सवेरे घूम कर घर लौटा तो देखा वह बैठी थी। बुढ़िया है। लाठी टेकती आती है। पास के गांव पठखौली की है। उसे दिखता भी कम है और सुनाई तो लगभग पड़ता ही नहीं। इन दोनो कमियों की भरपाई वह अनवरत बोल कर करती है।

दो-तीन महीने में एक बार चली आती है। कुछ अनाज और पैसे की मांग करती है। उससे पूछना कठिन है – सुनती नहीं।
वह हर बार मेरी पत्नीजी को यह बताती है कि बचपन में उन्हें गोद में खिला रखा है। वह अपना हाथ उठा कर बताती है – “तूं हेतना बड़ क रहू, तब से खेलाये हई (तुम इतनी बड़ी थी, तब से खिलाया है)।”

पत्नीजी को उसकी कोई पुरानी स्मृति नहीं है। पर उसके कहे को वे सच मान लेती हैं। उसे कुछ न कुछ देती हैं। पर नन्हकी संतोषी जीव नहीं है। जो उसे मिलता है, उसे हमेशा कम बताती है। कुछ और या किसी और चीज की मांग करती है। जल्दी हिलती नहीं। हार कर उसे “कुछ और” दिया जाता है। कई बार फिर भी वह नहीं जाती तो उसकी उपेक्षा की जाती है। अंतत: चली जाती है। मांगने में जिस धैर्य और जिस पर्सिस्टेंस (persistence) की जरूरत होती है, वह उसमें है। नन्हकी एक कुशल मंन्गन (भीख मांगने वाली) है।

आज उसे होली की गुझिया दी। साथ में पच्चीस रुपये। घर में छोटे नोट खतम हो गये थे तो उसे चिल्लर में दिये। वे पैसे उसने ध्यान से गिने। एक रुपये और दो रुपये के सिक्के एक जैसे होते हैं। उन्हे ध्यान से देखना होता है। नन्हकी ने वह भी किया। यह स्पष्ट हुआ कि पैसे गिनना और जोड़ना उसे बखूबी आता है।
पैसे गिनने पर उसने असंतोष व्यक्त किया। अंतत: उसे दस रुपये और दिये गये। फिर उसने दाल की मांग की। उस मांग को अनसुना किया गया। बताया गया कि अभी दाल नहीं है। फिर कभी आना। यह उसने सुना नहीं। पर समझ आ गया कि आज जितना मिला है, उससे ज्यादा मिलने वाला नहीं।

उसके बारे में पता किया। घर बार है उसका। वह “राधे की माई” है। बच्चे हैं। कमाते हैं, वैसे ही जैसे गांवदेहात के और दलित कमाते हैं। घर की आर्थिक दशा खराब नहीं है। कमजोर है – पर उतनी जितनी औरों की है। पेंशन आदि पाती होगी। अभी उसका प्रधानमंत्री आवास योजना में आवास स्वीकृत हुआ है और मकान बन भी रहा है।
नन्हकी दबंग है। अपनी और औरों की समस्या ले कर तहसील, बैंक आदि जगह चली जाती है। किसी अधिकारी या पुलीस वाले से बात करने में उसे कोई हिचक नहीं। “दरोगा हमार का कई ले (पुलीस मेरा क्या कर लेगी?!)।” – ऐसा कहती है (लोगों ने बताया)।
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राजकुमार (मेरे घर में काम करने वाली कुसुम का पति) बताता है कि ‘नन्हकी मावा’ को मांगने की जरूरत नहीं है। वह मांगती इसलिये है कि मांगना उसकी आदत बन गयी है।
नन्हकी जैसे चरित्र गांवदेहात में (और शहरों में भी) बहुत हैं। भारत भिक्षा प्रधान देश है। मांगने और देने वाले अभी तो प्रचुर संख्या में हैं, बावजूद इसके कि सामाजिकता की कसौटियां बड़ी तेजी से बदल रही हैं।
जो धर्म कर्म शेष है, उससे नन्हकी जैसों की जिंदगी तो कट ही जायेगी।
ट्विटर पर टिप्पणी –
एक कुछ ऐसी ही वृद्ध महिला हमारे मुहल्ले के आस पास रहा करती थीं। पहले घर-घर भाजी बेचा करती थीं, लेकिन बाद में उनके बेटे-बहू आदि ने वह कारोबार पूरी तरह सम्भाल लिया था। फिर भी उनकी नजर बचा कर कभी कभी थोड़ी सब्जी लेकर बचने आ जाया करती थीं। फिर उनके परिवार वाले उन्हें खोजते आते थे और “आपको अब बेचने नहीं निकलना है” वगैरह डाँट पिलाते वापस ले जाते थे।
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शायद वह बेचती रहे तो ज्यादा अर्से तक जिये। आदमी को व्यस्त रहने के उपक्रम खोजने चाहियें!
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आपकी सज्जनता को कितने कोणों से उभारा जा सकता है और उसे मोनेटाइज किया जा सकता है, नन्हकी एक कोर्स चला सकती हैं।
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सज्जनता और मोनेटाइज?! विपरीत ध्रुव एक साथ! नई अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है।
आइडिया अच्छा है। 🙂
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