कमहरिया और बालकृष्णदास व्यास जी

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गंगा किनारे योगेश्वरानन्द धाम, कमहरिया। श्री बालकृष्णदास व्यास जी यहीं रह रहे हैं।

उस शाम हम (राजन भाई और मैं) फिर कमहरिया के लिये साइकल पर निकले। शाम का समय था। यह सोचा कि आधा घण्टा जाने, आधा घण्टा आने में लगेगा। वहां आधे घण्टे रहेंगे व्यास जी के आश्रम में। शाम छ बजे से पहले लौट आयेंगे।

जो रास्ता हमने चुना वह लगभग 80% पगडण्डी वाला था। पगडण्डी में भी करीब 1 किलोमीटर काफ़ी ऊबड़-खाबड़। घर से कमहरिया तक चार पांच गांव पड़ते हैं – मेदिनीपुर, द्वारिकापुर, अगियाबीर, गड़ौली, करहर और भगवानपुर। गडौली और करहर बड़े गांव हैं। गड़ौली में तो बड़ी पानी की टंकी और गांव भर में पाइप से पानी की सप्लाई भी देखी मैने। इन गांवों से गुजरते समय अलग अलग प्रकार के अनुभव होते हैं।

द्वारिकापुर में मेरा दूधवाला, बाढ़ू रहता है। बाढ़ू यादव के पास अपनी भैसें हैं। खेती भी है। बाढ़ू से मैत्री उनके द्वारा मेरे घर दही ले कर आने से शुरू हुई। उन्ही से पता चला कि वे रिटायर्ड वन रक्षक हैं। मैं पेड लगाने में रुचि रखता हूं और भविष्य में बाढ़ू से मैत्री काम की रहेगी। साइकल चला कर उनके गांव से गुजरते समय बाढ़ू किसी कोने से ऊंची आवाज में नमस्कार करते हैं। मैं उन्हे देख नहीं पाता, पर जवाब देते हुते गुजर जाता हूं उनकी बस्ती के सामने से।

द्वारिकापुर और अगियाबीर के बीच घाटी सी है। गंगा जब बढ़ती है तो यहां जल आ जाता है और यह रास्ता बन्द हो जाता है। अभी वहां लड़के खेलते मिलते हैं। ठाकुरों की बस्ती है। एक लड़का कहता है – “दद्दा, काहे साइकल चला रहे हो। आपकी उमर नहीं इसके लिये। साइकल मुझे दे दो!” मुझे उसकी यह प्रगल्भता पसन्द नहीं आती। वहां से चलता चला जाता हूं। मैने अपने बालों पर खिजाब लगाना छोड़ दिया है। भौहें भी सफ़ेद होने लगी हैं। उम्र बढ़ने और अपने मेक-अप के प्रति उदासीन भाव के कारण उद्दण्ड बालकों के लिये मैं करुणा और हास्य का निमित्त बनने लगा हूं। यह अहसास अच्छा नहीं लगता। किसे अच्छा लगेगा?!

अगियाबीर में गंगा किनारे एक बड़ा टीला है। एक पहाड़ी जैसा। उसपर एक दो झोंपड़ियां, कुछ वनस्पति और पेड़ बड़ा मनोरम दृष्य प्रस्तुत करते हैं। उस टीले पर आर्कियालॉजिकल खोज करने वाले काम करते हैं। भरों के समय की मूर्तियां और सिक्के मिले हैं वहां। भरों के कारण ही यह क्षेत्र भरदोही (कालान्तर में भदोही) कहलाया। शायद उससे पहले का भी इतिहास हो इस कोट में गड़ा हुआ।  वहां तक जाने को जो पगड़ण्डी है, उसपर शायद ही साइकल चल पाये। पैदल जाना होगा और उस टीले (कोट)  की ऊंचाई पर पैदल चढ़ना होगा। जाने का मन है; पर उसके लिये अपना स्वास्थ्य और बेहतर बनाना होगा। अगियाबीर कोट को देखते हुये यह संकल्प मन ही मन दोहराता हूं।

