श्रीलाल शुक्ल जी की याद


अजदक ने श्रीलाल शुक्ल का एक लेख अपने ब्लॉग पर प्रस्तुत किया है. उसे देख कर हिन्दी से पैसे कमाने की अगर हसरत हो तो ध्वस्त हो जाती है. उसके बाद अनूप ने भी श्रीलाल शुक्ल का एक लेख अपने ब्लॉग पर परोसा. उसे पढ़ कर लगता है कि ऐसे ही लिखते रहना चाहिये.

अपने पास परोसने को बस इतना ही है कि राग दरबारी अनेकानेक बार पढ़ा है और न जाने कितनी बार मित्रों की बैठक में बजाया है. आम जिन्दगी में अनेक बैदजी, रुप्पन, रंगनाथ… खोजे हैं. फलाने कर्मचारी को अनुशासनात्मक कार्रवाई में सस्ते में छोड़ दिया; बावजूद इसके कि मेरा सहायक अफसर कहता रह गया कि साहब यह खन्ना मास्टर की तरफ का है. कुल मिला कर रागदरबारी जिन्दगी का हिस्सा बन गयी है हमारे परिवेश में.

श्रीलाल शुक्ल जी का दामाद मेरा बैचमेट है सुनील. प्रोबेशन में हम दोनो एक कमरा भी शेयर कर चुके हैं. सेण्ट स्टीफन का प्रॉडक्ट सुनील राग दरबारी की तरंग नहीं समझता था. शायद उस समय उसने पढ़ी भी न थी. पुस्तक के बारे में मैने ही उसे रूपरेखा बताई थी. मैं कभी-कभी सोचता हूं कि सेण्ट स्टीफन के तहजीब वालों को लेकर राग दरबारी छाप लिखा जा सकता है क्या. कोई ब्लॉगर ट्राई कर देखेगा!


Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

9 thoughts on “श्रीलाल शुक्ल जी की याद

  1. आय हय शिरीष जी के भोले पण के सदके , पूछते हैं की रागदरबारी मैं ऐसा क्या है? अब क्या कहें उनको, एक शेर अपनी आदत के अनुसार सुना देते हैं :”लुत्फे मय तुझसे क्या कहूँ जाहिद हाय कमबख्त तूने पी ही नही ” रागदरबारी एक उपन्यास ही नही है हमारे देश की संस्कृति का दस्तावेज है . इसका तो सामुहिक पाठन होना चाहिए नीरज

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  2. ये रागदरबारी में ऎसा क्या है, स‌ब उसी के गुण गाते रहते हैं। वैसे हिन्दी ब्लॉगजगत में ये संक्रमण फैलाने का श्रेय फुरसतिया जी को जाता है। :)

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  3. देर से आया इस पोस्‍ट पर । आइडिया अच्‍छा है । हम कुछ पेज छापने के लिए तैयार हैं, अगर सब लोग मिलकर छापें तो काम बन सकता है । कहिए और कौन कौन तैयार है ।

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  4. राग दरबारी तो जितनी बार पढ़ो उतनी बार नया. अभी कुछ समय पूर्व उसके कुछ अध्याय नेट के लिये टंकित कर रहा था तब भी एक अलग अनुभूति. सेंट स्टिफनस या ऐसी जगहों से पढ़े बालकों को एक ढंग के उपन्यास की जरुरत होगी, यह सही है. शायद चाय की दुकान की जगह कॉफी शाप…मगर वो खुशबू कैसे उठेगी. पता नहीं .

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  5. राग दरबारी पर जितना कहा जाये, उतना कम है। पहली बार यह तब हाथ लगा था, जब मैं बीकाम प्रथम वर्ष में था, 1983 में। उपन्यास मिला, और पूरी रात बैठकर पढ़ता गया। तब से अब तक पढ़ ही रहा हूं। कितनी बार पढ़ा है, अब तो याद भी नहीं है। ऐसे उपन्यास लिखे नहीं जाते, होते हैं, या कहें कि उतरते हैं। बल्कि अब तो अपने अध्यापन में मैं यह उपन्यास पत्रकारिता, अर्थशास्त्र के हर बच्चे को पढाता हूं। यह बताते हुए कि राजनीति और अर्थशास्त्र की सौ किताबें भी आजाद भारत के असली पेंच-पैंतरे नहीं बता पायेंगी, यह अकेली किताब ही यह काम कर सकती है। बस एक पेंच यह है कि राग दरबारी श्रीलाल शुक्लजी के लिए कुछ यूं है जैसे कि कोई बल्लेबाज एक साथ एक ही ईनिंग में पंद्रह बीस सेंचुरी ठोंक दे। और उसके बाद की ईनिंगों में वह अगर पांच-सात सेंचुरी भी ठोंके, तो लोग कहते हैं कि वो वाली बात नहीं जो, उस ईनिंग में थी। राग दरबारी के बाद श्रीलाल शुक्लजी वैसी ईनिंग नहीं कर पाये। पर इससे ना राग दरबारी के वजन पर कुछ असर पड़ता है ना श्रीलाल शुक्लजी के वजन पर।

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  6. ‘राग दरबारी’ की तरंग को तो कोई ‘गंजहा’ ही समझ सकेगा .सेंट स्टीफ़न वाला क्या समझेगा . अगर वह हिंदुस्तान — वह भी उत्तर भारत — के क्स्बाई जीवन के तौर-तरीकों से नावाकिफ़ है तो वह किसी और तरंग दैर्घ्य पर है और ‘राग दरबारी’उसको उस तरह ‘अपील’ नहीं करेगा जैसे वह हमको और आपको करता है .

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  7. ह्म्म आईडिया तो गज़ब का है दद्दा!!फ़ुरसतिया जी और अज़दक साहब सुन रहे हो का))))इ देखो ज्ञान दद्दा आप दोनो को एक नया काम अलॉट कर रहे हैं!!ना ना पुराणिक जी, ये काम आपको अलॉट नही न किया जा रहा है भई!!

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  8. अब तो श्रीलाल शुक्‍ल के रचनाओं को फिर से स्‍म्रति में लाना ही होगा, आज ही धूल झाडते हैं अपनी पुरानी अलमारी के किताबों पर से तबहिन तो कुछ टिपिया पायेंगे ना, बहुतै हो गया मंतर संतर अब रागदरबारी गाना ही पडेंगा ।धन्‍यवाद पाण्‍डेय जी ।

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