एक चार बाई चार फुट का प्लाई बोर्ड खरीदा था महराजगंज मार्केट से। वह मेरी साबुनदानी जैसी छोटी कार में किसी भी तरह अंटा नहीं। झल्ला कर दुकान वाले को एक ठेला/सगड़ी वाले को बुलाने को कहा। उसके लिये गुक्खल आये। मैंने मोलभाव नहीं किया। पचास साठ पर सगड़ी वाले आया करते थे सामान ले कर; गुक्खल ने 100 मांगे तो उनकी उम्र देख कर वही मान लिया मैंने।
उम्रदराज थे गुक्खल पर बहुत तेजी से तीन किलोमीटर दूर मेरे घर पंहुच गये। शक्ल ध्यान से देख मुझे लगा कि ब्लॉग लेखन के लिये एक सही पात्र हैं। उन्हें पीने मे लिये मीठा-पानी दिया। मैंने देखा कि हमारी ग्लास से उन्होने अपनी सगड़ी के नीचे लटकाई थैली में से अपनी ग्लास और पानी की बोतल निकाल कर पहले हाथ मुंह धो कुल्ला किया। उसके बाद अपनी ग्लास धो उसी में पानी उंड़ेल कर पिया।

मिठाई खाते खाते बताये कि रैदासी सम्प्रदाय से हैं वे। दीक्षा लेने के लिये खुद और माता पिता को साथ ले कर सचखण्ड, पंजाब हो आये हैं। सम्प्रदाय के लोगों के सतसंग आसपास – इलाहाबाद, जौनपुर आदि जगहों पर होते रहते हैं तो वहां भी जाते हैं। जब तक माता पिता जिंदा थे, तब तक उन्हे साथ ले कर जाते थे। अब दोनो नहीं रहे तो अकेले जाते हैं।
“अपनी माँ को उठा कर गिरनार की 10099 सीढ़ियाँ चढ़ कर जूनागढ़ में हो आया हूं। माँ को सुदामापुरी द्वारका, बेट द्वारका आदि दिखा लाया था।” – गुक्खल अपनी यात्राओं के बारे में बताते हैं।
चार लड़के हैं गुक्खल के। “चारों एक से बढ़ कर एक कारीगर हैं। एक ढलाई (उपकरण की casting) करता है, दूसरा लेथ मशीन पर काम करता है – पुर्जे को सही शेप दे कर मशीन में फिट करता है। तीसरा सिलाई करता है। वह भी टॉप का कारीगर है। आजकल आया हुआ है। समधा में मेरी मामी से दो बिस्सा जमीन ले कर घर बनवा रहा है। चौथा नम्बर अरब में है। वह भी अच्छा कमाता है।”
मुझे आश्चर्य हुआ – “जब चारों बेटे अच्छा कमाते हैं तो तुम्हे सगड़ी चलाने की क्या जरूरत है?”
“हमसे घर में बैठा नहीं जाता न बाबू! इसलिये काम करते हैं। नहीं तो जरूरत थोड़े ही है।” – गुक्खल ने जवाब दिया।

एक और आश्चर्य की बात हुई यह। जहां पूरा समाज निठल्ले-निकम्मे लोगों से अंटा पड़ा है वहां यह उम्रदराज आदमी यह कहता है कि वह श्रम इसलिये करता है कि यूं ही बैठे नहीं रहा जाता उससे।
उसे 100 रुपये देने थे। मेरे पास 500 का नोट था। अपने वाहन चालक को मैंने कहा कि वह खुल्ला करा लाये। पर गुक्खल बोले कि खुल्ले उनके पास हैं। उन्होने अपने कोट और स्वेटर के नीचे कमीज की जेब में एक पॉलीथीन की तह लगाई पन्नी निकाली। उसका रबर बैण्ड खोला। उसमें तह लगा कर हजार डेढ़ हजार रुपये थे। मुझे उन्होने खुल्ले चार सौ दिये। चार सौ में दस का एक नोट बड़ा पुराना था, गंदा था। मैंने वह उन्हे वापस दे दिया – लो यह भी रख लो। इस तरह कुल 110 रुपये दिये गुक्खल को। उनकी रामकहानी सुन कर उन्हे देना अखरा नहीं।
यह मुझे बहुत अच्छा लगा कि गुक्खल इसलिये काम करते हैं कि उनसे बिना काम किये बैठा नहीं जाता!

बढ़िया रेखाचित्र ! फ़ोटो और लिखाई बढ़िया !
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हां, या तो कहें कि मुफ्तखोर नहीं हैं, गुक्खल इसलिये काम करते हैं कि उनसे बिना काम किये बैठा नहीं जाता! यह भी कह सकते हैं कि लोगों को कुछ—न—कुछ करते रहना, चैन से बैठना नहीं आता.. जब जरूरत नहीं है तब भी हाथ—पांव चलाते रहना। यह एक व्यक्ति की बेचैनी भी कही जा सकती है जिंदगी के प्रति। वैसे एक छोटे से इन्टरव्यू में सामने वाला जो कह—कर रहा है उससे, उसकी तमाम जिंदगी का अंदाजा ही लगाया जा सकता है, न कि हकीकत का। एक गंदा भिखारी भी हकीकत में वैसा नहीं होता जैसा कि वो हकीकतन भीतर—बाहर है? नहीं?
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सम्भव है. छोटी सी मुलाकात में जितना लगा वही पोस्ट में है. यह हो सकता है कि वास्तव में व्यक्ति अलग ही हो.
कई मामलों में पाया भी है.
पर उससे इस विचार पर की आदमी मूलतः अच्छे होते हैं, फर्क़ नहीं पड़ता.
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Sir karmsheelta ko naman h
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