अपने ब्लॉग, मानसिक हलचल, पर सोच विचार


मेरा हिन्दी का ब्लॉग मानसिक हलचल (halchal.blog) मुख्यतः भारत, अमेरिका, सिंगापुर और कुछ यूरोपीय देशों में पढ़ा जाता है.
हिन्दी ब्लॉगिंग के स्वर्णिम दौर में मैं छोटे ब्लॉगिंग दायरे में प्रसन्न था. बाद में मेरे कुछ ब्लॉग मित्र पुस्तक ठेलने में लग गए. मुझे भी बहुत से मित्रों ने कहा कि वह करूँ. अनूप शुक्ल जी तो बहुत कहते रहे, अभी भी कहते हैं, पर वह मैं कर नहीं पाया.

मानसिक हलचल पर पाठक यातायात. आंकड़ा wordpress के App का स्क्रीनशॉट है. जितना गाढ़ा लाल रंग, उतने अधिक पाठक.

मैं भी सोचता था कि ब्लॉग की पुरानी पोस्टों में ही इतना कन्टेन्ट है कि एक दो पूरे आकार की पुस्तकें उसमें से मूर्त रूप ले सकती हैं. कई बार गंभीरता से सोचा भी. पर कुल मिला कर अपने को ब्लॉगर से पुस्तक लेखक के रुप में रूपांतरित नहीं कर पाया. शायद पुस्तक लिखने के बाद उसका प्रकाशक तलाशने और उसकी बिक्री की जद्दोजहद करने का मुझमें माद्दा नहीं था/है. या फिर यह शुद्ध आलस्य ही है.

ब्लॉग के आंकड़े और उसका वैश्विक पाठक वर्ग का कुछ देशों तक सीमित होना भी अब (कभी कभी) मायूस करता है. जिस तरह के विषयों पर मैं लिखता हूं, उसमें व्यापक विश्व की रुचि संभव है. पर शायद हिन्दी का प्रसार उन देशों में नहीं है. लगता है, जितना यत्न हिन्दी भाषा की ब्लॉगिंग में किया, उससे कम में अंग्रेजी में ज्यादा बड़ा पाठक वर्ग मिल सकता था. उसके लिए अपने अंग्रेजी लेखन की शैली और शब्द भंडार मुझे विकसित करने होते.

मानसिक हलचल का स्क्रीनशॉट.

और मेरी हिन्दी का क्या हाल है? हिन्दी के लिक्खाड़ लोग उसे हिन्दी मानते ही नहीं. वह तो “दरेरा” मार कर लिखी गई हिन्दी है. जहां हिन्दी के शब्द मिले वहाँ तक उनसे काम चलाया. न मिलने पर अंग्रेजी या देशज भाषा के शब्द ठेले और जब वह भी न मिले तो शब्द गढ़ लिए. यह शुद्ध भाषा वालों को तो कत्तई पसंद नहीं आता. कुछ मित्र (मेरा अनुमान है) मेरी इस सरासर ढीठ वृत्ति को नापसंद करते हैं, पर शर्मा शर्मी में कुछ कहते नहीं!

मैं अभी भी सोचता हूं –

  • पुस्तक लेखन का यत्न करूँ
  • ब्लॉग लेखन के लिए हिंदी का अपना शब्द ज्ञान समृद्ध करूँ
  • हिन्दी पट्टी वालों से कुछ नेटवर्किंग करूँ, कुछ संपर्क का विस्तार करूँ
  • ट्विटर, फेसबुक, इन्स्टाग्राम और ब्लॉग में अंग्रेजी का लेखन करूँ. जितना लिख रहा हूँ, उसका करीब एक तिहाई तो करूँ ही.

पर यह सब सोचना जस का तस रह जाता है. कभी आलस्य, कभी इन्टरनेट की ग्रामीण वातावरण में खटारा स्पीड और कभी इस सम्प्रेषण विधा से ऊब; यह करने में स्पीड ब्रेकर की भूमिका अदा करते हैं.


