सवेरे इनारा से पानी खींचते देखा एक आदमी को। यह कुंआ लगभग परित्यक्त है। किसी को पानी निकालते देखा नहीं था। नयी बात थी। पूछा – क्या पानी पीने लायक है कुंये का?

“पीने के लिये नहीं, उस खलिहान लीपने के लिये पानी चाहिये, वहीं ले कर जा रहा हूं।” – उस व्यक्ति ने महुआरी की ओर इशारा किया। वहां एक महिला पेड़ के नीचे की जमीन बुहार रही थी। मैं वहां से चला गया। वापस लगभग दस मिनट बाद लौटा तो पाया कि महुये के पेड़ के नीचे जमीन बुहारी जा चुकी थी। गोबर से लीपने का काम चल रहा था। साइकिल रोक मैं चित्र लेने गया तो महिला, जो जगह लीप रही थी, खड़ी हो गयी और पुरुष एक झाड़ू से पानी और गोबर जमीन पर फैलाने लगा।

महिला ने बताया कि सरसों की पिटाई करने के लिये वे जमीन तैयार कर रहे हैं। सरसों बगल के उमेश पण्डित के खेत की है। वे उसे अधिया पर जोतते हैं। सरसों की कटाई हो चुकी है। सूख भी गयी है। अब पीट कर उससे सरसों के दाने निकालने का समय है।

यह खलिहान लिपाई के दो दिन बाद भी वहां सरसों के ढ़ेर नहीं नजर आये। तब मैंने पास के खेत की ओर नजर घुमाई तो उस अधियरा दम्पति को सूखी सरसों की फसल के गठ्ठर बनाने के उपक्रम में पाया। वे दोनों मिल कर पुआल को उमेठ कर रस्सी बना रहे थे। उसी रस्सी से गठ्ठर बांधे जाने थे। आदमी के पास उसकी चुनौटी – जिसमें चूना और सुरती (कच्चा तम्बाकू) होता है – रखी थी। एक गरम कपड़ा भी था। शायद सवेरे सवेरे निकलने पर थोड़ी सर्दी से बचाव के लिये पहनता हो। पास में प्लास्टिक का मग भी था, जिसमें वे पानी लाये होंगे पुआल को गीला कर रस्सी बनाने के लिये नरम करने को।
मैंने यूंही बात करने के लिये पूछा – गठ्ठर कितने वजन का होता है?
“नाहीं बताई सकित जीजा। ओतना होथअ जेतना उठावा जाई सकई (नहीं बता सकता जीजा। उतना होता है, जितना उठाया जा सके)।” – उसने बताया। पता चला कि उसका नाम फुलौरी है। फुलौरी पाल।
इस गांव का मैं सार्वजनिक जीजा या फूफा हूं। आखिर गांव मेरी पत्नीजी का है! 😆
फसल इस साल बढ़िया है। खेतों में दिखता है कि सरसों, अरहर, गेंहूं – सब अच्छा ही हुआ है। किसान और अधियरा, दोनो ही प्रसन्न होने चाहियें। महिला, जो खलिहान लीप रही थी और मुझसे बात कर रही थी, उसके कथन में भी सामान्य प्रसन्नता ही थी, मायूसी नहीं।
धान, गेहूं और सरसों मुख्य फसलें हैं इस इलाके की। जोत छोटी है और जनसंख्या ज्यादा। बेचने के लिये बहुत सरप्लस नहीं होता है। अधियरा तो अपने उपभोग भर का ही पाता होगा। जमीन का मालिक शायद बेच पाता हो। धान और गेंहू तो नहीं, अरहर और सरसों मुझे खरीद कर ही लेने होते हैं। सरसों के खलिहानों से कोई बेचने वाला मिले और सरसों मिल सके तो मैं पचास साठ किलो लेना चाहूंगा। उससे तेल पेराई से साल भर की जरूरत पूरी हो सकेगी। वर्ना तो सलोनी ब्राण्ड कच्ची घानी के तेल के पाउच/बोतल ही खरीदे जाते हैं।

सरसों के खलिहान को ध्यान से देखने का मेरा मकसद वही है। और गांव में रहने पर यह परिवर्तन धीरे धीरे आया है। शायद कुछ समय में सरसों बेचने वाले किसान को भी तलाश लूं! 🙂
तेल इतना तो होना चाहिये कि गाँव की आवश्यकता पूरी हो सके तभी बाहर जाये बिकने के लिये। क्रास मूवमेन्ट कब तक होगा।
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