कन्हैयालाल और फेरीवालों का डेरा

सवेरे के छ बजे थे। उमस थी और मुझे अपने स्वास्थ्य के लिये 10-12 किलोमीटर साइकिल चलाना था। बिना समय गंवाये चाय का अंतिम घूंट पी कर ही घर से निकल लिया था। अन्यथा आधा पौना घण्टा देर से निकला करता था।

कटका पड़ाव पर एक चबूतरे पर बने छोटे से मंदिर के पास मुझे बहुत गतिविधि दिखी। वह जगह एक मैदान थी। एक पेड़ के नीचे चबूतरे पर मंदिर था और पीछे कुछ कमरे या दालान जैसी इमारत। ऐसा लगा कि वहां कल रात में कोई हाट बाजार लगा रहा हो और सवेरे दुकानदार अपना अपना सामान समेट कर जाने वाले हों। सवेरे साइकिल ले कर निकलने में मेरा पहला ध्येय होता है शरीर का व्यायाम। और दूसरा (ज्यादा महत्वपूर्ण) होता है अपने कौतूहल पर ध्यान देना और जिज्ञासा के शमन के लिये आऊट ऑफ द वे जा कर चीजों को ध्यान से देखना, लोगों से बोलना बतियाना, अपने नोट्स लेना। उसके लिये मैं वहां रुका।

कटका पड़ाव पर एक मंदिर के पास मुझे बहुत गतिविधि दिखी। ऐसा लगा कि वहां कल रात में कोई हाट बाजार लगा रहा हो

वहां जो पता चला वह कुछ अलग ही था। ये प्लास्टिक का सामान बेचने वाले फेरीवालों का डेरा था। सवेरे वे लोग नहा धो कर तैयार हो रहे थे। अपना अपना सामान अपनी साइकिल या मोटर साइकिल पर लाद रहे थे। कुछ लोग चयन कर रहे थे कि क्या क्या ले कर निकलना है। रंगबिरंगे खिलौने, प्लास्टिक की भऊकी/डलिया, टब, पीढ़ा, प्लेट, डस्टबिन आदि सामान वे अपने वाहन पर बांध रहे थे। कुछ नहा कर अपने बदन पोंछ रहे थे।

कुछ नहा कर अपने बदन पोंछ रहे थे। बीच में नीली लोअर ऊपर चढ़ाये हैं कन्हैयालाल।

उनसे मैंने बातचीत की। बहुत से लोगों ने मुझसे प्रणाम-नमस्कार किया। कुछ इस प्रकार से कि मानो मुझे जानते हों। यद्यपि वे मुझे जानते नहीं थे, ऐसा मेरा अनुमान है। एक ने बताया कि इस समय बाईस लोग हैं वे। सवेरे 6-7 बजे तक यहां से निकलते हैं। आसपास के इलाके में घर घर, दुकान दुकान जा कर सामान बेंचते हैं। शाम पांच छ बजे तक वापस इसी जगह पर लौट आते हैं।

वे सब कानपुर के पास एक ही क्षेत्र से हैं। सामुहिक रूप से रहते हैं। एक दूसरे के सुख दुख में साथ रहते हैं। शाम को उनका भोजन सामुहिक बनता है। उसके बाद आपस में बोल-बतकही होती है। कुछ मनोरंजन होता है। फिर जिसको जहां जगह मिले, वहां वह सो जाता है। अगले दिन फिर वही दिनचर्या!

इसी पोस्ट से

यह स्थान – शायद शिवालय – नेशनल हाईवे पर है। उन्होने बताया कि गोदाम, जहां से वे सामान उठाते हैं, पीछे की कटका-कछवाँ बाजार वाली सड़क पर है। एक ने कहा – “आप जा कर देखिये न! बहुत तरह तरह का सामान है वहां। बनारस में गोलगड्डा में मालिक है। वह सामान यहां भेजता है। हम लोग उसी से सामान ले कर बेचते हैं।”

बता कई लोग रहे थे मुझे, पर यह व्यक्ति, नाम बताया कन्हैयालाल; मुझे अधिकांश इनपुट्स दे रहा था। उसने बताया कि वे सब कानपुर के पास एक ही क्षेत्र से हैं। सामुहिक रूप से रहते हैं। एक दूसरे के सुख दुख में साथ रहते हैं। शाम को उनका भोजन सामुहिक बनता है। उसके बाद आपस में बोल-बतकही होती है। कुछ मनोरंजन होता है। फिर जिसको जहां जगह मिले, वहां वह सो जाता है। अगले दिन फिर वही दिनचर्या! “रात में आप आ कर देखिये, खूब बतकही होती है!”

