आलोक (नौ-दो-इग्यारह) की मित्रता


आलोक (9+2=11 वाले) ने जब हिन्दी के विषय में मेरे पोस्ट पर टिप्पणी की (टिप्पणी इस पोस्ट में उद्धृत है यह उद्धृत शब्द का प्रयोग आलोक-इफेक्ट है! अन्यथा मैं कोट का प्रयोग करता!) तो मुझे लगा कि मैं दो प्रकार से प्रतिक्रिया कर सकता हूं ठसक कर अथवा समझ कर. ठसकना मेरे लिये आसान था. पर मैने समझने का प्रयास किया. कहीं पढ़ा कि आलोक अमेरिका हो आये बिना आसव पिये. तब मुझे लगा कि बन्दा मेरे जैसा है मैने सबसे स्ट्राँग आसव वाटरबेरी कम्पाउण्ड में पिया है, सर्दी की दवा के रूप में. अत: सोचा कि सूफियाना व्यक्तित्व के साथ क्या पंगा लेना/ठसकना. उसके लिये तो रेल विभाग में ही क्षैतिजिक और ऊर्ध्वाधर पदानुक्रम (आलोक-इफेक्ट के शब्द, सही शब्द हॉरिजेण्टल और वर्टिकल हाइरार्की. हिन्दी और अंग्रेजी दोनो में जीभ-तोड़, शायद बेहतर हो – “दायें-बायें-ऊपर-नीचे”!) में लोगों की भरमार है! बची-खुची कभी-कभी अज़दक के साथ पूरी कर लेते हैं. वह भी बहुत दिनों से बन्द है.

(ध्यान से देखने पर लगा कि मेरी डेढ़-दो दशक पहले की फोटो और आलोक की फोटो में बहुत साम्य है! मैं अपनी पुरानी फोटो की जगह आलोक की फोटो चला सकता हूं!).

पर हिन्दी के प्रकार को लेकर आलोक के और मेरे मतभेद अपनी जगह बरकरार हैं. मैं वर्तनी की लापरवाह चूकों को स्वीकार नहीं करता. ढ़ेरों ब्लॉग्स, जिनकी एग्रीगेटर पर फीड के मुखड़े में स्पष्ट हो जाता है कि लेखक अपनी ब्लॉग पोस्ट ठीक से सम्पादित भी नहीं कर रहा वहां मैं जाने की जहमत नहीं करता; अगर कोई अन्य कारण प्रेरित न कर रहा हो. पर उसके अलावा अंग्रेजी के शब्द अगर मेरी सामान्य बोलचाल के अंग हैं और मुझे लगता है कि लोग समझ लेंगे, तो मैं उन्हे यथावत रखने में यकीन रखता हूं. भाषा मेरे लिये सम्प्रेषण का वाहन है. मां सरस्वती की पूजा में कभी मैं या कुन्देन्दु तुषारहार धवला गाता हूं और कभी श्री अरविन्द की द मदर से मां के विभिन्न वपुओं का सस्वर पाठ कर लेता हूं. ध्येय केवल मां से सम्प्रेषण का होता है. कभी कभी वह मौन से भी पूरा हो जाता है.

आलोक की टिप्पणी:
…… चूँकि आपने जबरन इस ओर ध्यान आकर्षित किया है – शब्दानुवाद के बारे में – अगर आपको हेडिंग, सर्च, पोस्ट, रिस्क, प्रॉजेक्ट, डिरेल, ब्राइडग्रूम जैसे शब्दों को भी हिन्दी समझ में नहीं रही है तो यह शुद्ध आलस्य ही है, और यदि आप यह मान के चल रहे हैं कि हिन्दी के सभी पाठकों को इन शब्दों के अर्थ मालूम होंगे तो वह भी एक काल्पनिक पूर्वानुमान है! इस प्रकार के विषयों पर अंग्रेज़ी में – शुद्ध अंग्रेज़ी में – कम से कम सौ लेख मिल जाएँगे।@ फिर मैं अंग्रेज़ी में ही क्यों न लेख पढ़ लें? यह मैं सिर्फ़ इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि आपने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। यह बात समझना ज़रूरी है कि जाल पर आपका लेख ऐसे लोगों द्वारा भी पढ़ा जाएगा जिन्हें शायद आप असली दुनिया में मिलने की भी न सोचें। हाँ, यदि आप उन लोगों को लक्ष्यित नहीं कर रहे हैं तो बात अलग है। सारांश यह कि यदि कोई अरबी का चिट्ठा पढ़ रहा हो और उसे बीचोबीच रूसी के शब्द मिलें – जब कि
चर्चा रूस से बिल्कुल इतर है – तो सम्भवतः प्रयोक्ता का अनुभव उतना रसीला नहीं रहेगा जितना हो सकता था।
इस टिप्पणी के सीक्वेल में एक राउण्ड चोंच लडाई उस पोस्ट पर हो चुकी है! :)

