कड़े प्रसाद आये थे। शाम हो गयी थी। सूर्यास्त का समय पांच बज कर पैंतीस मिनट का है। वे पौने छ बजे आये थे। “हम जानत रहे कि गणेश चौथ के मेम साहब के लड्डू चाहत होये। उहई लियाइ हई (मैं जानता था कि मेम साहब को गणेश चतुर्थी पूजन के लिये लड्डू चाहिये होगा। वही लाया था।) – कड़े प्रसाद कुशल फेरीवाला हैं। गंजे को कंघा बेचने की काबिलियत वाले। पर आज बहुत देरी से आ रहे थे। गणेश चौथ के लिये तो एक दिन पहले आना था। स्त्रियां ऐन पूजा के पहले तो सामग्री नहीं जुटातीं। आज तो पत्नीजी व्रत कर रही थीं गणेश चतुर्थी का। कुछ घण्टे बाद उसका पूजन करने वाली थीं।
कड़े प्रसाद से लड्डू तो नहीं लिया गया पर नमकीन ले लिया गया। अब गांव में मेरे घर तक दो किलोमीटर अपनी मॉपेड चला कर आये हैं तो उनकी फेरी का कुछ तो लिहाज करना होता है। पत्नीजी ने उन्हें सहेजा कि आगे से किसी भी त्यौहार पर एक दिन पहले आया करें।

मैं अपने पोर्टिको में झूले पर बैठा पोर्टिको के पेनोरॉमिक व्यू को रिकार्ड कर रहा था। वह पूरा कर कड़े प्रसाद से बात की। कड़े प्रसाद महत्वपूर्ण हैं मेरे लिये। वे आते हैं, यह किसी न किसी कोने में मन को अच्छा ही लगता है। गांवदेहात में ब्लॉग के लिये सामग्री उन्हीं जैसों से मिलती है। उनके लहजे, उनके किसी न किसी वाक्य से एक नया दृष्टिकोण सामने आता है।
तुलापुर में कड़े प्रसाद नमकीन मिठाई बना कर फेरी से बेचते हैं। उनके बड़े भाई माता प्रसाद हलवाई का काम कर चाय की अपनी दुकान पर चाय-नमकीन-मिठाई बेचते हैं। दोनो लगभग एक ही प्रॉडक्ट में डील करते हैं पर दोनो का बिजनेस मॉडल अलग अलग है। मेरे ख्याल से कड़े प्रसाद ज्यादा सफल हैं पर कड़े प्रसाद शायद भाई को ज्यादा सफल मानते हैं।

माता प्रसाद को दो बार हृदयाघात हो चुका है। अस्पताल में भर्ती रहे। काफी खर्चा भी हुआ। दोनो बार ठीक हो गये। इसलिये मैं हर बार माता प्रसाद का हाल चाल उनसे पूछ ही लेता हूं।
“हाल चाल ठीकइ बा सहेब।” कड़े ने बताया। और जोड़ा – आज तो देखा दो मुर्दा वाली पार्टी आयी थीं भईया के दुकान पर।
लोग मुर्दा घाट पर शवदाह कर वापसी में मरने वाले के परिवार की ओर से मिठाई-पूरी का नाश्ता करने के बाद घर लौटते हैं। माता प्रसाद की दुकान पर आज दो ऐसे दाहोपरांत के नाश्ता आयोजन हुये। एक एक पार्टी में तीस चालीस लोग लगा लिये जायें तो अच्छी खासी बिक्री! … किसी के लिये शव यात्रा विषाद का निमित्त तो किसी के लिये उत्सव! यह इलाका बाबा विश्वनाथ का यह एक्स्टेण्डेड प्रभाव क्षेत्र है। यहां मृत्यु भी उत्सव है! मुझे कड़े प्रसाद का प्रसन्नमन यह बताना अजीब भी लगा और रोचक भी।
कड़े प्रसाद ने और जोड़ा। दो पार्टी तो नाश्ता कर रही थींं; तीसरे मुर्दे को ले जाने वाले जाते समय ऑर्डर दे कर गये थे। “चौरी कईती क रहेन साहेब (चौरी की ओर के थे साहेब)।”
तीन तीन शव यात्रायें?! तुलापुर का रास्ता गंगा तट पर नहीं है। कोई मुर्दाघाट आसपास 7 किमी तक नहीं है। लोग ज्यादा कैसे मर रहे हैं? या एक दिन का एबरेशन है? कोरोना काल में आदमी टेढ़ा ही सोचता है। मैं भी अपनी वैसी सोच में लग गया। कड़े प्रसाद अपनी न्यूज दे कर चले गये।
मृत्यु के बाद पूरी-मिठाई भोज की प्रथा मैं जानता हूं। पर हर बार उसको सुन कर अजीब लगता है। विचित्र लगता है मानव स्वभाव। श्मशान वैराज्ञ श्मशान घाट की सीमा पार करते ही खत्म हो जाता है? या आदमी का स्वभाव है कि उस वैराज्ञ को चिमटी से उधेड़ने के लिये उसने इस सामुहिक परम्परा को अपना लिया है? यह तो मिठाई-पूरी का अनुष्ठान है। क्या पता कुछ वर्ग यह अनुष्ठान मधुशाला में बैठ कर करते हों! गम को गलत करने के लिये उसका महत्व तो सेकुलर शास्त्रों के अनुसार सर्वज्ञात है!
