गांव का लेवल क्रॉसिंग बंद था। एक सवारी गाड़ी गुजर रही थी। उसके गुजरने और क्रॉसिंग गेट खुलने के इंतजार में हम भी थे और बगल में मोटर साइकिल पर सवार एक अधेड़ महिला भी। मोटर साइकिल नौजवान चला रहा था। बीच में एक बच्चा सैण्डविच था और पीछे अधेड़ महिला हाथ में प्लास्टिक की पन्नी में लिपटा एक पीतल का हण्डा लिये थी।
मेरी पत्नीजी ने कहा – शायद ये किसी शादी के समारोह में जा रहे हैं। पीतल का गगरा उसी में दिये जाने का चलन है।
गगरा/हण्डा बड़ा था। शानदार। उसपर फूल-पत्ती का स्टिकर या पेण्ट किया गया चित्र था। एक चित्र में डोली लिये जाते कंहार बने थे। और उसपर कैप्शन लिखा था – सजनी चली ससुराल। नया हण्डा शादी के उपहार के हिसाब से ही बना था।
मैंने पूछा – कितने का होगा?
पत्नीजी का उत्तर था – चार हजार से कम नहीं होगा।
“चार हजार?! इतने में तो साइकिल आ जाये।”

अपनी अपनी वासना। किसी को हण्डा प्रिय है; किसी को साइकिल। पर पत्नीजी ने मुझे टॉण्ट किया – “कौन से जमाने में रहते हो? आजकल कोई किसी को साइकिल उपहार में नहीं देता। गया गुजरा भी हो तो साइकिल नहीं मोटर साइकिल ही चलती है शादी-ब्याह में। उसकी औकात न हो तो गिफ्ट में फ्रिज, टीवी या वाशिंग मशीन दी जाती है। साइकिल पर चलना तौहीन है।”
मेरे वाहन चालक, गुलाब ने कार की खिड़की का शीशा नीचे गिरा कर महिला से पूछ ही लिया – “चाची, केतने क हौ हण्डा?”
ट्रेन गुजर चुकी थी। गेट खुल गया था। मोटर साइकिल आगे बढ़ते बढ़ते चाची ने जवाब दिया – हण्डा और खोरा (कटोरा) पांच हजार का।
चार पांच हजार का हण्डा केवल शादी के प्रतीक भर में से है। मैंने किसी को उसमें जल रखते नहीं देखा। जल रखा जाये तो उसे साफ करने में काफी मशक्कत करनी पड़े। दूर कुयें से पानी लाने की प्रथा या जरूरत भी उत्तरोत्तर खत्म होती गयी है। सिर पर गागर लिये चलती पनिहारिनें अब चित्रों में ही दीखती हैं। लोग हैण्डपम्प से पानी प्लास्टिक की बाल्टी में ही ले कर आते-जाते दीखते हैं। … चार दशक पहले मेरी शादी में आये हण्डे किसी बड़े ट्रंक में बंद पड़े होंगे।
जमाना बदल गया। और आगे भी बदलेगा तेजी से। हण्डा भी अप्रासंगिक हो गया है और आगे और होगा। कोई अब हण्डे में जल नहीं रखता, प्लास्टिक के गगरे चल पड़े हैं। अशर्फियां हण्डे में डाल कर कोई घर में गाड़ता भी नहीं। अब सारा धन जनधन खाते में रहता है।
पर शादी की रस्मों में हण्डा रहेगा। वह ही नहीं – हल, मूसल, चकरी, जांत, सुग्गा, कलसा सब रहेंगे। शादी के बाद भले ही दुलही फूलों से सजी कार में विदा हो, हण्डे पर चित्र पालकी-कंहार और उसपर कैप्शन ‘सजनी चली ससुराल’ वाले ही होंगे। भारत बदलता है पर फिर भी अपने नोस्टॉल्जिया में जीना जानता है।
हण्डा अभी पांच हजार का है। जब पचीस हजार का हो जायेगा; तब भी कोई चाची अपनी भतीजी के शादी के लिये खरीद कर ले जाती दिखेंगी हण्डा!
अश्विन पंड्या, फेसबुक पेज पर –
रीति-रिवाजों से बाहर निकलना पढे लिखे समृद्ध लोगोको भी मुश्किल है, गांव देहातियोंका तो जीवन ही रीति-रिवाज है।
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चेतन विश्वकर्मा फेसबुक पेज पर –
चावल, अनाज भी रखते हैं लोग
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शेखर व्यास फेसबुक पेज पर –
यही भारत है ….अर्वाचीन और नवीन जल धारा मिल कर किसी नदी का समेकित प्रवाह हो जैसे । सतह पर सतत गतिमान ….तीव्र…किंतु तल में गंभीर ,धीर । दोनो मिलकर भी एक ही लक्ष्य जीवन अपनी परंपरा , सुंदरता और माधुर्य के साथ गतिमान रहे ।
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सतीश पंचम फेसबुक पेज पर –
अब तो शादी विवाह में असली हल की जगह मार्केट से लकड़ी के बने खिलौने टाईप हल को रखकर काम चलाया जाता है।
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