
अमित सिंह के चेम्बर में आशुतोष पंत मिले। आशुतोष मेरे पड़ोसी हैं। मेरे घर – सप्तगिरि के सामने ही है उनका दुमंजिला आवास। पर पहले कभी आशुतोष से मुलाकात नहीं हुई थी।
मैं पंत उपनाम को पहाड़ से जोड़ कर देखता था, इसलिये आशुतोष को भी पहाड़ का समझा। वे निकले भी। पर एक नयी बात उन्होने मुझे बताई कि ‘पंत’ मूलत महाराष्ट से आये हैं। इग्यारहवीं सदी में चार कोंकणी भाई पहाड़ पंहुचे। और वहीं रह गये। उन्ही से पहाड़ के पंत बने हैं।
श्री आशुतोष पंत भारतीय रेलवे की विद्युत इंजीनियरिंग सेवा में हैं और यहां पूर्वोत्तर रेलवे मुख्यालय, गोरखपुर में उप मुख्य सतर्कता अधिकारी (विद्युत) हैं।
मनसे के राज ठाकरे को पता नहीं यह ज्ञात है या नहीं – या जबरी के उत्तरभारत के लोगों का विरोध करते रहते हैं। अतीत में कितनी जातियाँ और वर्ग एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहे हैं कि वर्तमान भारत में किसी स्थान पर निज का वर्चस्व मानना इतिहास पर जबरिया कब्जा करने जैसा है…
आशुतोष ने बताया कि जो चार कोंकणी पंत उत्तरांचल में पंहुचे थे, उनमें से तीन तो उपरोहित्य/मंत्री के कर्म में लगे पर चौथे भाई – भवदास पंत सेनापति बने। तीन भाई तो शाकाहारी रहे और उनकी संतति भी; पर भवदास पंत और उनकी संतति सैन्यकार्य में लगने के कारण नॉनवेजीटेरियन बनी। इस विषय में आशुतोष ने मुझे एड्विन थॉमस एटकिंसन के द हिमालयन गज़ेटियर का सन्दर्भ भी दिया। इस ग्रंथ को मैं नेट पर सर्च तो कर पाया, पर लगता है कि पुस्तक तो नेट पर पढ़ने के लिये उपलब्ध नहीं है। वहां एटकिंसन की कुमाऊं/गढ़वाल पर अनेक पुस्तकों के बारे में भी पता चला।
खैर, विकीपेडिया पर पंत सरनेम के ऊपर एक पन्ना मुझे मिला। इसमें लिखा है कि ‘पंत’ पण्डित के लिये उपयोग किया जाने वाला शब्द है और इसका सरनेम हिन्दू बाह्मण लगाते हैं। ये ब्राह्मण मुख्यत: कुमाउंनी हैं और कुछ नेपाल में भी हैं। पंत पश्चिमी भारत – महाराष्ट्र और कर्णाटक के कोंकण क्षेत्र से कुमाऊं में आये। महाराष्ट के ब्राह्मण अभी भी अपने मध्यनाम में पंत लगाते हैं – यह जताने के लिये कि वे विद्वान और दरबार के मंत्री आदि की संतति हैं।
मुझे कई जाने माने पंत सरनेम के लोगों की जानकारी मिली – सुमित्रानन्दन पंत, पण्डित गोविन्दवल्लभ पंत, गौरा (शिवानी) पंत, और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली की पत्नी शीला ईरीन पंत।
शीला ईरीन पंत के बारे में जो जानकारी मुझे विकीपेडिया पर मिली, उसका तनिक भी अहसास न था। शीला ईरीन पंत ब्रिटिश सेना के मेजर जनरल हेक्टर पंत की पुत्री थीं जिनका कुमाउनी ब्राह्मण परिवार सन 1887 में ईसाई बना था। शीला पंत की शिक्षा लखनऊ और कलकत्ता में हुई और वे लियाकत अली से 1931 में मिलीं जब वे दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में भाषण देने आये थे। अगले वर्ष 1932 में उनका विवाह लियाकत अली से हुआ। तब उन्होने अपना नाम बदल कर राना लियाकत अली रख लिया…
कोंकण, कुमाऊं, नेपाल, लखनऊ, इलाहाबाद, कलकत्ता और पाकिस्तान – हिन्दू ब्राह्मण पंत के चक्कर में सब घूम लिया मैं। और मुझे यह भी यकीन हुआ कि हम एक इलाकाई मेढ़क नहीं हैं जो मनसे वाले समझाना चाहते हैं। हम विस्तृत अखण्ड भारत की विरासत वाले लोग हैं! 😀
Geni के इस पन्ने पर है कि पंत कुटुम्ब के प्रमुख जय देव पंत अपने साले दिनकर राव पंत के साथ रत्नागिरि जिले, महाराष्ट्र से 1303 इस्वी में उत्तराखण्ड विस्थापित हुये।
Uattrakhand ke brhamin jatiya Maharashtra se hai
Dabral, bhat,upreti,Joshi,benjwal,sati,pant ,juyal
Aadi anek brhamin jatiya Maharashtra kanatak Goa Gujrat se an huai hai
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बढिया है! मनसे और ठाकरे की तो ऐसी …… अब आगे क्या बोलें? आप खुदै समझदार हैं।
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“मरीचिअत्रिअंगिरापुल्हक्रतु पुलस्तश्च वशिष्ठश्च सप्तैते ब्राह्मणा सुता:” इन सप्त गोत्रों के वंशजों के नाम से चले गोत्रों के ब्राह्मण सम्पूर्ण भारत में मिलेगें।
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कूर्मान्चल के पंङित लोकरत्न पंत हिन्दी के पहले कवि थे । यह बात ‘ शकुनाखर ‘ की 17 फरवरी 2009 की पोस्ट ने की है ।
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यह शोध जारी रहे तो एक अच्छी, जरूरी, जानकारीपूर्ण व रोचक पुस्तक की संभावना दिख रही है।
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और मुझे यह भी यकीन हुआ कि हम एक इलाकाई मेढ़क नहीं हैं जो मनसे वाले समझाना चाहते हैं। हम विस्तृत अखण्ड भारत की विरासत वाले लोग हैं!………..ekdum poori parat utar dete hain aap
pranam.
