तेज चाल में करीब आधा दर्जन टट्टू चले जा रहे थे। आगे वाले पर एक जवान बैठा था। पीछे एक पर एक बच्चा, जो तेज चाल पर अपने को बड़ी कठिनाई से साध रहा था। टट्टू का एक छोटा बच्चा भी साथ चल रहा था। टट्टू की इस टीम के साथ साइकिल पर एक आदमी पीछे कैरियर पर सामान लादे चल रहा था। पहले लगा कि साइकिल वाल इस टीम का नहीं है, पर जब वह टट्टू-टीम के साथ ही रहा तो साफ हो गया कि वह इसी टट्टू-यात्रा का हिस्सा है।

मैंने उनके पीछे अपनी साइकिल चलाते हुये पीछे से और फिर उनसे आगे बढ़ कर सूरज की सवेरे की रोशनी का लाभ लेते हुये आगे से चित्र खींचे। चित्र खींचने के अलावा साइकिल सवार से उसकी बगल में साइकिल चलाते हुये बातचीत की।
टट्टू माधोसिंह के किसी ईंट भट्ठे पर ईंटे ढोने का काम करते थे। अब मानसून आने को है तो भट्ठा बंद हो रहा है। उनका काम नहीं रहा तो वे अपने घर जा रहे हैं। बनारस में लोहता में उनका घर है।
बस इतनी सी सूचना उस व्यक्ति ने मुझे दी। क्या यह पर्याप्त है एक ब्लॉग पोस्ट लिखने के लिये? मेरे पास और कुछ लिखने कहने को भी नहीं है तो इसी पर ही हाथ मांजता हूं।

टट्टू अपने आप में अजीब सी चीज है। टट्टू, टट्टू को जन्म नहीं दे सकता। वह एक गधे और घोड़ी की पैदाइश है। प्रकृति जब ऊटपटांग काम करती है तो टट्टू जैसा जीव पैदा होता है। और यह आदमी है जो टट्टू को अपने काम लायक पाता है, इसलिये प्रकृति को सतत बाध्य करता है टट्टू उपजाने के लिये। लोहता के ये लोग अपनी टट्टू की जरूरतों के लिये टट्टू प्रजनन कराने वाले की सहायता लेते होंगे। या, यह भी हो सकता है कि वे खुद ही यह धंधा भी करते हों।
और उलट प्रजनन – गधी और घोड़े के संसर्ग से क्या टट्टू नहीं उपजता? होता होगा। उसके लिये अंग्रेजी नाम है हिन्नी – hinny. टट्टू के लिये तो शब्द है म्यूल – mule. यहां सामान ढोने या पहाड़ों पर लोगों को सवारी कराने के लिये शायद म्यूल का ही प्रयोग होता है, हिन्नी का नहीं। यह और इससे मिलते जुलते और सवाल मैं उस व्यक्ति से करता अगर वह रुकता। वह तो चलता चला गया।

लोग सामान ढोने के लिये टट्टू की बजाय सीधे सादे गधे का प्रयोग क्यों नहीं करते? शायद टट्टू आकार में बड़ा होता है, ज्यादा सामान ढोता है और गधे की अपेक्षा ज्यादा तेज चल सकता है। वह गधे जैसा सीधा भी होता है। उसमें गधे और घोड़े – दोनो के बोझा ढोने के लिये उपयुक्त गुण होते हैं। मैंने बैल या गधे को अड़ते देखा है जो काम करने से मना कर देते हैं। चाहे जितना उन्हें खोदा या मारा जाये। पर जाने क्यों उनकी बजाय टट्टू के नाम के साथ अड़ियल विशेषण चिपक गया है। अड़ियल टट्टू शब्द द्वय का प्रयोग बहुधा होते देखा है। और वह टट्टू को ले कर कम, आदमी को ले कर ज्यादा किये जाते देखा है। … टट्टू वास्तव में बहुत काम का जीव है अन्यथा कोई उनको उत्पन्न करने के लिये कृतिम संसर्ग को क्यों बढ़ावा देता?
तेज रफ्तार से टट्टू का काफिला चलता चला गया। स्पीड करीब 15-20 किमी प्रति घण्टा की रही होगी। उसे पीछे से देखते यह मन में आया कि भारत भ्रमण के लिये एक या दो टट्टू ले कर सवारी करते हुये चलना भी एक मोड ऑफ ट्रांसपोर्ट हो सकता है। भारत के मैदानी ही नहीं, पठारी या पहाड़ी इलाके में भी उसकी सवारी मजे से की जा सकती है। पढ़ा भी है कि ह्वेनत्सांग और फाहियान अपने साथ बीस खच्चरों पर पुस्तकें लाद कर लम्बी भारत यात्रा किये थे। अब आधुनिक काल में पुस्तकें तो क्लाउड या किण्डल में समेटी जा सकती हैं, पर यात्रा के लिये – वह भी पूरा गहन अनुभव लेते हुये – टट्टू की सवारी बहुत सही रहेगी। दुर्घटना की आशंका भी कम।

“टट्टू पर भारत दर्शन” – क्या शानदार किताब बनेगी अगर उसपर यात्रा की जाये! एक सहयात्री, दो टट्टू और एक फोल्डिंग टेण्ट ले कर निकला जाये। एक दिन में तीस-चालीस किलोमीटर के आसपास चलते हुये साल भर में भ्रमण सम्पन्न किया जाये! 🙂
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सुरेश शुक्ल, फेसबुक पेज पर –
खाली दिमाग की उपज रोचक है।
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