मेरे मित्र के पिताजी अकेले आज़मगढ़ में रहते थे. मित्र के साथ रहने को तैयार नहीं थे. वृद्धावस्था की समस्यायें थीं और बढ़ती जा रही थीं. मां के देहावसान के बाद का एकाकीपन झेलते; पर बिना बोले अपना जीवन के प्रति नकारात्मक रुख पुख्ता करते; पिताजी को कैसे अपने पास लाने को राजी करें – यह मित्रवर को समझ में नहीं आ रहा था. दुविधा की स्थिति से परेशान अंतत: उन्होने पिताजी से दो-टूक बात करने को आजमगढ़ का रुख किया. पिताजी टस से मस न हुये.
बेचारे मायूस होकर पिताजी के अंतरंग मित्र के पास सहायतार्थ गये. शायद वही उनको (जिन्हें उनकी खुद्दारी और दबंगपने के कारण मित्र पिताजी नहीं वरन “सुप्रीमो” कहना ज्यादा उपयुक्त समझते हैं) समझा बुझा सकें. पिताजी के अंतरंग मित्र ने मेरे मित्र की बात पूरी सहानुभूति से सुनी. वे भी चाहते थे कि सुप्रीमो मित्र के साथ जा कर रहें. बोले – “देखो, मैं कोशिश करता हूं. पर उससे पहले मेरी एक बात का जवाब दोगे?”
मित्र ने कहा – पूछें.
“बताओ, कहा जाता है – बापका घर समझ रख्खा है क्या? कभी सुना है यह किसी को कहते कि बेटे का घर समझ रख्खा है क्या?“
मित्र महोदय चुप रहे. पर मनन किया तो समझ में आ गया. पिता का घर बेटे के लिये हर प्रकार से खुला होता है. चाहे जैसे इस्तेमाल करे. हर चीज पर पूरा हक लगता है लड़के को. पर वही बात पिता को लड़के के घर में नहीं लग सकती. कितना भी उन्हें सहज रखने का यत्न किया जाये, कहीं न कहीं अपना स्वामित्व न होना महसूस हो ही जाता है. बहू के साथ, बेटे के साथ “उनके घर में रहने की बात” माता-पिता सहजता से ले ही नहीं पाते. कम से कम भारत में तो ऐसा ही है.
खैर, मित्र के पिताजी के अंतरंग सुप्रीमो को समझा पाने में सफल रहे. अब मित्र के पिताजी उनके साथ रहने आ गये हैं. समस्यायें हैं. बार-बार आज़मगढ़ जाने की रट लगाते हैं. थोड़ी सी भी कमी उन्हे अपनी उपेक्षा लगने लगती है. किसी तर्क को स्वीकार करने को तत्पर नहीं होते. फिर भी पहले की तरह मित्र को चिंता और अपराधबोध अब नहीं है.
पर मित्र को समझ में आ गया है – बाप का घर, अपना घर और बेटे के घर में अंतर.
मित्र ने जब यह प्रसंग मुझे बताया तो मुझे भी समझ में आ गया कि मेरे बाबा शहर से गांव वापस जाने की बार-बार रट क्यों लगाते थे. या मेरी पत्नी की नानी ने मरणासन्न होने पर भी उन्हें अपने गांव के घर मे ले चलने की जिद क्यों की. और वहां पहुंचते ही 2 घण्टे में शांति से क्यों चिरनिद्रा में सोईं.
चलते-चलते: शिवकुमार मिश्र ने कल मुझे एक नया शब्द दिया. उनकी मण्डली में अगर कोई बहुत बढ़िया काम करता है तो वे कहते हैं – आज तो फ़ोड़ दिया. शिव का नया शब्द देने का ध्येय होता है कि मैं उसपर एक पोस्ट ठेलने का यत्न करूं. यह लासा मैं समझ गया हूं.
