कुछ दिन पहले राजेश सरोज का जिक्र था ब्लॉग पोस्ट में –
कल जब मैं द्वारिकापुर घाट पर टहल रहा था, तो वह स्वत: मेरे पास आ कर खड़ा हो गया। मुझसे बात करना चाहता है, जब भी वह दिखाई पड़ता है। कभी कभी वह बम्बई से भी फोन किया करता था। अपने परिवेश से अलग व्यक्ति के साथ जुड़ना शायद उसे अच्छा लगता है।

आजकल बालू खनन और उसे नाव पर लादने, उतारने तथा ट्रैक्टर ट्रॉली में स्थानांतरित करने का काम करता है। खुद ही बताता है कि छह सौ रुपया रोज मिलता है। “मेहनत बहुत है इस काम में”।
राजेश महीने में बीस दिन काम करता है। सवेरे साढ़े तीन बजे उठता है और पांच बजे यहां घाट पर आ जाता है। दिन भर में नाव छह सात फेरा लगाती है। उस पार से बालू ला कर इस पार ट्रॉली में लदान किया जाने का काम है। दिन में घर नहीं जाता। उसका खाना गंगा किनारे उसका भाई लेकर आता है।
बम्बई में वह मछली पकड़ने की बड़ी नाव पर काम करता था। नाव गहरे समुद्र में जाया करती थी और कई दिन नाव पर गुजरते थे। मालिक 12 हजार महीना देता था और साथ में भोजन मुफ्त रहता था। ज्यादातर पैसा बच जाता था।
वह लॉक डाउन के पहले ही गांव आया था, उसके बाद लॉक डाउन हो गया और वापस नहीं जा सका। अब मौका लगते ही फिर वापस जाएगा। वहां का काम राजेश को पसंद है। अपने साथ आसपास के गांवों के पांच सात लोगों को वह ले कर बम्बई गया था और उनको भी इसी काम में खपाया है।
बम्बई में कहाँ रहते थे?
पहले जोगेश्वरी में कमरा लिया था। अब कांदिवली में हनुमान मंदिर (?) के पास रहता है। मकान मालिक जब नहीं है, तब का किराया नहीं लेगा, इसकी बात हो चुकी है।
पैसा तो यहां भी उतना ही मिलता है, फिर काहे वापस जाना चाहते हो?
राजेश का वापस जाने का इरादा पक्का लगता है। बताता है कि यहां काम ज्यादा मेहनत मांगता है। वहां बचत ज्यादा है। समुन्दर में काम करने का अलग मजा है। यहां तो बारिश के मौसम में बालू का काम वैसे भी बंद हो जाएगा। तब दूसरा काम तलाशना कठिन होगा।
मैं सोचता हूं कि कोरोना संक्रमण से मछलियों पर कोई असर तो नहीं पड़ेगा और समुद्र भी यथावत ही रहेगा। मछलियों की मांग भी कम नहीं होगी। इसलिए राजेश को बम्बई की नाव पर नौकरी तो मिल ही जानी चाहिए। उसकी उम्र और सेहत के हिसाब से उसे संक्रमण का ज्यादा भय नहीं होना चाहिए। उसका बम्बई जाना शुभ ही होगा

अपनी हथेली को घुटने के ऊपर धरती के समांतर रख कर बताता है कि छह साल का लड़का और चार साल की लड़की कितने बड़े हो गए हैं। अपने परिवार को पालने के लिए उसे बम्बई जाना ही है। वैसे भी, राजेश की बातों से लगता है कि उसे रोजगार की फिक्र ज्यादा है, कोरोना संक्रमण की फिक्र नहीं है। कोई मास्क नहीं पहना है राजेश ने। बालू खनन के अन्य कर्मी भी किसी तरह का सोशल डिस्टेंस न बना रहे हैं और न काम करते हुए बना सकते हैं।
राजेश और उसके साथियों की प्राथमिकताएं मेरी और मेरे जैसों की प्राथमिकता से भिन्न हैं, और हम अपने को ज्यादा बुद्धिमान समझें तो वह मूर्खता ही होगी।
घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध. गांव में पैदा हुए और पले-बढ़े लोगों को लगता है कि शहर में नौकरी करो तो गांव में लौटने पर इज्जत होती है. यह ताे फिर भी बंबई की ही बात करता है, अरब देशों में मज़दूरी करने वालों को गांव वाले फ़ॉरेन रिटर्डन्ड मान कर और भी ज्यादा इज्जत देते हैं. हमारे गांव में एक व्यक्ति है जिसके पास घोड़ा-ठेला था. पूरी जिंदगी उसने खेती के साथ-साथ वही चलाया, आसपास के गांवें तक में कुछ भी काम हो वह माल ढोने चला जाता था. गांव के कई नौकरी करने वालों से कहीं बेहतर कमाता है और उनसे कहीं अच्छा समृद्ध है
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