अर्जुन प्रसाद पटेल अपनी मड़ई पर नहीं थे। पिछली उस पोस्ट में मैने लिखा था कि वे सब्जियों की क्यारियां बनाते-रखवाली करते दिन में भी वहीं कछार में होते हैं और रात में भी। उनका न होना मुझे सामान्य न लगा।
एक लड़की दसनी बिछा कर धूप में लेटी थी। बोली – बाबू काम पर गये है। बढ़ई का काम करते हैं।
अच्छा? क्यारी पर भी काम करते हैं और बढ़ई का भी?
हां।
लडकी से पूछने पर यह पता चला कि गंगा के कछार में रात में कोई इनकी मड़ई में नहीं रहता। मैने आस-पास नजर मारी तो कारण समझ आया – सब्जियां बहुत बढ़िया नहीं लग रहीं थीं। शायद अर्जुन प्रसाद पटेल मायूस हो गये हों, सब्जी की व्यवसायिक सम्भावनाओं से। सर्दी कस कर नहीं पड़ रही। सब्जियां उन्मुक्त भाव से पनप नहीं रहीं।
यह तो गंगा किनारे का हाल है। आम किसान का क्या हाल है? मेरे सहकर्मी श्रीमोहन (जिनकी खेती जिला बलिया में है) का कहना है कि अरहर-दलहन तो हो जायेगी। आलू भी मजेका हो जायेगा। पर गेंहू की पैदावार कम होती लगती है। जिंस के मार्केट का आकलन तो नहीं मालुम; लेकिन जिस तरह से मौसम अज़ीबोगरीब व्यवहार कर रहा है, हाल बढ़िया नहीं लग रहा।
अर्जुन पटेल जी की बिटिया से पूछता हूं कि उसका नाम क्या है? वह बोली सोनी और साथ में है मनोरमा। चाचा की लड़की है। मनोरमा के पिता उग आये टापू पर खेती कर रहे हैं। टापू की ओर नजर मारता हूं तो वहां भी बहुत लहलहाती खेती नजर नहीं आती।
आओ सर्दी की देवी। जरा कस के आओ। भले ही कोहरा पड़े, गाड़ियां देर से चलें, पर इन किसानी करने वालों का भला तो हो।
अच्छा, ऐसे टिल्ल से विषय पर पोस्ट क्यों गढ़ता हूं मैं? कौन केयर करता है सोनी-मनोरमा-अर्जुन पटेल की? ऐसा भी नहीं है कि वे मेरे साथ बहुत सहज होते हों। क्या मैं जाल ले कर जाता हूं पोस्ट पकड़ने। आधे-पौने वर्ग किलोमीटर का कछार है, जिसमें ये पात्र हैं। भारत के किसी भी हिस्से में आधे वर्ग किलोमीटर के इलाके पर बहुत कुछ बनाई जा सकती हैं ब्लॉग पोस्टें। पर उसमें कितनी बांध कर रखने की क्षमता है ब्लॉग उपभोक्ता की! मुझे खुद नहीं मालुम!
सामान्य जिन्दगी में चुप्पे से आदमी के लिये ब्लॉगिंग अपने और अपने परिवेश को दिखाने का माध्यम है। और उसके लिये बहुत ज्यादा प्रतिभा या रचनात्मकता की जरूरत नहीं। उल्टे अगर आपमें प्रतिभा/रचनात्मकता ज्यादा है तो आप दिखायेंगे नहीं, रचने लगेंगे। उसमें यही सोनी-मनोरमा-अर्जुन पटेल ग्लैमराइज हो जायेंगे। वह ध्येय है ही नहीं। कतई नहीं!
ओह! जीडी, इन हैव-नॉट्स पर आंसू टपकाऊ पोस्ट नहीं बना सकते?! कैसी सीनियरई है तुम्हारी हिन्दी ब्लॉगरी में!