पर कल उन्होने अपनी जिस पोस्ट का ड्राफ्ट मुझे दिखाया है – “नारे ने काम किया, देश महानता की राह पर अग्रसर है।” उसे देख कर मुझे लगता है कि आज तो वे स्वयम फोड़ने वाले हैं! बशर्ते कि वे अपने आलस्य पर काबू पा कर आज अपनी पोस्ट पब्लिश कर पायें!

न जाने कितने लोगों की नाजुक नस पर हाथ रख दिया है आपने । हमारे यहां फिलहाल ऐसा नहीं है । नौकरी की वजह से पिताजी ज्यादा रह नहीं पाते । वैसे उन्हें मुंबई सख्त नापसंद है । म्यूचुअल अंडरस्टैंडिंग का क्रैश कोर्स शुरू करना होगा इस स्थिति से निपटने के लिए ।
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सत्य वचन.. अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्ध में अन्तर होता है.. मैंने भी अनुभव किया है इसे पिछले दिनों.. गुरुजनों का यह व्यवहार बड़ा विचित्र मालूम देता है.. उपरोक्त समझ के अभाव में..
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ज्ञानजी पुराना ज्ञान ठेल रहे हैं। बाप के घर नहीं होते, बापों के घर होते हैं। समझदारों के एक नहीं, कई बाप होते हैं। हर मौके-मुकाम के लिए नये बाप। समझदार मौका देखकर हर गधे को बाप बनाता है और भी समझदार अपने बाप को गधा मानने को तैयार होता है, अगर बापजी जीते जी ही सारी रकम दे चुके हों, तो।मैं तो यूं पूछता हूं-और आजकल आपके उन वाले बाप के क्या हाल हैं। वो बताते हैं-जी अब उन्हे बाप की पोस्ट से रिटायर कर दिया है। आजकल नये बाप ये हैं। आउटडेटेड न ठेलिये, कुछ नये बापों के बारे में बताइए ना।
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सर धन्यवाद, यह अनुभूति है स्मृतियां ताजी हो गयी आपके पिता आपके साथ रहते हैं यह पढकर पहले भी हमें अच्छा लगता था क्योंकि गांव में रहने वालों के पिता आज के पोस्ट के सुप्रीमो ही होते हैं मुझे यह सौभाग्य मेरे पिता के अंतिम समय में ही मिल पाया था ।धन्यवाद ! “आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
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आरसी मिश्र उवाच> ये क्या बात हुई इलाहाबाद आकर टिप्पणी लिखी और वो भी अप्रूवल वाली फाइल मे रखवा दी आपने :( मिश्र जी, मैं भी नहीं चाहता यह मॉडरेशन. पर कुछ शुभ चिंतक यदा-कदा इधर-उधर का फोड़ने चले आते हैं तो मन मसोस कर झंझट पालना पड़ा.
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ये क्या बात हुई इलाहाबाद आकर टिप्पणी लिखी और वो भी अप्रूवल वाली फाइल मे रखवा दी आपने :(
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सच मे पाण्डेय जी आज आपने बड़ा फोड़ा है :)। अभी नाना जी आये थे,उनसे बात करके यही लगा, और हमारी मामी जी को भी ये लेख पसन्द आया।
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बिल्कुल सही है बडे लोगों को हमेशा ये लगता रहता है कि जितना स्वामित्व व अधिकार वो अपने घर मे महसूस करते है उतना बेटे या बेटी के घर मे नही। हो सकता है आगे चल कर (बुढ़ापे) हम लोग भी ऐसे ही हो जाएँ ।
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भाई साहब, आपने यह कह कर कि बाप का घर समझा है क्या…बहुत ही जबरदस्त प्रहार किया है आज के बेटों पर. मान गये आपको कि किस कोने में कितनी पैनी नज़र रखते हैं. जबरदस्त.आभार, यह छिपा और शर्माया मुद्दा उठाया. हम जान गये.
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गूढ़ बात है ये.मैं भी इससे सहमति जताता हूँ.
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