कैथी और कांवरिये

कैथी के गंगा तट पर कांवरिये
कैथी के गंगा तट पर कांवरिये

पिछले शनिवार वाराणसी से औंडिहार जाते हुये सब ओर कांवरिये दिख रहे थे। बनारस आते हुये – उनके कांधे पर डण्डी और उससे लटकी छोटी छोटी प्लास्टिक की लुटिया/कमण्डल में गंगा जल। डण्डी अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार सजाई हुयी – फूलों और आम की टेरियों से सजाने का युग अब समाप्त हो गया है। उनके स्थान पर प्लास्टिक की झालर, प्लास्टिक के ही फूल और बन्दनवार थे। धर्म और श्रद्धा का प्लास्टिक और प्रदूषण से वैर अभी नहीं हुआ है। कोई शंकराचार्य अभी नहीं जन्मे जो प्लास्टिक को धर्म विरोधी घोषित करते हों। विश्व हिन्दू परिषद भी ऐसा नहीं कहती, शायद।

उनके वस्त्र यद्यपि गेरुआ थे। पर अपेक्षानुसार मॉडर्न भी। टी-शर्ट और घुट्टन्ना गेरुआ रंग में। अधिकांश नंगे पैर थे। एक दशक बाद शायद रीबॉक गेरुआ रंग के स्पोर्ट्स शू निकाल दे तो वे फैशन में आ जायें। अभी तो लग रहा था कि अधिकांश के पैर में छाले पड़े हुये थे और उनकी चाल थकान या छालों के कारण धीमी हो चली थी। गनीमत थी कि बारिश के कारण सड़क गीली थी। तप नहीं रही थी।

मार्कण्डेय महादेव के बाद परिदृष्य बदल गया। उसके बाद ट्रक या ट्रेक्टर टॉली में झुण्ड के झुण्ड कांवरिये आने लगे – वे कैथी के तट पर गंगाजी से जल उठा कर चलने के लिये जा रहे थे।

जाती बार तो हम औंडिहार चले गये – रेलवे के काम से। पर वापस लौटते हुये वाहन को गंगा तट पर मोड़ लिया कैथी में। मुख्य सड़क से उतर कर करीब दो किलोमीटर दूर है कैथी का गंगा तट। वहां जाते कई वाहन – ट्रक, ट्रेक्टर-ट्रॉली और टेम्पो/ऑटो भरे हुये थे कांवरियों से। वापसी में पैदल आते हुये कांवरिये दिख रहे थे।

कैथी में जल लेने, रंगबिरंगे ऑटो में आये कांवरिये।
कैथी में जल लेने, रंगबिरंगे ऑटो में आये कांवरिये।

गंगा तट पर पंहुचते पंहुचते बारिश होने लगी। चिरैया उड़ान बारिश – कभी होती तो कभी रुक जाती। तट पर एक मेक-शिफ्ट दुकान के आगे मैं रुक गया बारिश से बचने को। उसमें कांवरियों के काम की सभी सामग्री बिक रही थी। कपड़े, रामनामी थैले (उनपर शंकर जी के चित्र, बोल-बम का नारा आदि छपे थे), प्लास्टिक की लुटिया/कमण्डल, डण्डी, प्लास्टिक के जरीकेन (2-3 लीटर क्षमता वाले) आदि थे।

एक कांवरिये ने फरमाइश की – प्लास्टिक की लुटिया की बजाय मिट्टी की नहीं है?

दुकान में बिकती कांवरियों की सामग्री
दुकान में बिकती कांवरियों की सामग्री

दुकानदार ने तड़ से जवाब दिया – “नहीं, मिट्टी वाली प्रशासन ने बैन कर दी है।”

लगा कि प्रशासन वह ढ़ाल है जिसे वैध-अवैध सब काम के लिये अड़ाया जा सकता है। … वैसे प्रशासन अगर प्लास्टिक की लुटिया/जरीकेन बैन कर दे तो पर्यावरण का बड़ा फायदा हो।

