पहले के खाने के बारे में बताती है। दो जून खाना तो बनता ही नहीं था। मटर की दाल के साथ महुआ उबालते थे। वही खाते थे। मौसम में 2-2 बोरा महुआ बीन कर इकठ्ठा किया जाता था। उसी से काम चलता था।
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चकरी तैयार कर गया शारदा परसाद
इस तरह हमारी चकरी, सात साल बाद फिर से तैयार हो गयी। अब दाल दलने के लिये गांव में औरों से मांगनी नहीं पड़ेगी। इसके उलट आस पास के लोग गाहे बगाहे मांगने आते रहेंगे और हमें ध्यान रखना होगा कि कौन ले कर गया।
सामुदायिक शौचालय – शोचालय
अभी तक तो पांच साल में कोई विधायक या सांसद मुझे दिखा नहीं (आम आदमी के पास आने की उनको क्या जरूरत?!) पर अब शायद नजर आयें। पूछने का मन है कि सामुदायिक शौचालयों के सफेद हाथी बने पर एक भी दिन चले नहीं, क्यों?
