रिच डैड, पूअर डैड नामक पुस्तक ने धनी व्यक्तियों के जीवन और उनके मैनरिज्म हम मध्यवर्गीय लोगों की कल्पना में अधिक स्पष्टता के साथ ला दिये हैं। इसके साथ जब भी किसी धनी व्यक्ति को हम देखते हैं; विशेषत: धनी और सेल्फ मेड व्यक्ति; तो उसको बड़ी सूक्ष्मता से देखने का प्रयास करते हैं। … कम से कम मैं तो करता ही हूं।

पिछले दिनों दो ऐसे व्यक्तियों से मिलना हुआ। एक तो श्री सूर्यमणि तिवारी हैं। उनके बारे में विगत एक महीने में ब्लॉग पर कई बार लिखा भी है मैने। दूसरे मेरे समधी श्री रवीन्द्र कुमार पाण्डेय जी हैं। पाण्डेय जी पांच बार लोक सभा सदस्य रह चुके हैं। इस बार वे खड़े नहीं हुये (क्षेत्रीय दल के साथ सीट समझौते के कारण पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया)। पर उनके व्यवसायिक और राजनैतिक समीकरण अभी भी पहले की तरह जीवन्त हैं। राजनैतिक परिदृष्य पर उन्हें स्पेण्ट-फोर्स मानने की भूल तो पार्टी (भाजपा) नहीं ही कर सकती। शायद वह उन्हें किसी और प्रकार से झारखण्ड के पोलिटिकल सीन में इस्तेमाल करने पर सोच रही है।
कल सूर्यमणि जी अस्पताल (सूर्या ट्रॉमा सेंटर) में फार्मेसी के काउण्टर पर बैठे दिख गये। हम अपने पिताजी को एमरजेन्सी ट्रीटमेण्ट के लिये ले कर गये थे और डाक्टर ने कुछ दवायें खरीद लाने के लिये कहा था। मेरी पत्नीजी दवा लेने गयी तो तिवारी जी को काउण्टर पर बैठे देख उन्हें नमस्कार किया। तिवारी जी ने उन्हें दवा दिलायी, पैसे ले कर गल्ले में रखे और उसमें से बाकी पैसे निकाल कर गिने और मेरी पत्नीजी को वापस किये। कुल मिला कर केमिस्ट की दुकान के कैशियर का रोल अदा कर रहे थे तिवारी जी।

मैं नेट पर सर्च करता हूं तो पाता हूं कि उनकी कम्पनी का सालाना टर्न ओवर 125 मिलियन डॉलर्स का है। कम्पनी INC. 5000 में है – तेजी से वृद्धि करने वाली कम्पनी। और उस कम्पनी का मालिक, कैशियर के स्टूल पर बैठ कर, गल्ले में एक हजार रख कर बकाया 176 रुपया गिन कर मेरी पत्नी को लौटाता है। आपको यह सामान्य लग सकता होगा; मुझे यह एक अलग प्रकार का अनुभव था।

रवीन्द्र पांड़े मेरे समधी हैं। मुझे उनकी माली हालत का ठीक ठीक पता नहीं। पर जब अपनी बिटिया का विवाह उनके लड़के से करने का उपक्रम चल था – आज से डेढ़ दशक पहले – तो उनका, बतौर सांसद, डिक्लेरेशन मैने नेट पर देखा और डाउनलोड किया था। उस हिसाब से मेरी मध्यवर्गीय जिन्दगी से बिल्कुल अलग सेगमेन्ट के व्यक्ति हैं वे। पर उनके व्यवहार और सुहृदता से कभी मुझे लगा नहीं कि वे किसी धनी व्यक्ति का गुरूर रखते, दिखाते हों। वे कई बार मुझसे कह चुके हैं – भैय्या, जो जमीन पर बैठे, वो जमींन्दार और जो चौकी पर बैठे वह चौकीदार। अर्थात विनम्रता में ही व्यक्ति की औकात निहित है।
ये दोनो व्यक्ति मेरे सामने धन के सही प्रतिमान हैं। बातचीत करने में सरल। समाने वाले को पूरी इज्जत देने वाले। प्रतिभा और कार्य कुशलता की कद्र करने वाले। अपनी औकात, धन और संपन्नता को बात बात में फ़्लैश करने की खराब आदत से कोसों दूर और अपनी आवश्यकतायें न्यूनतम रखने वाले। उनकी ये आदतें मुझमें उपयुक्त मात्रा में नहीं हैं। और शायद यही करण है कि मैं एक सेलरी-माइण्डसेट में सीमित व्यक्ति हूं। … इतना जरूर है कि इन दोनो सज्जनों की कई आदतें अपने जीवन में उतारना चाहूंगा।
ये दोनो व्यक्ति अलग अलग क्षेत्र के हैं। दोनों ने धन का सृजन अलग अलग प्रकार से किया होगा। दोनो अलग अलग प्रकार की समस्याओं से जूझते हैं/होंगे। रवीन्द्र पाण्डेय इस समय अपनी राजनैतिक अस्थिरता से दो-चार हैं। सूर्यमणि तिवारी भी कभी राजनीति में अजमाइश करने से जूझ और किनारा कर चुके हैं। (जैसा मेरा अनुमान है) दोनों जोंक की तरह चिपकने वाले नकारा लोगों (संबंधियों) का सामना कर चुके/रहे हैं। … मैं इन दोनो के बारे में कम ही जानता हूं, पर इनके व्यक्तित्व के मानवीय तत्व को जानने समझने की जिज्ञासा बहुत रखता हूं।
आने वाले समय में जहां गंगा किनारे मड़ई में रहने वाले किसान और मछेरे की जिन्दगी के बारे में देखना, लिखना चाहूंगा, वैसे ही तिवारी जी और पाण्डेय जी जैसे लोगों को देखने, समझने और उनपर लिखने का अवसर भी तलाशता रहूंगा। विपन्नता और संपन्नता दोनों मुझे आकर्षित करती हैं। दोनों में व्यक्ति का चरित्र गढ़ने की अपार संभावनाएं हैं।
बाई द वे, सूर्यमणि जी और रवीन्द्र कुमार जी, दोनों के पास एक-एक अस्पताल है। रवीन्द्र के पास बोकारो में कृष्ण मुरारी मेमोरियल अस्पताल है और सूर्यमणि जी के पास सूर्या ट्रॉमा सेण्टर एण्ड हॉस्पीटल है औराई में। दोनो ही अपने अस्पतालों का अलग अलग ध्येय से प्रबन्धन करते हैं। दोनो के प्रबन्धन तरीकों का तुलनात्मक अध्ययन करने का भी मन है। इसके अलावा इन दोनो के जीवन के माध्यम से पिछली अर्ध शताब्दी में हुये सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक भारत के परिवर्तन को समझने का भी विचार मन में पनप रहा है।
… अखिर, जीवन की दूसरी पारी में कुछ अलग प्रकार का तो होना चाहिये। यह अध्ययन ही सही!