मेरी दो साल पुरानी पोस्ट देखें – चिन्दियाँ बीनने वाला। उसमें आलोक पुराणिक की टिप्पणी है –
भई भौत बढिया। हम सब कबाड़ी ही हैं जी। कहीं से अनुभव कबाड़ते हैं, कहीं से भाषा। फिर लिख देते हैं। आदरणीय परसाईजी की एक रचना जेबकटी पर है। जिसमें उन्होने जेबकट के प्रति बहुत ही संवेदना दरशाते हुए लिखा है कि लेखक और जेबकट में कई समानताएं होती हैं।
लेखक और कबाड़ी में भी कई समानता होती हैं।
अब तो आप धुरंधर कोटि के लेखक हो लिये जी। जब कबाड़े से भी बंदा पोस्ट कबाड़ ले, तो क्या कहना।
हां, क्रिसमस मुबारक!
बेहतरीन शब्द-विन्यास…
LikeLike
ठंड नहीं पड़ रही क्या इलाहाबाद में..?आइये, छौ-सात डिग्री सेल्सियस वहाँ से लेके, एक्स्चेंज करते हैं.. इत्ती रात को टिपियाते टिपियाते हाथ कठुआ गये हैं..बाई द वे.. हमें तो ये टिल्ल सी पोस्टें ही पसंद हैं.. रीजन- अब इसिये में आपने उपभोक्ता वाला कॉन्सेप्ट जड़ दिया.. हो गई छुट्टी अब सोचते रहो ।
LikeLike
You have just vindicated whatever I wrote about your blogs yesterday.Keep writing.Living on a river bank and that too the grand,dear and sacred Ganga is a privilege for which you must have done some Punya in your previous birth.The nearest river bank (Cauvery) is 70 kilometers away for me.I have been there only four times and enjoyed the experience each time. But I experience Cauvery everyday.I don't need to go there.It comes to me.(Our tap water supply is from Cauvery)You don't need to go hunting with a net to entrap a subject to blog about.Subjects assail you from all sides pleading with you to be written about.Most of us don't give a second look to the environment around us.You are able to discover what is invisible to most and also write about them in an appealing way.Keep up the good work.RegardsG VishwanathJP Nagar, Bangalore
LikeLike
"आओ सर्दी की देवी। जरा कस के आओ। भले ही कोहरा पड़े, गाड़ियां देर से चलें, पर इन किसानी करने वालों का भला तो हो। "यह देश किसानों/मजदूरों का है। उनका भला होगा तो ही सबका भला होगा।
LikeLike
सोच रहा हूं, आपके इस सर्दी के आह्वान पर हमारी जो यहां इधर कुल्फी जमेगी उसका क्या। लेकिन पटेल भाई और इन जैसे अन्य बंधुओं के लिये ये कुल्फी जमना भी स्वीकर है।"पोस्ट लिखी नहीं, गढ़ी जाती है"- सचमुच।
LikeLike
bahut hi umda post thoda vakt lga smjhne ke liye par hmesha pdhungi to shayd jaldi smjh aane lgega .bahut bahut abhar.
LikeLike
देव !यह 'उपभोक्ता' वाली बात पसंद आयी ..यह शब्द अपने आपमें ब्लॉग-जगत की सटीक समीक्षा भी है ..लेकिन 'उपभोक्तवाद' से बचना भी तो है ..ऐसी पोस्टें अगर निहितार्थों के साथ ली जांयतो बचा भी जा सकता है ……….. आभार ,,,
LikeLike
"यह तो गंगा किनारे का हाल है। आम किसान का क्या हाल है?"हमारे कृषी मंत्री कहते है कि आयात नहीं किया जाएगा। जनता को अगली फ़सल का इंतेज़ार करना होगा। अब पटेल हो या पटवारी, हाथ धरे बैठे रहना होगा।बडे़ दिन की बडी बधाई 🙂
LikeLike
शेक्सपियर की ट्रेजेडी बड़े लोगों की ट्रेजेडी होती थी इसीलिए वह बहुत मशहूर हो गईं. आम आदमी और उसकी बिसात बस इतनी ही रहती है बक़ौल 'बकरा क़िश्तों में' के 'गरीब की ज़िंदगी क्या है गड्ढे में पैदा हुए नाले में फ़ौत हो गए'…
LikeLike
आओ सर्दी की देवी। जरा कस के आओ। भले ही कोहरा पड़े, गाड़ियां देर से चलें, पर इन किसानी करने वालों का भला तो हो।हम भी यही दुआ करते हैं। आपको बड़ादिन की हार्दिक शुभकामनाएं।
LikeLike