रेलवे के किसी दफ्तर में चले जाओ – मुंह चुचके हुये हैं। री-ऑर्गेनाइजेशन की हवा है। जाने क्या होगा?! कोई धुर प्राइवेटाइजेशन की बात कहता है, कोई रेलवे बोर्ड के विषदंत तोड़े जाने की बात कहता है, कोई आई.ए.एस. लॉबी के हावी हो जाने की बात कहता है। कोई कहता है कि फलाना विभाग ढिमाके विभाग को धकिया कर वर्चस्व बना लेगा। मेकेनिकल वाले इलेक्ट्रिकल वालों को माड्डालेंगे। या ट्रेफिक वाले तो टग-ऑफ-वार हारते नजर आ रहे हैं, इत्यादि!
मैं यदा कदा बिबेक देबरॉय की ट्वीट्स देख लिया करता था कि शायद उसमें कुछ बात हो। फिर देखना बन्द कर दिया। बिबेक देबरॉय की कमेटी री-ऑर्गेनाइजेशन के मामले में अनुशंसा देने वाली है। सात सदस्यीय कमेटी एक साल लेगी। कुछ खबर आती है कि कुछ महीनों में ही अनुशंसा दे देगी। इस बीच दो और समितियां प्रकाश में आयी हैं – ई श्रीधरन कमेटी जो टेण्डरिंग, महाप्रबन्धकों और मण्डल रेल प्रबन्धकों की कार्यप्रणाली पर अपनी अनुशंसा देगी तथा डीके मित्तल कमेटी जो रेलवे रेलवे फिनांस में सुधार के बिन्दु बतायेगी। कुल मिला कर बहुत कुछ सुझाया जायेगा परिवर्तन लाने के लिये।
आप रेल अधिकारियों से बात करें तो हर किसी के पास कोई न कोई लुकमानी नुस्खा है रेलवे में परिवर्तन का। कोई बहुत व्यापक ढांचागत परिवर्तन की नहीं कहता। पर काम के तरीकों में बदलाव की बात सभी कहते हैं। आजकल कई जोनल रेलवे पर महाप्रबन्धकों की पोस्टें खाली पड़ी हैं और एक महाप्रबन्धक दो या दो से अधिक जोनों का काम देख रहे हैं। अधिकारी यह भी देख चुके हैं कि बेहतर संचार और वीडियो कॉंफ्रेंसिंग आदि की सुविधा से कम महाप्रबन्धकों से भी काम चल सकता है। शायद बेहतर कनेक्टिविटी से जोनल ऑर्गेनाइजेशन संकुचित कर प्रबन्धन को और चुस्त किया जा सके। पर हर कोई निर्णय त्वरित लेने और उनके कार्यांवयन की बात किसी न किसी प्रकार से करता पाया जाता है। यह भी बात उठती है कि महत्वपूर्ण इंफ्रॉस्ट्रक्चरल जरूरतें विगत में मुहैया नहीं हुई हैं और फालतू फण्ड के क्षेत्रों में पैसा लगा है।
जब मोदी जी की सरकार बनी थी – या यह तय लगता था कि 272 के आसपास आ ही जायेंगे सांसद और सरकार उनकी ही होगी तो सोशल मीडिया पर एक दो लोगों ने – जो प्रचार-प्रसार में सक्रिय थे, ने मुझसे कहा था कि रेलवे में कार्यपद्यति परिवर्तन के बारे में मेरे क्या विचार हैं। मैने कहा था कि मैं विभागीय अनुशासन से बंधा हूं। अत: कुछ कहना उचित नहीं है। अब भी लगभग वही कहता हूं। पर अब यह जरूर लग रहा है कि परिवर्तन की बात इतनी लम्बी खिंच रही है कि अनिश्चितता रेल कर्मियों को हतोत्साहित कर रही है। बेहतर यह होता कि रेलवे के काम में ईमानदारी से मेहनत करते लोगों के ऑउट-ऑफ-बॉक्स आईडिया सुने जाते और उनके आधार पर काम प्रारम्भ कर दिया जाता। ढ़ांचागत परिवर्तन होते तो समय के साथ जब होते तो होते रहते।
लोग टैचरिज्म की बात करते हैं कि मारग्रेट टैचर ने आते ही धाड़-धाड़ परिवर्तन कर दिये थे। भारत में मोदी जी ने परिवर्तन का वह मॉडल नहीं चुना है – ऐसा लगता है। पर मोदी जी के मॉडल पर कयास बहुत लगते हैं। उनके इंफॉर्मेशन सिस्टम को ले कर लोग कयास लगाते हैं। यह सोच लोगों में चर्चा में है कि उनके पास सामान्य पॉलिटीशियंस के अलावा भी चैनल है जो व्यापक क्षेत्रों में सूचनायें उनतक पंहुचाता है। अगर ऐसा है तो यह रेल दफ्तरों में चल रही हलचल भी उनके संज्ञान में होगी ही। परिवर्तन की प्रतीक्षा की बजाय परिवर्तन का चक्र धीरे धीरे ही सही, चलने लगे तो अच्छा लगेगा। परिवर्तन चालू हो जाये – भले निरंतरता के साथ परिवर्तन हो। परिवर्तन की प्रतीक्षा का नैराश्य न गहराये तो अच्छा हो।