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कमहरिया के रास्ते में।

अगियाबीर के आगे कमहरिया है। वहां पक्की, डामर वाली सड़क मिलती है। बटोही (मेरी साइकल) की रफ़्तार बढ़ जाती है। एक नौजवान अपरिचय के बावजूद अभिवादन करता है। औरतें दोनो ओर के खेतों में निराई कर अपने सिर पर बरसीम, अंकरी और अन्य घास के गठ्ठर लिये घर को लौटनी दिखती हैं शाम हो गयी है। सवा घण्टे बाद सूर्यास्त हो जायेगा। पशु भी घर लौटने के उपक्रम में हैं। भेड़ों के साथ एक अधेड़ गड़रिया उन्हे वापसी के लिये हांक रहा है। मन होता है कि रुक कर दो चार चित्र लूं। संझ के सूरज में चित्र भी अच्छे आयेंगे; पर आश्रम तक पंहुचने की जल्दी भी है और वहां से घर वापस धुंधलके तक लौट भी आना है। बटोही चलता चला जाता है।

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गंगा किनारे अघोरी आश्रम। जितनी द्वजायें और निर्माण दीखता है, उतना यह आश्रम जमीन हथिया कर फैलेगा निकट भविष्य में।

आगे दूर से ही दिखती है गंगा नदी की धारा और उसके किनारे आश्रम। पहले अघोरियों के आश्रम के ढेरों झण्डे हैं। उसके आगे वट वृक्ष से आच्छादित आश्रम की पक्की इमारत। राजन भाई फिर भी, आश्वस्त होने के लिये लोगों से पूछ लेते हैं कि वह आश्रम ही तो है न।

डामर की सड़क से हट कर पुन: पगड़ण्डी पकड़नी पड़ती है कुछ दूर के लिये और हम आश्रम पंहुच जाते हैं।

 एक और व्यक्ति आश्रम में आया है हम से पहले। मोटर साइकल पर। हम अपनी साइकल खड़ी कर अन्दर जाते हैं। व्यास जी के कक्ष से उनकी आवाज आ रही है। बीच बीच में एक अन्य व्यक्ति की भी। वे आहट पा कर हमें बुलाते हैं कमरे में प्रवेश कर मैं उन्हे नमस्कार करता हूं।

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अपने आश्रम के कक्ष में अपनी चौकी पर बालकृष्णदास व्यास जी।

एक लगभग 15X12 फुट का कमरा। एक ओर व्यास जी का तख्त है। वे उसपर बैठे हैं। बीच में एक दीवार के पास पूजन की चौकी है। व्यास जी के तख्त के दूसरी तरफ़ दीवार से सट कर एक दरी बिछी है जिस पर आठ दस लोग बैठ सकते हैं। यह स्पष्ट हो गया कि व्यास जी इस कमरे में रहते हैं, पूजन भी करते है और लोगों के साथ मिलते भी हैं। लोगों को प्रवचन भी दिया जा सकता है। मैने देखा कि तख्त के नीचे एक हारमोनियम भी रखा था। व्यास जी कीर्तन भी करते होंगे संगीत के साथ।

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आश्रम के अपने कक्ष में बालकृष्णदास व्यास जी। नीचे उनका संदूक और हारमोनियम दिखाई पड़ता है।

व्यास जी का छरहरा और लम्बा गौर शरीर। सफ़ेद धोती (लुंगी की तरह बांधी) और एक इनर (पूरे बांह की बनियान) पहने थे वे। सिर पर बड़े बाल और घनी दाढ़ी – पूरी तरह काली। बाद में ध्यान से देखा तो पाया कि खिजाब का प्रयोग किया गया है। उसी से अन्दाज लगाया कि उम्र 40 के आसपास होगी।

वे पूछते हैं कि कितना समय है हमारे पास। हम बताते है आधा घण्टा। समय सीमा के अनुसार वे अपने ग्रंथ का परिचय देने लगते हैं। महाकाव्य लिखा है (उसमें शायद अन्तिम परिवर्तन कर रहे हैं) श्री बालकृष्णदास व्यास जी ने। तुलसी कृत मानस की तरह उसमें सात अध्याय हैं। अवधी जैसी भाषा है। उसे तुलसी वाली अवधी नहीं कह सकते। आजकल की बोलचाल की स्थानीय भाषाओं के शब्द भी हैं। वे कई अंश बताते हैं ग्रन्थ के। सुन कर लगता है कि ग्रन्थ हल्का-फुल्का-छिछला नहीं है। मैं काव्य पारखी नहीं हूं, अत: ग्रन्थ की गुणवत्ता के विषय में कोई सशक्त टिप्पणी नहीं कर सकता। पर ग्रन्थ मुझे गहराई लिये लगता है। यह भी महसूस होता है कि बालकृष्ण व्यास जी के साथ भक्ति के स्तर पर न सही, इण्टेलेक्ट के आयाम में दोस्ती की जा सकती है।