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चलती रहे यह मानसिक हलचल, निकलते रहें रत्न!
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गौड़ ब्राह्मण हरियाणा-राजस्थान सहित समस्त उत्तर भारत में अपनी धर्मध्वजा ऊंची फहराए रखते हैं पर तत्कालीन गौड़ प्रदेश तो ठहरा बंगाल में । उधर बंगाल का ब्राह्मणत्व जिन कुलीन ब्राह्मणों ने अपने कंधे पर थाम रखा है वे कन्नौज के कनौजिया ब्राह्मणों के वंशज हैं । कहते हैं कि राजा आदिशूर के समय कन्नौज से पाँच ब्राह्मण– भट्ट नारायण, दक्ष, श्री हर्ष, छांदोड और वेदगर्भ बुलाए गये थे और यही चार कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुलीन बंगाली ब्राह्मणों के आदि पुरूष हैं.
भारत नाम के इस ‘मेल्टिंग पौट’ में सब कुछ इतना घुला-मिला और घचड़-पचड़ है कि अपनी अटल-अविचल स्थानीयता, उच्चभ्रू जातिशुद्धता और ‘ब्लू-ब्लड’ कुलीनता पर गर्व करने वाला कोई भारी उज्बक ही हो सकता है । जरा-सा कुरेदने और दरियाफ्त करने पर मुलम्मा छूटने लगता है… कलई उतरने लगती है । कहाँ का छोर और कहाँ की डोर ….सब धागे उलझे-उलझे से ।
आदमी जिंदाबाद ! आवरण मुर्दाबाद !
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लगता है बभनौटी का आदान-प्रदान बहुत हुआ है भारत में। बदरीनाथ में नम्बूदरी मिलेंगे! … मेरा एक मित्र था; उड़िया; मिश्र। बताता था कि 400 साल पहले उसके पूर्वजों को राजा काशी के पास से ले कर गये थे…
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और हां, आदमी जिंदाबाद ! आवरण मुर्दाबाद !
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ग्वालियर,इंदोर और देवास व उसके आसपास सत्रहवीं सदी में मराठा सामंतों के साथ हज़ारों की सँख्या मे आये maharashtriyan परिवार मध्य प्रदेश की संस्कृति का अनिवार्य अंग वन चुके हैं ,इसकी पराकास्था है रत्नागिरी में जन्मी सुमित्रा महाजन जो इंदोर से लम्बे समय से सांसद हैं तो दूसरी और सिंधिया परिवार जिनके अंध भक्त कभी उनके मूल स्थान के बारे में सोचते ही नही हैं और स्थानिया अटल विहारी जैसों को हरा देते हैं
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आपका ऐसा ही भ्रमण जारी रहे. एक ब्राह्मण द्वारा अभिवादन के पूर्व वह अपना एक संक्षिप्त परिचय देता है. उदाहरणार्थ मैं कहूंगा “अभिवादये, १. आंगिरस २. अम्बरीष ३. युवनाश्व त्रयाऋषेय प्रवरान्वुत हरित गोत्रः आपस्तम्भ सूत्रः श्री सुब्रह्मण्य शर्मा नामाहम अस्मि भवः”
उपनयन संस्कार के समय इसे कंठस्थ कराया जाता हैं. इससे लोगों को उस व्यक्ति के बारे में आवश्यक जानकारी मिल जाती है. इस परंपरा पर आप कुछ चिंतन कर सकते हैं
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कुछ महीने पहले मुझे अपनी अम्मा जी के दशाह में जिम्मेदारी निभानी थी। उस समय भी यह देवों, पितरों को सम्बोधन कर अनेक बार बोलना पड़ा।
बिना गोत्र के क्या बाभन! 🙂
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