आज सुधीर कुमार की Bankruptcy to Billions: How the Indian Railways Transformed ऑर्डर की है अमेजन.इन पर। यद्यपि उस समय के रेल के कार्य का मैं साक्षी/एक स्तर पर भागीदार रहा हूं और लालू प्रसाद जी का कोई प्रशंसक नहीं रहा। पर एक बार इत्मीनान से पुस्तक पढ़ने का मन हो आया है।
परिवर्तन तो जरूरी है। यह कितना कारगर होगा वह भविष्य ही बतायेगा पर मुझे लगता है परिवर्तन हो रहा हैष बहुत से लोगों की रिपोर्ट है कि रेल यात्रा थोडी अधिक सुथरी हो गई है।
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रेलवे को अगर वाक़ई सक्षम, सुचारु और फ़ायदेमंद बनाना है तो इसे वैसे ही चलाने की कोशिश करनी होगी जैसा यह है. यह अपने मूल रूप में एक तकनीकी आधारित व्यावसायिक संगठन है, जिसका एक मुख्य उद्देश्य जनसेवा है. ऐसे संगठन से आइएएस संवर्ग को बहुत दूर रखा जाना चाहिए. इसे सिर्फ़ तकनीकी और व्यावसायिक मामलों में दक्ष लोगों के हाथों में होना चाहिए. हाँ, चूंकि जनसेवा इसका एक मुख्य उद्देश्य ही नहीं, इसके मार्फ़त भारत की ज़रूरत भी है, इसलिए इसकी नीतियाँ तय करने में सामाजिक कार्यों से जुड़े लोगों की भूमिका भी होनी चाहिए. लेकिन, यह भूमिका इतनी भी न हो कि रेल और घाटे में चली जाए.
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कोई भी परिवर्तन बड़ा भारी सा लगने लगता है हमें, बिना यह जाने कि यह लाभप्रद है कि नहीं। पीड़ा को पचाने की आदत सी हो गयी है, कष्ट है कि दिखता ही नहीं। स्वीकार कर लें नहीं तो थोपा जायेगा परिवर्तन। समय की थाप पर चलना सीखना होगा भारतीय रेल को। देश की अपेक्षाओं से दूर सरक रहे हैं हम।
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आपके इस आलेख में कमोबेश अपने विभाग की व्यथा/व्यवस्था देख रहा हूँ. पता नहीं क्यों मेरा विश्वास कभी इन आयोगों पर नहीं रहा. वे लोग आयोग के सदस्य होते हैं जिन्हें ज़मीनी हक़ीक़त से कभी कोई सरोकार न रहा होता है. अगर सूचना प्रौद्योगिकी की बात करें तो क्यों न एक समय सीमा के अंतर्गत उन सभी अनुभवी अधिकारियों से (जो आपकी तरह विभागीय अनुशासन से बँधे होने के कारण महसूस तो करते हैं, लेकिन कहने में असमर्थ हैं) बाकायदा एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट याचित कर, उसका विश्लेषण कर, व्यावहारिक बदलाव लाने वाली सिफ़ारिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत की जाए.
एक पुरानी कहावत है कि हमारे देश में सलाह देने वालों की बहुतायत है, लेकिन क्या पता कौन सी सलाह आने वाले समय की “दशा और दिशा” बदल दे!!
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सहमत हूँ। विषय विशेषज्ञता और लंबा जमीनी अनुभव भी कोई चीज़ होती है इस बात को तथाकथित आयोग बुहारकर दड़ी के नीचे फेंक देते हैं। समस्या का हल अक्सर वे लोग सुझाते हैं जो समस्या को ठीक-ठीक पहचान भी नहीं सकते। खैर, दुनिया ऐसी ही चलती रही है शायद।
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