कुछ दिन पहले यहां पूर्वोत्तर रेलवे मुख्यालय में राजभाषा की त्रैमासिक बैठक हुई। बैठक में सामान्य आंकड़ेबाजी/आंकड़े-की-बाजीगरी के अलावा वाणिज्य विभाग के हिन्दी कार्यों की प्रदर्शनी थी। महाप्रबन्धक महोदय ने उसका निरीक्षण किया और ईनाम-ऊनाम भी दिया। रूटीन कार्य। हिन्दी की बैठकें रूटीनेत्तर कम ही होती हैं।

वेबज़ीन/नेट-पत्रिका बननी चाहिये?
एक बात हुई। महाप्रबन्धक महोदय ने हिन्दी पत्रिका के स्तरहीनता पर टिप्पणी की। वे छाप-छपाई और गेट-अप की बात कर रहे थे। मुझे लगा कि कितना भी हो, छपी पत्रिका का इम्पैक्ट अब वैसा नहीं रहा। अगर पत्रिका वेब पर आ जाये और उसपर पाठकीय इण्टरेक्शन भी हो सके तो उसकी पठनीयता कई गुणा बढ़ जायेगी। मैने अपना यह विचार व्यक्त भी किया।
पत्रिका के कण्टेण्ट के बारे में भी चर्चा हुई। सपाट कहानी, कविता, हास्य आदि की मंघाराम असॉर्टेड बिस्कुट छाप पत्रिका – जो सामान्यत: होती हैं; पाठक के लिये रोती हैं। आवश्यकता है कि रेल कर्मियों को उनकी रुचि के अनुसार बांधा जाये। उनके कार्य सम्बन्धी लेखन, विभागीय पत्रकारिता, अंतरविभागीय जानकारी आदि का होना पत्रिका को पुष्ट करेगा बनिस्पत लिक्खाड़ साहित्यकारों की दोयम दर्जे की नकल प्रस्तुत करने के। कई अन्य ने और मैने भी ऐसे विचार रखे। इन विचारों को व्यापक समर्थन मिला हो, बैठक में; वह मैं नहीं कहूंगा। पर विरोध नहीं हुआ।
रेलवे हिन्दी संकाय (?) चिरकुट साहित्य का लॉंचपैड है। भारत की बड़ी आबादी रेलवे का अंग है और वह हिन्दी में अभिव्यक्त होती – करती है। पर उस अभिव्यक्ति को यह संकाय सहारा देता या परिमार्जित करता हो, ऐसा नहीं लगता। यह आंकड़े चर्न करने और हिन्दी सेवा की खुशफहमी अहसासियाता विभाग है। पता नहीं, मुझे मु.रा.धि. बनाते समय मेरी हिन्दी पर इस आशय की पुरानी सोच का किसी को पता है या नहीं – अमूमन मुझे लगता है; कि हिन्दी में मुझे रेलवे के इतर लोग ही देखते-जानते हैं। इस लिये स्थापित हिन्दी के प्रति मेरी उदग्रता रेलवे में ज्ञात न हो, बहुत सम्भव है। पर कुछ समय से रेलवे वृत्त में भी लोग (कर्टसी फेसबुक/ट्विटर) पहचानने लगे हैं। ऐसे में शायद नेट पर रेलवे हिन्दी की उपस्थिति बेहतर बनाने में शायद मैं और (अब होने जा रही) मेरी टीम कुछ कर पाये।
बस मुझे मलाल रहेगा कि हिन्दी एस्टेब्लिशमेण्ट की अब मैं खुल्ला खेल फर्रुक्खाबादी आलोचना नहीं कर पाऊंगा! 😆
महाप्रबन्धक महोदय ने बताया कि आगे आने वाले समय में मुझे मुख्य राजभाषा अधिकारी, पूर्वोत्तर रेलवे का कार्य भी देखना है। अत: मेरे पास अवसर है कि अपने सोचे अनुसार यह वेबज़ीन लॉंच कर सकूं। अपनी बनने वाली टीम को इस विषय में गीयर-अप होने के लिये मैं कहने जा रहा हूं।
aak ki har baat 100%sahi hai
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पत्रिकायें न पढ़े जाने के कारणों में ही उनका समाधान छिपा है, पर बिना बहस में उतरे, कारण निकलें तो कैसे।
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अपनी हाँकता रह गया और आपको आपके नवीन दायित्व के लिये शुभकामनाएँ देना भूल गया!! शुभकामनाएँ!!
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अपने इतने दिनों के सेवाकाल में राजभाषा के नाम पर हिन्दी की दिल से सेवा की. सभी वार्षिक प्रतियोगिताओं में खड़े होकर अभिवादन सहित लगभग सभी सम्वर्गों में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किये. यहाँ तक कि समारोह में भाग लिया किंतु स्पर्धा से बाहर रहा.. लेकिन………………….. आज तक कभी गृह पत्रिका में कोई आलेख, निबन्ध, कथा-कहानी, कविता आदि प्रकाशन के लिये नहीं भेजा!
कारण बहुत कुछ ब्लॉग की तरह. लोग जब हमारे आलेख का छिद्रांवेषण करते हैं और वे लोग जिन्हें हिन्दी में किस अक्षर पर बड़ी ई की मात्रा लगेगी और किसपर छोटी इ की यह भी नहीं मालूम, वे नामवर सिंह की तरह टिप्पणी करते हैं, तो सिर भन्ना जाता है! तब से आजतक, एक ही मत्र का जाप किया है हिन्दी के नाम पर:
हम किए जाएँगे चुपचाप तुम्हारी पूजा,
कोई फल दे कि न दे हमको, हमारी पूजा!
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सर, आपके मार्गनिर्देशन राजभाषा विभाग निश्चय ही प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा. मेेरी भी यही सोच रही कि इस पत्रिका को रेलवे की वेबसाइट पर उपलब्ध कराई जानी चाहिए. व्यक्तिगत प्रयास से, जितना ज्ञान था, इसे पीडीएफ फार्मेट में कंवर्ट करके एक-दो अंक रेलवे की राजभाषा साइट के पत्रिका सेक्शन में अपलोड किया. परन्तु उच्चाधिकारियों द्वारा इस कार्य में प्रोत्साहन के अभाव में यह लंबित रह गया. अब आपके मार्गदर्शन में यह कार्य निश्चितरूप से किया जा सकेगा. आपकी टीम अपना सर्वश्रेष्ठ परफार्मेंस प्रस्तुत करने के लिए सदैव तैयार है.
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