करछना का थर्मल पावर हाउस


पिछले दिनों इलाहाबाद के पास करछना के समीप आने वाले जे.पी. ग्रुप के 2000 मेगावाट वाले थर्मल पावर हाउस के किये जमीन अधिग्रहण के मामले पर किसान आन्दोलन कर रहे थे। उन्होने एक दिन रेल यातायात अवरुद्ध कर दिया था। सरकारी वाहन फूंक डाले थे और एक आन्दोलनकारी की मौत पर व्यापक रोष व्यक्त किया था।

उनका कहना था कि उनकी गांगेय क्षेत्र की अत्यंत उपजाऊ जमीन के लिये दिया जाने वाला मुआवजा बहुत कम है। वे उससे चार गुने अधिक की मांग कर रहे थे।

मजे की बात यह है कि वे जमीन बेचना भी चाहते थे। जब यह खबर फैलाई गई कि सरकार यहां पावर हाउस नहीं बनायेगी और अधिग्रहण नहीं करेगी; तो आन्दोलन की हवा निकल गई। मैं यह मान कर चल रहा था कि गंगा के मैदान की जमीन बहुत उपजाऊ जमीन होगी और किसान उसे बेचने पर बेसहारा जायेगा।

यह थर्मल पावर हाउस भीरपुर और मेजारोड स्टेशनों के बीच रेल लाइन के उत्तर में टौंस नदी के किनारे आने वाला है। इसके पास से नेशनल हाइवे भी जाता है।

पिछले दिनों मैं इस हाइवे से गुजरा। जमीन, जिस पर यह उपक्रम आने वाला था, मेरे बायें थी और जो मैने देखा उसके अनुसार जमीन ऊबड़-खाबड़, कुछ हद तक कछारी और कम उपजाऊ थी। किसी जगह को आंखों से न देखा जाये तो सुनी सुनाई पर अपना मत बनाना बहुत गलत भी हो सकता है। यह मुझे पक्की तरह अहसास हुआ।

आप भी इन चित्रों को देखें। कितनी उपजाऊ नजर आती है यह जमीन? मुझे लगता है उद्योगपति पर यकीन न किया जाये, सरकार पर यकीन न किया जाये; पर किसान पर भी (उसके स्वार्थ के मामले में) यकीन न किया जाये!

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Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

21 thoughts on “करछना का थर्मल पावर हाउस

    1. किसान की नेगोशियेटिंग टेकनीक्स बहुत रिफाइण्ड नहीं हैं। लिहाजा जब देखो तब वे रास्ता-रेल जाम करने पर उतर आते हैं!
      उनके लिये नेगोशियेट करने वाले किसी न किसी प्रकार से उन्ही का शोषण करते पाये जाते हैं। :-(

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  1. इस देश में स्वार्थ से ऊपर कौन है… कोई नहीं… हर एक के अपने-अपने टार्गेट… अपना अपना मुखौटा… जमीन उपजाऊ है या नहीं… अलग मुद्दा… पैसे बढ़ा दिये जायें… इसलिये आन्दोलन सा किया गया… खेती में अब कुछ रखा नहीं… इसलिये छोटा किसान मजदूर बन रहा है… नीतियां यदि ऐसी ही रहीं तो अराजकता फैलना निश्चित है… कहां तक बचेगी रेल… जब पूरा देश ही इस अराजकता में डूबेगा…

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    1. कल दनकौर के पास रोकी गयीं गाड़ियां। पटरियों पर आननफानन में स्लीपर रख दिये। वहां भी ऐसा ही मुद्दा – जमीन अधिग्रहण का। वहां तो दिल्ली शहर बढ़ रहा है तो गांव खत्म होंगे ही।
      आर्थिक और औद्योगिक विकास पर एक राष्ट्रीय नीति सी होनी चाहिये; दमन और भ्रष्टाचार से मुक्त। जिसमें भूमि देने वाले का भविष्य भी पर्याप्त देखा जाये। अन्यथा बहुत समय और राष्ट्रीय सम्पदा बरबाद हो रही है।