There are some blog posts, quite a few of them, on which I’ve put in lots of effort, and I feel, very sincerely, some sort of pride. I sometimes get amazed that they came through me.

Such posts need to be cherished, chiselled and elaborated. They are loaded with potential. But they need further working on. Afterall, blogging is rough writing – excessively dependent upon pictures instead of creating the scene using words. खुरदरा लेखन.


पर मजे की बात है कि लेखन की आदत और चाह अब भी जिंदा है. अब भी, जब (शायद) हिंदी ब्लॉगिंग का स्वर्णिम युग समाप्त हो चुका है.

वैसे मैं ब्लॉग पर ट्रैफिक के आंकड़े देखता हूं तो पाता हूँ कि हिन्दी ब्लॉगिंग के स्वर्णिम (?) काल की बजाय आज उसपर आने वालों की संख्या दैनिक आधार पर तिगुनी है. लोग टिप्पणियाँ नहीं (या बहुत कम) कर रहे हैं; पर पढ़ने वाले पहले से ज्यादा हैं.

आपको हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में कैसा लगता है?


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “अपने ब्लॉग, मानसिक हलचल, पर सोच विचार

  1. हिन्दी ब्लॉगिग मुझे पसन्द है। पाठकों के लिए शायद ही कभी की। लिखना पसन्द है तो लिखता हूँ और डाल देता हूँ। लोग आते भी हैं। कुछ भले लोग टिप्पणी भी कर जाते हैं। हाँ, मैं ब्लॉगर पर लिखता हूँ।

    आपका ब्लॉग तो रोचक रहता है। पढ़ने में आनन्द आता है तो टिप्पणी भी कर ही देता हूँ। अँग्रेजी में लिखने का विचार हो तो उसमें भी लिखें। अच्छा लेखन पाठक ढूँढ ही लेता है।

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  2. स्वानत: सुखाय सब स्वर्णिम है। आप बहुत कर रहे हैं। करते चलिये। असल में वर्डप्रेस में टिप्प्णी उतनी आसानी से नहीं हो पाती है जितना ब्लॉगर में। ब्लॉगर मुझे ज्यादा सरल लगता है। आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं। विविधताओं से भरी पोस्ट होती हैं और साथ में आपके कैमरे की आँख भी :)

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  3. परस्पर वार्तालाप और टिप्पणियों के अभाव में बहुत अच्छी रचनाएं भी गुमनामी के दौर में चली जाती हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिना पोस्ट खोले ही सीधा लाइक करके आगे बढ़ जाते हैं, हालांकि ये संख्या बहुत कम है। रचनात्मक आलोचनाओं का दौर अब शायद ही कहीं दिखता है। अंग्रेजी ब्लॉगिंग के विस्तृत बाजार की तरफ आकर्षित होते हिन्दी ब्लॉगर्स स्वयं हिन्दी से विमुख होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी की दुर्गति का रोना रोने से कुछ नहीं मिलने वाला बल्कि यह सोचना होगा कि हिन्दी ब्लॉगर्स ने हिन्दी ब्लॉगिंग को पहचान दिलाने के लिए क्या किया

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    1. उस दौर (2007 से 2012) के बीच विभिन्न क्षेत्रों के लोग विभिन्न विशेषज्ञता वाले हिंदी ब्लॉगिंग से इस लिए जुड़े कि अचानक देखा हिन्दी में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है. उन्होंने ब्लॉगिंग को बहुत समृद्ध किया.
      बाद में फेसबुक और ट्विटर ने तथा लैपटॉप की बजाय मोबाइल ने ब्लॉग पर लेखन कठिन बना दिया. हिन्दी में लोग फ़ीड एग्रीगेटर के लती थे. वे सर्च इंजन की महारत नहीं हासिल कर पाए.
      बाकी, हिन्दी की सेवा जैसी बात न थी और न है.

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