कुकुर पालने से सामाजिक स्टेटस, जैसा भी हो, बढ़ जाता है। गांव में रिहायश बनाने के कारण एक शहराती अफसर की अपेक्षा हमारे स्टेटस में ‘पर्याप्त’ गिरावट आ गयी थी। उसे बढ़ाने के लिये पांच साल पहले मेरी बिटिया ने हमें एक लेब्राडोर ब्रीड के पिलवा को भेंट किया था। नाम भी रखा था – गब्बर।
पर गब्बर चला नहीं। उस समय घर में यहां चारदीवारी नहीं थी। कोई भी निर्बाध आ सकता था। एक छुट्टा घूमता रेबीज युक्त कुत्ता कहीं से घर में घुस आया और उस महीने भर के पिल्ले को झिंझोड़ गया।

उसको आये एक दो दिन ही हुये थे और उसे रेबीज का टीका भी नहीं लगा था। हम कुत्ते के डाक्टर साहब के पास भी ले गये उसे। पर उसे रेबीज हो गयी। हमारे घर के बहुत से लोगों को उसने काटा और अंतत: गब्बर बेचारा मर गया। हमने रेबीज से बचाव के लिये खुद को पांच पांच रेबीपोर की सुईयां लगवाईं। बहुत खर्चा करना पड़ा, तनाव और झंझट अलग हुआ।
मनुष्य शायद दु:ख से भयभीत नहीं होता। वह दु:खों को अनदेखा कर, आत्मीयता तलाशता है, भले ही उसके साथ दु:ख जुड़ा आता हो। जन्म, पालन, विवाह, प्रजनन, परिवार, जरा और मृत्यु – सब में दु:ख है। पर सब आत्मीयता से गुंथे हैं।
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गांव में आने के पहले हमारे पास एक कुत्ता था, गोलू पाण्डेय। वह आठ साल चला। उसके मरने पर घर के सदस्य के जाने सा दुख हुआ था। तब सोचा था कि कुत्ता पालना अंतत: दुख ही देता है। पर फिर, बार बार एक कुत्ता पालने की बात मन में आती है।
मनुष्य शायद दु:ख से भयभीत नहीं होता। वह दु:खों को अनदेखा कर, आत्मीयता तलाशता है, भले ही उसके साथ दु:ख जुड़ा आता हो। जन्म, पालन, विवाह, प्रजनन, परिवार, जरा और मृत्यु – सब में दु:ख है। पर सब आत्मीयता से गुंथे हैं।

इसलिये मुझे लगा कि पालने के लिये बेहतर है कि एक स्वस्थ लोकल कुकुरिया के पिल्ले को पाल लिया जाये। उसका अच्छे से टीकाकरण और डी-वॉर्मिंग आदि कराया जाये। खाना उसे अपने घर के सदस्य की तरह (एक सामान्य कुकुर एक आदमी के बराबर खाता है) दिया जाये।
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यह वैसे ही है कि स्वादिष्ट भोजन सबको प्रिय है पर उसके साथ मोटापा, कोलेस्ट्रॉल आदि अनेकानेक समस्यायें साथ जुड़ी आती हैं। पानमसाला खाने से मुख का कैंसर होता है, ऐसा लोग जानते हैं, पर स्वाद के सुख के लिये पानमसाला खाना नहीं छूटता। उसकी बिक्री बराबर जारी है।
खैर, बात कुत्ते को पालने की है। कुत्ते की जिंदगी आदमी की जिंदगी से काफी कम है। एक व्यक्ति के जीवन काल में आठ नौ पालतू कुत्ते बदल सकते हैं। उन सब का विरह कष्ट दे सकता है। पर उन सब का होना अपने आप में बहुत आनंददायक है।
हमने एक कुत्ता पुन: पालने की सोची। मेरी बिटिया ने बोकारो से बताया कि एक गोल्डन रीट्रीवर कुतिया ने बच्चे जने हैं। उनमें से एक हमारे लिये लहा सकती है। वह देने के लिये वह बोकारो से यहां तक अपने वाहन में यात्रा भी कर सकती है – जैसा पांंच साल पहले उसने किया था। कुतिया और पिल्लों के चित्र भी वाणी पाण्डेय ने भेजे।
दाम? बताया कि जिसने गोल्डन रिट्रीवर कुतिया ब्रीडिंग के लिये पाली है, वह पपी बेच रहा है। सोलह हजार का एक पिलवा। सोलह हजार के नाम पर मैंने साफ मना कर दिया। सोलह हजार का कुकुर/पिलवा रखने पालने का फ्रेम ऑफ माइण्ड ही मेरा नहीं है! पांच साल पहले, जब ताजा ताजा रिटायर हुआ था और टेंट में पैसा खनक रहा था, तब शायद सोलह हजार का कुकुर ले भी लेता; अब तो बिल्कुल नहीं। 😀
विलायती ब्राण्ड के कुकुर में क्या फायदा है। साहबियत का नफा है। और भी कुछ? क्या देसी सिरके से एप्पल साइडर विनेगर ज्यादा बढ़िया है? देसी गाय की बजाय जर्सी, फ्रेजियन ज्यादा अच्छी है? देसी कुकुर क्या विलायती जितना होशियार और स्वामिभक्त नहीं होता?