कांवरिये स्नान कर रहे थे और गंगाजल भर कर रवाना हो रहे थे। कुछ स्त्रियां भी थीं। मुझे बताया गया कि वे जल ले कर आस पास अपने गांवों के शिवालय पर चढ़ाती हैं। पुरुषों की तरह बाबा विश्वनाथ के मन्दिर तक नहीं जातीं काशी की ओर। कुछ कांवरिये स्नान के बाद अपना फोटो खिंचा रहे थे। वापस रवाना होते समय कुछ चंचलमन दिखे बोल-बम का नारा लगाते; पर कुछ ऐसे थे, जो श्रद्धा में सिर झुकाये धीमे धीमे भगवान का नाम बुदबुदा रहे थे। कुल मिला कर धार्मिक श्रद्धा गहरे में दिखी – कहीं सामुहिक, कहीं व्यक्तिगत। वह श्रद्धा मुझे भी छू ले रही थी। मुझे भी और मेरे कैमरे को भी।

सम्पत की नाव
सम्पत की नाव

एक मल्लाह अपनी सुन्दर सी नाव किनारे पर ले आया और आग्रह करने लगा कि मैं नाव पर घूम आऊं – किनारे किनारे कैथी से गोमती संगम तक। प्रति व्यक्ति 30 रुपया किराया। 10 आदमियों के बैठने की जगह। गंगाजी बढ़ी हुई थीं – सो हम लोगोंने मना कर दिया।

सम्पत के साथ मैं। नेपथ्य में उसकी नाव।
सम्पत के साथ मैं। नेपथ्य में उसकी नाव।

मैने उसके साथ उसकी नाव के आगे खड़े हो कर चित्र खिंचाया। प्रवीण पाण्डेय जी ने खींचा और मुझे मोबाइल से ही ट्रांसफर कर दिया। मल्लाह, नाम सम्पत, ने कहा कि उसे कुछ तो दे दूं मैं। सो फोटो खिंचाई के दस रुपये दे दिये मैने। हमारे सह कर्मी ने उससे चुहुल की कि अब तक तो वह मछली पकड़ता था, अब कैसे पर्यटन कराने लगा। सम्पत ने कसम खाते हुये कहा कि वह सावन में कत्तई मछली नहीं पकड़ता। पर उसके चेहरे पर जो मुस्कान थी, वह बता रही थी कि वह सच नहीं कह रहा।

यह मछलियों का प्रजनन समय है। मल्लाह इस समय मछली पकड़ना बन्द कर देते हैं। पर यह नियम पालन करने वाले कम से कमतर होते जा रहे हैं। गंगा माई की ऐसी तैसी करने मे यह भी एक घटक है। आदमी अपनी हाही (लालच) के लिये गंगाजी के साथ कितनी निर्दयता कर रहा है – कितना गिना, गिनाया जाये। और अकेले सम्पत पर काहे उंगली उठाई जाये। :sad:

सांझ हो चली थी। हम लोग लौट चले कैथी से।

कैथी की सांझ
कैथी की सांझ

Published by Gyan Dutt Pandey

Exploring rural India with a curious lens and a calm heart. Once managed Indian Railways operations — now I study the rhythm of a village by the Ganges. Reverse-migrated to Vikrampur (Katka), Bhadohi, Uttar Pradesh. Writing at - gyandutt.com — reflections from a life “Beyond Seventy”. FB / Instagram / X : @gyandutt | FB Page : @gyanfb

4 thoughts on “कैथी और कांवरिये

  1. Mahodaya, I am a huge fan of yours; in fact I follow you and Shiv ji for the almost unbridled nostalgia your writing, the accompanying pictures and the simplicity of your lifestyle bring to my day.
    I am enrolling my ma for receiving new posts via mail, so she can relive her young, married days, following my father who was posted in similar places.
    Many thanks, Shriman, and I hope to be interacting with you a lot more.

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  2. Kanwar
    I year hamane kolkata me baht del he hain Chaurangee part ,Kawad ka bar samhalte lagbhag daudte se. Kawa gende keep mala on se sajee. Mitti kee ya tambe kind kalsi ke sath.

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