व्यास जी के पास ग्रामीण सम्भवत: उन्हे महात्मा मानते हुये भक्ति भाव से आते हैं। मैं यह देख रहा हूं कि एक व्यक्ति एकान्त में रह कर, सभी असुविधाओं के साथ लगभग वही परिस्थितियां रीक्रियेट कर रहा है जो तुलसीदास के साथ थीं। वह उस प्रकार की मेधा का भी परिचय दे रहा है जो तुलसी में थी। पता नहीं , भविष्य बालकृष्णदास को महाकवि का दर्जा देगा या नहीं। पर मुझे उनमें विलक्षणता के दर्शन होते हैं।

व्यास जी कभी मुझे मध्य उत्तर प्रदेश के प्रतीत होते हैं, कभी बुन्देलखण्ड के। उनके बालों में खिज़ाब का भी प्रयोग है। वे अपने दिखने वाले स्वरूप के प्रति कान्शस हैं। वे सम्भवत: राजनैतिक समीकरण बिठाने के प्रति भी उदासीन नहीं हैं। मुझे गालिब की आटो-बायोग्राफी “दस्तम्बू” की याद हो आती है, जिसमें वे रानी विक्टोरिया तक अपना सम्पर्क बनाने को तत्पर दीखते हैं। उसी प्रकार बालकृष्णदास जी मोदी/योगी से सम्पर्क करने की अपेक्षा भी व्यक्त करते हैं।

मेरे पास अधिक समय नहीं है। अत: इस मनोभाव के साथ मैं वापस लौटता हूं कि आगे उनसे मिलता रहूंगा।

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गंगा तट पर राजन भाई के साथ व्यास जी।

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

5 thoughts on “कमहरिया और बालकृष्णदास व्यास जी

  1. जिस सड़क या पगडण्डी से निकले वहां हो सके तो रोज़ या फिर हफ्ते में एक पेड़ लगाएं! जगह भी आपकी, स्थान भी आपका, और समय भी आपका!

    गंगा किनारे भी लगा सकते है और आश्रम के पास भी!
    व्यास जी, राजन जी या कोई अन्य वयकती को अगर रूचि हो तो उन्हें भी समलित करे!
    वह लोग भी जो रोज़ गंगा नहाने आते है! फिर किसी तयोहार या प्रवचन के उपलक्ष भी कारण बन सकता है!

    महुआ का पेड़ या किसी अन्य फल देने वाले वृक्ष! अधिक जानकारी उन नए वन रक्षक मित्र से मिल जाएगी! अभी प्रयास करेंगे तो कुछ बरसो में वह वृक्ष हरे भरे हो जायेंगे!.

    मेरे को एक पुरानी बात याद आई, जिसमें एक आदमीं रोज़ गाँव के पास की फैक्ट्री में काम के लिए जाता था! रास्ता कच्चा और लम्बा था ओर कही पर कोई पेड़ नहीं था, जहाँ वह थोड़ी देर बैठ सके, सुस्ता सके! तो कुछ वर्षो बाद उस वयकति ने अपने मार्ग पर रोज़ाना एक पेड़ लगाना शुरू किया! ओर आते जाते उसमें पानी भी डाला! इस से अन्य लोगो का धयान भी गया! कुछ वर्षो पश्चात वह मार्ग पूरा हरा भरा और छायादार हो गया!

    आप प्रयास करे तो जायादा नहीं तो कुछ दर्जन भर लगा ही सकते है अपने प्रियजनों, मित्रों के नाम पर या अपने फेसबुक या ट्विटर के हर फॉलोऔर के नाम एक!

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