विलायती कुकुर में बीमारियाँ (जैसा मैंने पढ़ा), काफी होती हैं। भारतीय वातावरण में वे उतने एडॉप्ट नहीं कर पाते जितना देसी। उनमें अर्थराइटिस और लीवर की बीमारी गली के कुकुरों से ज्यादा होती है। भारतीय कुकुर भी 10-12 साल जीता है। भोजन ठीक ठाक मिले तो शायद विलायती से ज्यादा जिये। और स्वामिभक्ति के किस्से जितने गंवई कुकुरों के सुने हैं, उतने विलायती के नहीं सुने।
इसलिये मुझे लगा कि पालने के लिये बेहतर है कि एक स्वस्थ लोकल कुकुरिया के पिल्ले को पाल लिया जाये। उसका अच्छे से टीकाकरण और डी-वॉर्मिंग आदि कराया जाये। खाना उसे अपने घर के सदस्य की तरह (एक सामान्य कुकुर एक सामान्य आदमी की खुराक बराबर खाता है) दिया जाये।
यह सोचने के बाद सड़क पर और आसपास के सारे पिलवों को मैं ध्यान से देख रहा हूं। पर अभी कोई पिलवा मुझे मोहित नहीं कर पाया। कल पण्डित देवेंद्रनाथ दुबे के अहाता में एक कुतिया दिखी। उसका नाम रखा है रिन्गी। उसके सारे पिलवे इधर उधर चले गये हैं।

रिन्गी से वे पीछा छुड़ाना चाहते थे। घर से दस किलोमीटर दूर कछवाँ बाजार तक छोड़ आये, पर रिन्गी वहां से भी वापस आ गयी। जो कुतिया इतना पहचान रखती हो, उसका पिलवा पालने योग्य होगा। दुर्भाग्यवश इस समय रिन्गी के सारे पिलवे इधर उधर चले गये हैं।
मैं रिन्गी के पिलवों की अगली खेप का इंतजार करूंगा। अगर (और यह बड़ा अगर है) मेरे परिवार के लोगों ने देसी कुकुर पालने पर नाक-भौं नहीं सिकोड़ी, तो!
ये सच है की विदेशी नस्ल के श्वान की कुछ वंशगत विशेषतायें होती हैं, मसलन जर्मन शेफर्ड रखवाली के लिए बना है, लैब्राडोर और गोल्डन रिट्रीवर “गेम” (चिड़िया आदि) को “रिट्रीव” कर के लाने में पारंगत होते हैं, ये सबसे ज्यादा शांत प्रकृति के श्वान होते हैं इसलिए बच्चों वाले परिवार में रहने लायक होते हैं. पर यही सब विशेषताएं भारतीय नस्ल में भी होती हैं! भारत में विदेशी नस्ल पालना जरूर मुश्किल है क्योंकि जलवायु का अंतर विकट होता है! मुंबई में मैं अपने आस पास जब लोगों को “हस्की” पालते देखती हूँ तो मुझे दुःख होता है. साईबेरिया की नस्ल को मुंबई में जबरन पालना मेरे लिए गुनाह से काम नहीं! सिर्फ जलवायु ही नहीं नस्ल “प्योर” रखने के चक्कर में जो लगातार in-breeding की जाती है उसके कारण विदेशी नस्ल में कई जन्मगत बीमारियां बढ़ जाती हैं, ख़ास कर बड़े श्वानों में (लैब, जर्मन शेफर्ड, ग्रेट डेन वगैरह) में hip displacia होने का यही सबसे बड़ा कारण है.
