ईंटवाँ गंगा घाट पर नित्य स्नान करने वाला लालचंद

लालचंद। उम्र सत्तर साल। “चालीस पचास बरिस से गंगा स्नान करत हई (40-50 साल से नित्य गंगा स्नान कर रहा हूं)।” – वह कहता है। ईंटवाँ का घाट बहुत गहरा है। करार के समतल से करीब चार मंजिला मकान जितने नीचे हैं गंगाजी। घुमावदार कच्चा रास्ता, एक खोह की बगल से निकलता हुआ। लोगों ने अपनी सुविधा के लिये सीढ़ियां सी बना ली हैं मिट्टी खोद कर; पर निरंतर प्रयोग करने से सीढ़ियां फिर रैम्प जैसी हो जाती हैं। घुटनों में तकलीफ वाले को नीचे उतरना कष्टप्रद होता है और उम्रदराज के लिये वापसी में ऊंचाई चढ़ना।

लालचंद के साथ दोनो तकलीफें हैं। फिर भी वह नित्य गंगा स्नान करता है। मैं गंगा के जल तक नहीं उतरता। बीच में खड़ा हो कर लोगों को नहाते देखता हूं। नंगे बच्चे, गमछा पहने पुरुष और साड़ी पहने महिलायें। करीब दो दर्जन लोग नहा रहे हैं। सब आनंद और आल्हाद से भरे आवाजें कर रहे हैं। ईंटवाँ घाट अच्छा है – सिवाय उसके काफी गहरा होने के। … नहाने के बाद लालचंद लाठी के सहारे चढ़ाई चढ़ता लौटता दीखता है। मेहनत लगती है ऊंचाई चढ़ने में। वह हरे राम, हरे कृष्ण कहता चढ़ता आ रहा है, मानो यह कहने से ऊर्जा मिलती हो।

नहाने के बाद लालचंद लाठी के सहारे चढ़ाई चढ़ता लौटता दीखता है।

वह एक तौलिया पहने है। हाथ में कचारा हुआ कपड़ा और कांधे पर लुंगी। घर से एक लाठी और तौलिया भर ले कर आता होगा गंगा स्नान के लिये। बाकी, नहाने-सुखाने और कपड़ा कचारने का काम तो गंगा किनारे होता है। उसके पैरों में चप्पल भी नहीं है। इसी गांव – ईंटवाँ का निवासी है तो थोड़ी दूर आने जाने के लिये चप्पल की भी क्या जरूरत? मेरे सामने से वह चलता चला जाता है। कराह वाली आवाज में हरे राम कहता हुआ। थोड़ा आगे चल कर वह कांधे पर रखी लुंगी खोल कर अपने सिर पर कर लेता है। सूरज की गर्मी से भी बचत होती है और लुंगी सूखती भी है। आगे घर पंहुचते पंहुचते लुंगी शायद सूख जाये और शायद वह पहन भी ले।… क्या गजब मिनिमलिस्ट जीवन है।

मैं तेज कदम चलता हुआ उसके बगल में आ कर उससे बातचीत करने की चेष्ठा करता हूं। वह अपना नाम और उम्र बताता है। चालीस पचास साल से गंगा स्नान की बात करता है। उसकी पत्नी तीज त्यौहार या किसी खास मौके पर ही आती है नहाने। “उतरने चढ़ने में तकलीफ होती है।” पर वह अपने घुटने की तकलीफ के बावजूद रोज आता है।

जवानी में वह दो तीन साल पंजाब (?) नौकरी किया। कागज बनाने वाली कम्पनी में। वहां सब तरह का कागज बनता था – सिवाय नोट और फोटो छापने के कागज के। वह बार बार नाम पंजाब का लेता है पर बताता है कि जगह सहारनपुर थी। उसके बाद कुछ-कुछ महीने वह ग्वालियर, अहमदाबाद, बम्बई, पूना आदि जगहों पर भी नौकरी किया। बाहर रहना जमा नहीं तो वापस आ कर चालीस साल कालीन बुनने का काम किया। महीन से महीन और मोटा से मोटा कालीन बुना। जब शुरू किया था, तब दस रुपया रोज मिलता था। “अब तो चार सौ रुपया मिलता है”। बहुत अंतर आ गया है। काम में भी और काम की मजदूरी में भी।

लालचंद, गांव ईंटवाँ

एक लड़की थी लालचंद की। शादी हो गयी है। अब वह और उसकी पत्नी भर हैं। “जिंदगी कट रही है” – वह कहता है और आगे चल देता है। फिर कुछ चल कर रुक कर बताता है – एक गैया रही, तब दूध की तकलीफ नहीं थी। अब दूध तो नहीं मिलता पर आधा बीघा खेती है सो खाने की तकलीफ नहीं है। दो लोगों का गुजारा हो जाता है।

सत्तर की उम्र, पति पत्नी। पहनने को एक बनियान और लुंगी। खाने के लिये दस बिस्सा खेती। आस्था के लिये घर के बगल में गंगा माई। और क्या चाहिये जीने के लिये? … मैं लालचंद के जीवन के ‘संतोष और सुख’ को नापने का प्रयास करता हूं। पर क्या होगा? लालचंद जैसा निश्चिंत जीवन जी पाना क्या मेरे लिये सम्भव होगा?

सुख और प्रसन्नता के पोथे पढ़ने की कवायद मैं करता हूं। दीर्घजीवन के सूत्रों पर कई किताबें कई बार खरीदी और पढ़ी हैं। पर शायद असल सूत्र तो गंगा किनारे, निरुद्द्येश्य घूमने और लालचंद जैसे लोगों को देखने, बोलने बतियाने में ही मिलेंगे। वही करो जीडी तुम।

आज घूमते हुये देर हो गयी है। नौ बजे तक घर पंहुच जाया करता था। दस बजने को हैं। धूप तेज हो गयी है। बोतल का पानी भी खत्म हो गया है। पत्नीजी फोन पर जल्दी घर लौटने को कह रही हैं। मैं साइकिल तेज चलाता हूं घर लौटने को। पर मन में लालचंद का गंगास्नान वाला जीवन घूमता है!

जय हो गंगा माई!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

2 thoughts on “ईंटवाँ गंगा घाट पर नित्य स्नान करने वाला लालचंद

    1. विपन्नता आदत में भी आ जाती है. कभी कभी देखता हूं कि लोग चप्पल होने पर भी नंगे पैर चल लेते हैं दूर तक… 😒

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