@- मैं भी अंग्रेजी से टीप कर हिन्दी में पाण्डित्य दिखाने का हिमायती नहीं हूं! हां, टिप्पणी में इंगित सभी अंग्रेजी के शब्द पाठक समझते हैं और बोलचाल में प्रयोग करते हैं.

जैसा मैने अनूप सुकुल से भी कहा है दशकों से विभिन्न क्षेत्रों में सोचना अंग्रेजी में होने के कारण हिन्दी के शब्द प्रवाह में नही मिलते. खोद कर लाने पड़ते हैं. खोद कर निकाले गये शब्द में वह कल-कल स्वर या लालित्य नहीं होता. यह अवश्य है कि समय के साथ साथ हिन्दी के शब्द प्रवाह में बढ़ते जायेंगे. कुछ तो हिन्दी शब्द हम खुद गढ़ कर अपने ब्लॉग में ठेल लेंगे और उत्तरोत्तर वह कर भी रहे हैं. और कुछ शब्दों को नये अर्थ में भी चमकायेंगे. हां, हिंन्दी के महंतों, ठाकुरों और पण्डितों की नहीं सुनेगे. ब्लॉग पर कोई सम्पादक का उस्तरा या कैंची नहीं चल सकती. चिठेरी मौज के लिये कर रहे हैं; बेगारी के लिये नहीं.

पर आलोक की दोस्ती मैं थोड़े बहुत समायोजन के साथ भी अर्जित करना चाहूंगा. उनकी टिप्पणियों में हिन्दी को लेकर थोड़ी जिद है, पर पण्डिताई, ठकुराई या महंती नहीं लगती. (मैं यह भी चाहूंगा कि आलोक अगर इनमें से हों तो साफ कर दें वर्ना बाद में पता चलने पर तल्खी होगी). उसके अलावा मेरी लैम्पूनिंग (इस शब्द का फड़कता हुआ आलोक-इफेक्ट शब्द दिमाग में नहीं आ रहा!) का उनका नजरिया या आशय हो ऐसा नहीं लग रहा. व्यक्तित्व उस छाप का नहीं प्रतीत होता. हां, असहमति थोड़ी बहुत बनी रहे तो बढ़िया है – उससे हाजमा दुरुस्त रहता है और कब्जियत नहीं होती.

क्यों आलोक जी, क्या टिप्पणी है आपकी?

बाकी मित्रगण यह न मानलें कि उन्हे टिपेरने का निमंत्रण नहीं है और वे चुपचाप सटक सकते हैं. :) मूलत: यह पोस्ट ब्लॉग पर भाषा प्रयोग के (विवादास्पद?) मुद्दे से जुड़ी है.


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

17 thoughts on “आलोक (नौ-दो-इग्यारह) की मित्रता

  1. हिन्दी एम.एम., पीएच.डी. के पाठ्यक्रमों में भी हम सूरदास, तुलसीदास जैसे कवि-सूर्य , कवि-चन्द्र की रचनाएँ पढ़ते हैं, क्या वे किसी व्याकरण या वर्तनी के नियमों में बँधे हैं? गेय शैली या तुकबन्दी के लिए शब्दों को सुविधानुसार जोड़-तोड़ करने का लेखक को पूरा अधिकार होता है। किन्तु भाव-सम्प्रेषण पाठक को स्पष्ट होना चाहिए।

