य चौपहिया वाहन आ रहे थे। दूस से दिखाई नहीं पड़ते थे। उनकी रोशनी चमकती थी, फिर आकृति उभरती थी। जैसे जैसे मैं आगे बढ़ रहा था, कोहरा और घना होता जा रहा था। हर बीस पच्चीस कदम पर मन होता था कि लौट लिया जाये। पर गंगा के किनारे पर पंहुचने का आकर्षण आगे लिये जा रहा था मुझे।

???????????????????????????????बाईं ओर पेंड़ थे। कोहरे में चुप चाप खड़े। मैं उनकी ओर हो लिया सड़क क्रॉस कर। उनसे कोहरे के कण्डेंसेशन की बूंदें टपक रही थीं। एक दो मेरे कन्धे पर गिरीं। चुप चाप खड़े पेंड़। रात भर किसी आदमी को यों खड़ा कर दिया जाये तो सवेरे राम नाम सत्त हो! अधिकांश पर पूरी पत्तियां थीं। एक दिखा बिना एक भी पत्ती का। … सुमित्रानन्दन पंत याद आये – झरते हैं, झरने दो पत्ते, डरो न किंचित!

कोहरा और घना हो गया। पास पटरियों से ट्रेन गुजर रही थी। केवल आवाज भर आयी। पूरी ट्रेन गुजर गयी, पर दिखी नहीं मुझे। सवेरे के पौने सात बज रहे थे पर घने कोहरे में सूरज की रोशनी नजर नहीं आ रही थी। मैने सोचा कि अगर गंगा तट पर पंहुच भी गया तो इस कुहासे में कुछ दिखेगा नहीं। वापस हो लिया मैं।

वापसी में उसी शीतलामाता-हनुमान मन्दिर के पास एक बच्चा दिखा। बढ़िया ससपेंशन वाली एवन क्रूजर  साइकल पर। रुक कर वह मुझे देखने लगा। उसका चित्र ले कर उसे दिखाया मैने। दांत चियार दिये अपना चित्र देख। बताया कि नाम है अमर। यहीं पास वाली मड़ई में रहता है। दूध का काम करता है।???????????????????????????????

मैने पूछा – दूध दे कर आ रहे हो?

नहीं वहीं रहता हूं। दूध का काम करता हूं।

दूध बेचते हो?

नहीं, पेरता हूं। उसने हाथ से ऐसा इशारा किया मानो ईख पेरने वाली मशीन का हेण्डल चला रहा हो। पूछने पर स्पष्ट किया कि दूध से क्रीम निकालने का काम करता है। मैं सोचता था उन मड़ईयों में लाई-चना-गट्टा मिलता है। यह क्रीम निकालने का काम भी होता है, यह अंदाज न था।

वापस लौटा तो अस्पताल के पास चाय की दुकान खुल रही थी। उसमें काम करने वाली स्त्री कोयले की दो भट्टियां सुलगा रही थी। एक पर दिन भर अनवरत चाय बनेगी और दूसरी पर समोसा, मठरी और लौंग लता।

लौंगलता? आप जानते हैं न लौंगलता क्या होती है। देसी मिठाई!

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अगली मॉर्निंग वाक पर कब जाओगे जीडी? कब तक काटोगे फाफामऊ के चक्कर? :-(

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

3 thoughts on “फाफामऊ, सवेरा, कोहरा, सैर

  1. लोंगलता………हमे भी बता दीजिये ………पहलीबार नम सुने हे

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