विस्थापित – न घर के न घाट के

बाबूसराय साइकिल से जाते समय उनकी झोपड़ियां दिखती हैं। सड़क किनारे आमने सामने बनी। तीन कमरे एक ओर और तीन उसके सामने की ओर। बीच में कटरा जैसा खाली स्थान। वहां सवेरे बच्चे कुछ बासी भात खा रहे होते हैं। चूल्हे पर कुछ बन रहा होता है। और भी जो कुछ वहां दीखता है, उसमें गरीबी झलकती है।

बाबूसराय साइकिल से जाते समय उनकी झोपड़ियां दिखती हैं। सड़क किनारे आमने सामने बनी।

साइकिल पर चलते चलते उसका चित्र लेना सम्भव नहीं होता। मैंने एक दो बार अपने फीचर फोन से कोशिश की। पर वह जगह इतनी छोटी है कि फोन क्लिक करने भर में साइकिल आगे पीछे हो जाती। आज मैंने रुक कर चित्र लिया। और जैसा सोचा था; वहां लोग आशंकित लगे चित्र खींचने पर। एक बच्चा पास आया। उसने बताया कि वहां पांच छ नहीं, तीन परिवार ही रहते हैं। उनके पास कोई जमीन नहीं है। मजदूरी करते हैं। कोई भी काम मिल जाये करते हैं। उनका यहां गांव भी नहीं है। सरकार ने घर दिया है।

सरकार तो पक्का मकान देती है? यह तो झोंपड़ी है?

वह बच्चा मेरा जवाब नहीं दे पाता। वह आशंकित भी है कि क्या बोले क्या न बोले। एक महिला पास आती है। उसी परिवार से है। वह बताती है कि वे लोग बिहार के हैं। उसके श्वसुर की भौजाई बिहार से यहां ले कर आयी थी कि चलो, वहां नेवासा पर जमीन है। वहां रहेंगे और खेती किसानी भी करेंगे। पर उसने धोखा दिया। बिहार जाने को भी कुछ आसरा नहीं और यहां रहने का भी कोई ठिकाना नहीं। काफी समय हुआ उस बात को। उसके श्वसुर भी गुजर गये हैं। वे तीन भाई हैं। मजदूरी करते हैं। बटाई पर खेत मिल जाये तो किसानी भी कर लेते हैं। यहां सड़क किनारे झोंपड़ी बना कर रह रहे हैं। सड़क वाले हमेशा कहते हैं खाली करो। सड़क आगे बढ़ी तो उन्हें हटना ही होगा।

दो पीढ़ी यहां विस्थापित रहते हो गयी हैं। पता नहीं उनके पास कोई आधार कार्ड है या नहीं। समाज के अंतिम छोर पर जीते मुसहरों को तो सरकार ने घर बनाने की जमीन दे दी है। उनके पास आधार कार्ड भी है और रिहायशी हक भी। इन विस्थापितों के पास कुछ है? उनकी झोंपड़ियों पार दो डिश एण्टीना दिखते हैं। टीवी तो होगा मनोरंजन के लिये। शायद मोबाइल फोन भी हों। झोंपड़ी की दीवारें और बीच की जगह तो अच्छे से लीपी हुई है। सफाई का बेसिक सेंस तो उनमें लगता है।

मुझे घर लौटना है। अभी चार पांच किलोमीटर और साइकिल चलाऊंगा तो घर पंहुचूंगा। सवाल मन में बहुत हैं। फिर कभी आऊंगा और उनसे पूछूंगा। वहां छोटे बच्चे कई हैं। एक पैकेट टॉफी का ले कर वहां जाया जा सकता है जिससे बातचीत का कोई आधार बन सके।

उनकी भाषा में बिहारी पुट है। खड़ी बोली बोल-समझ लेती है वह महिला। किसी भी कोण से वे बांगलादेशी या रोहिंग्या नहीं लगते। उसकी बात पर यकीन न करने का कोई कारण नहीं है।

अपने गांव के चमरऊट को मैं गरीब समझता था। पर इनकी दशा तो उनसे कहीं नीचे की है। उनके पास तो घर की जमीन है। सरकार से मिली बिजली, चांपाकल, सड़क और वोट बैंक की ठसक है। इन विस्थापितों के पास वह सब है? शायद नहीं।

सवेरे की सैर से किसी किसी दिन गुनगुनाता लौटता हूं। किसी दिन सवाल ही सवाल ले कर आता हूं। आज सवालों का दिन था।


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

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