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  2. भावों के प्रवाह में जो शब्द सामने उचित नजर आयें और आम लेखक-पाठक की बोलचाल की भाषा में समाहित हों, वही उचित है. सृजन शिल्पी जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ. रही शाब्दिक प्रवाह की बात तो हमें अगर लैम्पूनिंगइस्तेमाल करना हो तो हम तो उसे छीछालेदर जैसा शब्द दे देंगे जो हम हमेशा से इस्तेमाल करते आये हैं. इसमें क्या दिक्कत है और वही लैम्पूनिंग के इस्तेमाल पर है जिसके साथ आपने अर्थ भी दे ही दिया था. अच्छा विषय लिया ज्ञानजी आपने. ऐसे मसलों पर इस तरह की सार्थक और इमानदार चर्चा होती रहना चाहिये.

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  3. लो कल्लो बात, इस बालक के कहने के लायक किसी ने कुछ छोड़ा ही नही!!पर सृजनशिली की कही बात से सहमत होने के पूरे आसार हमें नज़र आ रहेहैं।

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  4. सृजनशिल्पी > “…लेकिन हिन्दी के संदर्भ में यह आग्रह बल्कि दुराग्रह हमारे हिन्दी भाषियों में ही, जरूरत से कुछ ज्यादा ही है। उन्हें उर्दू समझ में आ जाती है, अंग्रेजी समझ में आ जाती है, यदि समझ में नहीं आती तो उसके लिए शब्दकोश भी देखने या किसी से पूछकर जानने को तैयार रहते हैं, लेकिन उस भाषा के कठिन होने की शिकायत नहीं करते, लेकिन हिन्दी के मामले में वे जरा भी जहमत नहीं उठाना चाहते। हिन्दी शब्द-प्रयोगों को समझने और सीखने के मामले में ऐसे लोगों के मन में पर्याप्त उत्साह या उत्सुकता नहीं होती। गैर-हिन्दी भाषियों के मामले में तो यह बात समझ में आती है, लेकिन हिन्दी भाषियों का यह एक तरह का ‘हास्यास्पद अभिजात्य’ मुझे आज तक समझ में नहीं आ सका।” लाजवाब! सही शब्दों में सही बात!!!

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  5. ज्ञान जी, वैसे आपकी बात से सहमत हूँ कि ब्लॉग मजे के लिए लिख रहे हैं न कि बेगारी के लिए, लेकिन आलोक जी की इस बात से भी सहमत हूँ कि आम शब्दों को अंग्रेज़ी में लिखना आलस्य के कारण हो सकता है, क्योंकि पुनः इन शब्दों के हिन्दी समानार्थी शब्दों को अपने प्रवाह में लाने में थोड़ी सी मेहनत ही करनी होगी। मैं तो कभी मज़े के लिए और कभी समानार्थ शब्द न मिलने पर अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करता हूँ, कुछ के समानार्थ शब्द खोजने से मिल सकते हैं लेकिन नहीं खोजता आलस्य के कारण। :)बाकी ब्लॉगिंग के कोई नियम नहीं हैं, इसलिए बेधड़क जैसे लिखना है लिखिए, कोई पत्रिका आदि नहीं है कि जहाँ एडिटर के मन माफ़िक लिखना होगा। ;)

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  6. देखिये, जी वैसे हम राय देने के पईसे लेते हैं। पर आप हमारे रोज के ग्राहक हैं, तो ये मुफ्त। भाषा क्या हो, कैसी हो, यह सिर्फ और सिर्फ लेखक को तय करना चाहिए। हिंदी अंगरेजी, हिंगरेजी, या जो भी हो। पढ़ने वाले को अधिकार है कि ना पढ़े। या पढ़कर टिप्पणी करने का अधिकार है। सबके अपने अधिकार हैं, फिर काहे की मारामार है। लेखक जिस दिन पूछ कर लिखने लगेगा कि अईसी लिखें, कि कईसी लिखें। उस दिन वह लेखक नहीं स्टेनोग्राफर हो जायेगा। स्टेनोग्राफर बनना भी आसान काम नहीं है, पर लेखक बनना थोड़ी और तैयारी मांगता है। सिरिफ और सिरिफ मन का लिखें, हां पढ़कर गाली देने वालों, घसीटने वालों के अधिकार का सम्मान भी जारी रखें।

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