देसी श्वानों में “street-smartness” होती है, वे बहुत चतुर होते हैं क्योंकि उनके पूर्वजों का शाश्वत संघर्ष अब उनके DNA का हिस्सा है, वैसे ही जैसे एक जर्मन शेफर्ड का रखवाली करने का गुण उसके DNA का हिस्सा है. देसी हैं इसलिए जलवायु माफिक न आने का प्रश्न नहीं उठता (हाँ, पहाड़ों का देसी श्वान लाकर मैदानी इलाके में पालेंगे तो ज़रूर मुश्किल होगी). अंतत: श्वान का “temperament” उसके मालिकों पे निर्भर करता है! लगभग सभी श्वान आपका प्यार जीतने के लिए आपकी बात मानने को कोशिश करते हैं, सो उनको “train” करना आसान होता है. इंटरनेट पर बहुत लेख मिल जाएंगे आपको इस बारे में. एक अच्छा देसी पप ले आइये, उसको immunize कीजिये, खानपान का ध्यान रखिये, प्यार कीजिये, और प्यार से अनुशासित कीजिये, फिर देखिये, वो न सिर्फ बुद्धिमान होगा बल्कि दिखने में भी अच्छा दिखेगा। मेरे कई दोस्तों के पास देसी श्वान हैं जो अच्छी diet के कारण अपने भाई बहनो की बनिस्बत ज्यादा झबरे बालों वाले और सुन्दर दीखते हैं.
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बहुत शानदार टिप्पणी और बहुत जानकारी के साथ आरती जी! आपको धन्यवाद। आसपास एक अच्छा पिल्ला तलाशूंगा मैं! 🙂
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ओ:! ये मेरा प्रिय विषय है क्योंकि मैं एक self confessed श्वान प्रेमी हूँ और बचपन से अब तक मैंने ५ पपी पाले हैं, जिन्होंने मेरे यहाँ पूरा जीवन बिताया। अभी मेरे पास एक काला लैब्राडोर (मार्शल) है जो १३ वर्ष का वृद्ध है, बाल सफ़ेद हो चुके हैं और उसको सहारा देकर उठाना पड़ता है. खुद नहीं उठ सकता। मेरे बच्चे का hip displacia, जो बहुत severe था, १० महीने की उम्र में ही पकड़ में आ गया था. हमने उस ब्रीडर को पकड़ा जिस से १० हज़ार रुपये देकर इसको खरीदा था, उसने पहले तो ना-नुच की फिर पपी वापस लेने और हमारे पैसे लौटाने पर राज़ी हो गया. पर तब तक मार्शल हमारा दिल ले चुका था और उसको लौटाने का सवाल ही नहीं था. लौटाने पर ब्रीडर उसे “सुला” देता ये तय था! हमने उसका ऑपेरशन करवाया, हालांकि अब दूसरा hip joint तकलीफ दे रहा है. फ्लैट में फर्श मार्बल के होते हैं जो ऐसे श्वानों के जोड़ों के लिए बहुत बुरा है! उसका वजन सही रहे इसलिए उसकी diet का विशेष ध्यान रखा!
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गाँव में रहने वालों को कुत्ता पालना ही चाहिये। हमने तो शहर के फ्लैट में 6 महीने से पाला है। वह सुबह से शाम तक हम सब को व्यस्त रखता है।
उसके आने के बाद से घर मे एक पॉजिटिविटी तो आई है।
लेकिन रुपये खर्च कर पिल्ला पालना मुझे समझ नही आता। हमारे एक पड़ोसी ने अभी 35000 का पिल्ला खरीदा है
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पैंतीस हजार! 😢
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