वैसे; श्मशान का वैराज्ञ लोगों को गहरे से भेदता हो, वैसा लगते देखा नहीं है। मुर्दा जल रहा होता है और आसपास बैठे लोग उस मृत व्यक्ति की प्रशंसा करने से शुरू कर बड़ी जल्दी खेती किसानी, व्यवसाय, राजनीति और मौसम की चर्चा पर उतर आते हैं। भरी देह का मुर्दा होता है – जिसे जलने में ज्यादा समय लगता हो तो उकताहट होने लगती है। मैं तो उससे अलग, चिता को उलट-पलट कर जलाते डोम या लकड़ी चईलहवा घाट लाने वाले आदमी से बातचीत करने में लग जाता हूं। मेरा ध्येय ब्लॉग के लिये सामग्री टटोलना होता है।
आजकल अकाल मृत्यु कम होने लगी हैं। समाज जिसे दीर्घायु मानता है – वह 80 से 90-95 साल की हो सकती है – होने पर यदाकदा लोगों को अबीर गुलाल लगाये ढोल बजाते मुर्दाघाट पर शव के साथ जाते भी देखा है। सो दाह संस्कार के बाद मिठाई-पूड़ी का अनुष्ठान पर बहुत आश्चर्य नहीं होना चाहिये। क्यों?
कड़े प्रसाद तो अपनी नमकीन बेच कर, हमेशा की तरह गेट बिना बंद करने की जहमत उठाये चले गये। पर मुझे जीवन-मृत्यु-श्मशान-वैराज्ञ-उत्सव और दीर्घायु आदि के मुद्दे सोचने के लिये थमा गये। मुझे लगता है, जैसे जैसे उम्र बढ़ेगी, वैसे वैसे एक हल्के से ट्रिगर पर सोच इन विषयों पर अनायास जाने लगेगी। वैसे वैसे ब्लॉग का चरित्र भी बदलेगा। और पढ़ने वाले लोग भी शायद उकताने लगें!
सुधीर खत्री फेसबुक पेज पर
ये एक प्रकार से सामाजिक कुरीति है
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शेखर व्यास फेसबुक पेज पर
नाम ही ’शमशान वैराग्य’ है । जो व्यापक संपर्कों के चलते किसी न किसी को पहुंचाने जाते ही रहते हैं उन्हें बहुत शीघ्र जीवन की निस्सारता का अनुभव हो जाता है ,तत्काल वर्तमान और कर्म जगत में लौट जाते हैं । यही वैराग्य है – कोई किसी का नही ,ये झूठे नाते हैं..(फिल्म उपकार) ।
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Sudhir Pandey ट्विटर पर –
Samshan se pitha pherate hi maya vapas pravesh kar jati manusha ki atma par. shayad is ko Samshan vairagya kaha gaya hai shastro mai.
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आलोक जोशी ट्विटर पर –
यही विधा यही नियति. कि सांसारिक यात्रा के पश्चात ध्यान मृत्यु की ओर जाता ही है..
यह भी किसी न्यूटन के सिद्धांत सरीखा है। रंज पर खुशी को भारी दर्शाने के लिए लड्डू पूड़ी का भोज रखा गया होगा।राजस्थान में तो मृत्योपरांत ‘कडुवे ग्रास’ (उडद की दाल और रोटी के लघु भोज का चलन है।
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