सवेरे के सवा सात बजे। सूर्योदय हो चुका है। कोहरा नहीं है, पर हल्का धुंध सा है। घर के सामने की सड़क के पूर्वी छोर पर महुआ के पेड़ों से झांकते सूरज दिख रहे हैं। एक आदमी सड़क पर आता दीख रहा है। सब कुछ इतना सुंदर और इतना शांत है कि मैं एक एक कदम आगे बढ़ाने लगता हूं। सवेरे का सूरज अपनी ओर खींच रहा है।

बीस पचीस कदम चलते ही कऊड़ा के आसपास बैठे लोग दिखते हैं। अभी काम पर लगने का समय नहीं हुआ है। या स्त्रियां काम कर रही हैं पर आदमी और बच्चे अलाव की गर्माहट ले रहे हैं अभी भी। ये लोग गांव की अर्थव्यवस्था में सबसे कमजोर पायदान पर नहीं हैं। इनके पास खेती की जमीनें नहीं हैं, पर घर बनाने के लिये जरूर जगह है। एक एक दो दो कमरे के घर हैंं; साथ में मड़ई या टप्पर है जिसमें बकरियां, मुर्गियां, गायें भैंसें रहती हैं। ज्यादातर के पास बकरियां हैं। सर्दी से बचाने के लिये उनपर पुराना कपड़ा या टाट का बोरा डाला हुआ है। एक नांद या तसले में भूसा-पुआल बारीक काट कर डाला है जिसे बकरियां खा रही हैं।
अलाव तापते लोग और कलेवा करती बकरियां मुझे बाध्य करती हैं कि चित्र खींचा जाये।


एक महिला तसले में कबार (पुआल के बारीक टुकड़े) ले कर आती है। साथ में बकरियां और बकरियों के बच्चे हैं। उनपर कपड़े नहीं बंधे हैं। बच्चे उछल कूद करते हैं। शायद कमरे में बंद रहे होंगे, अब छूटे हैं तो इधर उधर भाग रहे हैं। बड़ी बकरियां खाने में जुट जाती हैं पर बच्चे धीरे धीरे, उछल कूद से निपट कर तसले की ओर मुंह करते हैं। तसले में भोजन के साथ नीचे कुछ घास भी है। भोजन के साथ स्वीट-डिश भी। 🙂

खेतिहर लोगों के लिये बकरियां हेज फण्ड हैं। साल भर में एक दो बेच कर पैसे आते हैं और आगे के लिये नई पीढ़ी भी तैयार हो जाती है। इन लोगों का मुख्य काम बंटाई पर खेती करना, कालीन बुनना, छोटी मोटी दुकान चलाना या मजदूरी करना है। कुछ ऐब होंगे; विशेषकर पुरुषों में; पर अधिकांशत लोग मेहनती हैं। मेहनती और व्यक्तिगत-जातिगत गर्व से भरे हुये लोग। आपसी मारपीट, गाली गलौज चलती है, पर एका भी जबरदस्त है।
इनके पास मुर्गियां हैं, एक दो के पास शौकिया तोते के पिंजरे हैं और कुछ खरगोश और बतख भी पालते हैं। तोता तो मात्र मनोरंजन का साधन है, बाकी सभी उनके भोजन में आवश्यक पौष्टिकता प्रदान करने के लिये होंगे। सड़क किनारे मुझे एक मुर्गी अपने चूजों के साथ कचरे को कुरेदती भोजन तलाशती नजर आती है।

मेरे घर के पास सवर्णों की बस्ती नहीं है। मैं पासी और बिंद लोगों के बीच रहता हूं। पासी शेड्यूल कास्ट में आते हैं पर वे भी अपनी जातिगत मजबूती रखते हैं। बिंद लोग अन्य बैकवर्ड जाति में आते हैं। ये दोनो जातियां मेहनत कर रही हैं और जमीनें खरीद रही हैं। बेचने के लिये सवर्ण लोग हैं। जातिगत सम्पन्नता और रसूख के समीकरण बदल रहे हैं। … पर असल बदलाव मोबाइल और इण्टरनेट तथा गांव के रूरल से अर्बन में छलांग मारने से आने वाला है। उसके कुछ संकेत दिखते हैं।
पचास कदम आगे और पचास कदम घर लौटने के चलता हूं। पर उसमें दृश्य और विचार इतने मिलते-उठते हैं मानो एक बड़ी सैर कर लौटा होऊँ। सवेरे मौसम साफ होने और धूप निकलने का कमाल है यह।

सौ पग, सौ कहानियाँ
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अहा ग्राम्य जीवन ! क्या ऐसा कहा जा सकता है?
किसी कवि के काल्पनिक व उत्साही वचन और एक ब्लॉगर की डायरी में कुछ तो अंतर होगा।
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ब्लॉगर की डायरी की बात कही तो नए प्रकार से सोचना होगा. 🤔
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सौ कदम में सौ चित्र – यही तो मानसिक हलचल है।
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ऊंगली भी चलती है मोबाइल कैमरे के बटन 🔳 पर और मन भी! 😊
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सौ कदम में सौ चित्र – यही तो मानसिक हलचल है।
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विचारोत्तेजक सौ कदम 🙏🏻
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