झल्लर को एक सोलर लालटेन देने का मन बनाया था मैने। उसके लिये अपने ड्राइवर से पूछा कि यहां मार्केट में कहीं मिलती होगी। उसने अनभिज्ञता जताई। मैने भी गांव वालों के पास एलईडी की बैटरी वाली टार्चें तो देखी थीं, या फिर रीचार्जएबुल बैटरी वाली जुगाड़ टार्चें। किसी के पास सोलर चार्ज होने वाली नहीं थीं।
अमेजन और फ्लिपकार्ट पर देखा तो 200 से 500 रुपये के बीच थीं। पर उनसे मंगाने में समय लगता।
मैं पास के बाजार महराजगंज गया। वहां (जिस दुकान पर मिल पाने की सबसे अधिक सम्भावना थी, उसमें) पूछा तो मिल गयी। वह भी चाइना मेड नहीं, भारत में बनी। क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं थी पर चाइना वालों जैसी खड़खड़िया भी नहीं थी। दाम उसपर 300 रुपये लिखा था, पर दुकान वाले माणिक सेठ ने ढाई सौ में दे दी।
ढाई सौ में अच्छा प्रॉडक्ट मिला। उस सोलर टॉर्च की रोशनी भी चमकदार थी। रोशनी का आउटपुट कम ज्यादा किया जा सकता था। कम से कम 5 घण्टा रोशनी देने का वायदा था दो घण्टा सूर्य की रोशनी में री-चार्ज करने पर। हल्की सूरज की रोशनी में भी चार्ज होने लगती थी वह टार्च।
अगले दिन (कल) सवेरे की साइकिल सैर में सोलर टार्च साथ ले गया झल्लर को देने के लिये। पर अपनी मड़ई पर झल्लर थे नहीं। अपने एक पड़ोसी को वहां बिठा कर गांव की तरफ़ गये थे। दो चक्कर साइकिल के लगा कर जब मैं घर वापस लौटने वाला था, तब उस पड़ोसी ने आवाज दी – आई ग हयेन् झल्लर दद्दा (आ गये हैं झल्लर दद्दा)।

झल्लर अपनी खाट बाहर निकाल कर बैठे थे। गांव से दो पड़ोसी आये हुये थे। मैने उन्हे टार्च दी। उसकी कार्य विधि बताई। जितनी उत्सुकता से झल्लर ने समझा, उतनी रुचि से उन दो पड़ोसियों ने भी। नयी चीज थी उन सब के लिये। मैने यह भी दिखाया कि सूर्य की रोशनी की दिशा में पैनल कैसे घुमाया जाता है और चार्ज होते समय कैसे लाल लाइट जलना प्रारम्भ कर देती है जिससे पता चले कि टार्च चार्ज हो रही है। झल्लर को समझाने के बाद जब टार्च दी तो उन्होने उसे माथे से लगाया। फिर सकुचा कर पूछा – कितने की होगी?

मेरी बजाय उनके पड़ोसी ने उत्तर दिया – लईलअ दद्दा। देत हयेन् त लईलअ। झुट्ठै दाम काहे पूंछत हयअ (रख लो दद्दा। जब दे रहे हैं तो रख लो। झूठ-मूठ में दाम क्यों पूछने की औपचारिकता कर रहे हो)।
झल्लर गदगद दिखे। मुझे एक दोहा सुनाया –
देनी बड़ी अनूप है; जो केहू को देय।
जगत बड़ाई होतु है; फेरि आपन लई लेय।
मुझे लगा, वे मुझे कह रहे हैं कि देने में जगत की बड़ाई निश्चित है और वही प्रतिफल है देने का। झल्लर जैसा सन 1942 में तीसरी दर्जा पास होने पर स्कूल छोड़ चुका व्यक्ति इतना बढ़िया और इतना सामयिक दोहा कह सकता है – इसकी मुझे आशा नहीं थी। यही नहीं, इसके बाद तरंग में आ कर महाकवि केशव का एक कवित्त वे सुनाने लगे। मैने उन्हे रोका। कहा कि फिर से सुनायें जिससे रिकार्ड कर सकूं। उन्होने जो सुनाया उसका फ़ीचर फोन वाले मोबाइल पर की गयी रिकार्डिंग उपलब्ध है –
समय बहुत हो गया था। घर पर लोग मेरा नाश्ते के लिये इन्तजार कर रहे होंगे, यह सोच कर झल्लर को नमस्कार कर विदा ली। झल्लर मुझे अपनी रिहायश की सीमा तक छोड़ने आये।
एक सीनियर सिटिजन ने एक सुपर सीनियर सिटिजन को अपना मित्र, अपना सुहृद बना लिय था एक सोलर टार्च के माध्यम से।
वाह. यह आनंद भी अद्भुत है 🙂
LikeLiked by 1 person
यह पोस्ट पढ़कर मन प्रसन्न हो गया.
LikeLiked by 1 person