कन्हैयालाल के हिसाब से दिन भर में फेरी लगा कर वे 2 से 5 सौ तक कमा लेते हैं। गुजारे लायक।

जो मुझे समझ आया, उनका सामुहिक रूप से रहना उनके लिये बहुत बड़ा प्लस प्वाइण्ट था। उनकी गांवदेहात की समझ मेरी अपेक्षा कहीं अधिक प्रोफाउण्ड (सघन) होगी। अभी तो वे सब काम पर निकलने की जल्दी में थे, पर शाम को कभी उनके साथ कुछ समय व्यतीत करना हो तो बहुत कुछ सीखने, समझने को मिले!

इन लोगों के पास गांवदेहात में बिकने वाला सस्ते, रीसाइकिल्ड प्लास्टिक का सामान होता है। जिसका दाम कम होता है और मोल-भाव की सम्भावना ज्यादा। मेरे ख्याल से ये सब बेचने और बार्गेन करने की विधा में पारंगत होंगे; या फिर दिन भर घूम घूम कर बेचना वह सिखा देता होगा। सामुहिकता में वह लर्निंग सहज ही आ जाती होगी।

कन्हैयालाल, फेरीवाला। ” मैंने कन्हैयालाल से एक पोज देने को कहा। वे अपना लोअर घुटनो तक चढ़ाये हुये थे। तुरंत लोअर को पूरा पैरों पर फैलाया और अटेंशन की मुद्रा में चित्र खिंचवाया।

मैंने कन्हैयालाल से एक पोज देने को कहा। वे अपना लोअर घुटनो तक चढ़ाये हुये थे। तुरंत लोअर को पूरा पैरों पर फैलाया और अटेंशन की मुद्रा में चित्र खिंचवाया। सवेरे की सैर की वापसी में आधा घण्टा बाद फिर वहां से गुजरा तो देखा कि कन्हैयालाल कमीज पहन कर अपनी मोटर साइकिल ले कर तैयार हो चुके थे। मोटर साइकिल किक स्टार्ट कर मेरे सामने पीछे वाली कटका-कछवाँ बाजार वाली सड़क की ओर निकल गये।

कन्हैयालाल कमीज पहन कर अपनी मोटर साइकिल ले कर तैयार हो चुके थे।

आते जाते मुझे प्लास्टिक का सामान साइकिल पर लादे बहुत से फेरीवाले दिखते हैं। बहुधा उनके चित्र भी साइकिल चलाते हुये खींच लेता हूं। पर वे इस प्रकार से एक ही समूह के हैं, यह नहीं मालुम था।

आते जाते मुझे प्लास्टिक का सामान साइकिल पर लादे बहुत से फेरीवाले दिखते हैं। उनके चित्र भी साइकिल चलाते हुये खींच लेता हूं।

फेरीवालों के प्रति जिज्ञासा हमेशा रही है। इस्माइल फेरीवाले और कड़े प्रसाद पर तो कई पोस्टें भी ब्लॉग पर है। मैंने अपने नोकिया वाले मोबाइल को खंगाला तो आधा दर्जन से ज्यादा, अलग अलग प्रकार के फेरीवाले उसमें दर्ज मिले – अनेक चित्र उनके। अब उनमें ये प्लास्टिक के फेरीवालों का डेरा भी शामिल हो गया है! :-D

शायद इन फेरीवालों के डेरा पर मेरा एक फेरा फिर लगे। शायद। सब निर्भर करता है कि सवेरे सैर के समय मेरा साथी (मेरी साइकिल) किस तरफ अपना हेण्डल मोड़ता है। यह अक्सर होता है कि मैं निकलता कहीं के लिये हूं और पहुंचता कहीं और हूं। बैठे ठाले आदमी की मनमौजियत है यह! :lol:


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

3 thoughts on “कन्हैयालाल और फेरीवालों का डेरा

  1. जीविका कहाँ से कहाँ ले जाती है। इन लघु नौकरियों को जीडीपी में स्थान मिले न मिले, नौकरी करने वालों को जीडीपी मिल गये।

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