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  2. वास्तव में समस्या इतनी सी नहीं है, जितनी आप के इस आलेख या इस विषय पर पिछले आलेख और उस पर आई टिप्पणियों में अभिव्यक्त हुई है। इस समस्या के अनेक पहलू हैं। जब भी इस तरह की समस्याओं पर विचार किया जाए तो उस के तमाम पहलुओं पर एक साथ विचार किया जाना चाहिए। मुझे वहाँ की स्थानीय जटिलताओं के बारे में जानकारी नहीं है, लेकिन वे भी होंगी ही। समय मिला तो इस विषय की जटिलताओं पर अपनी समझ अपने ब्लाग पर व्यक्त करने का प्रयत्न करूंगा। फिलहाल छोटा सा कनफ्यूजिंग प्रश्न कि जब खुले बाजार में हर कोई अपनी वस्तु का विक्रय मूल्य तय कर रहा है तो किसान क्यों न करे?

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    1. मूल्य तय करे जरूर। पर जब देखो तब सॉफ्ट टार्गेट के रूप में हमारी रेल गाड़ियां तो न रोके! :-(

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  3. जब करोड़ों रुपया खर्च किया जाता है बनाने में, क्यों न इस तरह के संवेदनशील विषयों को लिपिबद्ध कर प्रस्तुत किया जाये। जिसे आपत्ति हो, उसका निराकरण खेत पर जाकर किया जाये।

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    1. पता नहीं, जमीन अधिग्रहण में उसका मृदा परीक्षण एक अंग होता है या नहीं – जमीन की कीमत के आकलन में। यह भी होना चाहिये!

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  4. सत्यवचन. लेकिन लाल झंडा वाले आपकी बात का बुरा ना मान जाएँ.

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  5. ऐसे मौके पर सब अपनी साधते हैं…तस्वीरें तो आगे पीछे खींची जाती रहेंगी इसी तरह..जरुरत के हिसाब से एंगल सेट कर लेंगे फाईल में.

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    1. इस लिये मैने तस्वीरें ही नहीं खींचीं – लगभग सब से पूछा भी, जिनसे मिला! और सभी ने कहा कि जमीन उपजाऊ नहीं है।

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  6. किसी जगह को आंखों से न देखा जाये तो सुनी सुनाई पर अपना मत बनाना बहुत गलत भी हो सकता है। सुबह-सुबह इससे सहमत हो लेने में कोई बुराई नहीं दिखती ! :)

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    1. सुबह सुबह आप बहुत सही बात कह रहे हैं – इसमें स्माइली लगा जोर न देते तो भी मानने योग्य थी! :)

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  7. यही कहानी औद्योगिक विकास के दौर में बार-बार और जगह-जगह दुहराई जा रही है. (चित्रों को देख कर जमीन के उपजाऊ होने का अनुमान कैसे हो सकता है, यह तो ‘हवाई’ सर्वेक्षण सा ही हुआ.)

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    1. राहुल जी, मैं जिससे भी मिला, उससे पूछा भी जमीन की उर्वरता के बारे में। और सब ने कहा भी कि वह जमीन वैसी ही है।

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  8. अक्सर, नदी किनारे की रेतीली ज़मीन अत्यल्प काल के लिये हरी दिखती है पर उसमें बढी हुई फसल को लम्बे समय तक सहारा देने की क्षमता नहीं होती। रेत के कणो का आकार भी कृषि योग्य मृदा से बडा होता है इसलिये केशिकत्व के कारण जल को भी अधिक समय तक रोक नहीं पाती है।

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    1. हां, यह देखा है। पर कई जगह गंगा के किनारे तक जमीन उपजाऊ भी है। शायद वह ऊंची और कटान रहित हो – करार वाली जमीन।

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