मई 27-28, 2020, विक्रमपुर, भदोही।
गांव, गांव ही रहेगा। मैं सोचता था कि गांव हाईवे के किनारे है, गांव के बीच में एक रेलवे स्टेशन है। रेल का दोहरीकरण हो रहा है। रेलवे लाइन का विद्युतीकरण भी हो चुका है। शायद निकट भविष्य में मेन लाइन इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट (मेमू) वाली गाड़ियां भी चलने लगें। सड़क और रेल, दोनो पर त्वरित यातायात इसे शहर की तरह की आने जाने की सुविधा भी देगा और गांव के खुले पन का आनंद भी। पर गांव की अपनी एक गहन संकीर्णता होती है और दूसरे की जिंदगी में ताकझांक की प्रवृत्ति भी तीव्र होती है। समय बहुत होता है, स्वाध्याय की आदत विकसित नहीं होती तो परनिंदा में लोगों को रस मिलता है। इस नेगेटिविज्म का अनुभव लगभग रोज होता है। अपने को उससे अलग रख कर निस्पृह बने रहना कठिन है। कुछ सीमा तक मैं कर पाता हूं, पर कभी कभी उसमें बह भी जाता हूं। आज दिन परनिंदा वाला था। लगता है गांव की वृत्ति हावी रही मन पर।

कोरोना काल में खीझ, एकाकीपन, औरों की दोषदर्शिता आदि मन को उद्विग्न करते हैं कभी कभी। और जब प्रसन्न होने के कारक नहीं दीख पड़ते, जब कोरोना संक्रमण के आंकड़े अपेक्षा से अधिक बढ़ते नजर आते हैं, जब देसी विदेशी समाचारपत्र भी नैराश्य परोस रहे होते हैं, जब बाजार का दुकनदार भी सलाह देता है “आपकी उम्र में बच कर रहना चाहिये”, तब लगता है कि घर के किसी कोने में दुबके रहें। कोई किताब भी पढ़ने का मन नहीं होता। पूरा दिन बीत जाता है।
कहते हैं, पुरवाई चले तो आलस आता है। शायद वही हो रहा है। मौसम तप रहा था। पछुआ हवा थी – गर्म और सूखी। शाम के समय हल्की आंधी आई और बिजली गायब। रात भर नहीं रही। नींद उखड़ी उखड़ी सी रही। दिन में जब तब आंखें झपक जाती थीं। बिजली नहीं, इण्टरनेट भी उखड़ा उखड़ा सा। प्रसन्न होने के कोई कारण ही नहीं बन पा रहे थे। जाने कैसे विक्तोर फ्रेंकल नात्सी कंसंट्रेशन कैम्प में भी अपना मन स्थितप्रज्ञ बना सकते थे। यहां, कोरोना काल में इस गांव में बिना बिजली, तपते हुये समय में गुजार कर देखते…
पूर्वांचल में प्रवासी आये हैं बड़ी संख्या में साइकिल/ऑटो/ट्रकों से। उनके साथ आया है वायरस भी, बिना टिकट। यहां गांव में भी संक्रमण के मामले परिचित लोगों में सुनाई पड़ने लगे हैं। इस बढ़ी हलचल पर नियमित ब्लॉग लेखन है – गांवकाचिठ्ठा https://gyandutt.com/category/villagediary/ |
वैसे दो दिन से कोई कोविड़19 संक्रमण का मामला आसपास के इलाके में नजर नहीं आया। आसपास के जिलों में मामले बढ़े जरूर पर बढ़ने की रफ्तार पहले से कुछ कम रही; भले ही देश की रफ्तार से ज्यादा ही रही। गांव देहात में मामले बढ़ रहे हैं, पर लगता है जनता कुछ सचेत है। शहरों की भीड़ यहां नहीं है। लोग खोंचा या मास्क उतना पहने नहीं दिखते, पर मुंह पर गमछे की आड़ बनाये दिखते हैं। दुकानदार ज्यादा सतर्क हैं। विशेषकर दवा के दुकानदार। दो दवा के दुकानदारों ने तो सामने शीशे का स्क्रीन जैसा बनवा कर ग्राहक से दूरी बनाने का इंतजाम कर लिया है। दवा की दुकान पर बीमार के आने और संक्रमण के फैलने की सम्भावना ज्यादा है। इस लिये उनका यह इंतजाम मुझे सही लगा। उन दुकानों पर शुरू में मास्क, सेनीटाइजर, हैण्डवाश जैसी चीजें नहीं थीं। अब इन सबका पर्याप्त स्टॉक दिखता है। एक दुकान पर तो 3-5 लीटर के प्लास्टिक के डिब्बे भी दिखे सेनीटाइजर के। उनके दाम भी, पहले की अपेक्षा काफी वाजिब हैं।
दवा की दुकानों पर आयुर्वेदिक दवाईयां – अश्वगंधा, गिलोय वटी, गिलोय रस, चंद्रप्रभा वटी, घृतकुमारी (येलोवेरा) आदि भी पर्याप्त उपलब्ध हैं और बिक रहे हैं। जब कोरोना वायरस की कोई दवा नहीं है तो सारा जोर शरीर की रोग-प्रतिरोध क्षमता की ओर लगा रहे हैं (आर्थिक रूप से समर्थवान) लोग। हमारे घर में भी इन्ही सामग्रियों पर जोर दिया जा रहा है। दालचीनी, कालीमिर्च, लौंग, गुरुच, अदरक और हल्दी का काढ़ा दिन में दो बार पिया जा रहा है। रात में दूध के साथ हल्दी का सेवन हो रहा है। यह सब होने पर भी संक्रमण का भय जा नहीं रहा। गले में हल्की सी खराश होने, या एक दो छींक आने पर मन में पिछले दो-चार दिनों की सारी कॉन्टेक्ट-ट्रेसिंग होने लगती है।
अदृष्य शत्रु से लड़ा भी जाये तो कैसे लड़ा जाये।

पर कई लोग पूरी तरह बेफिक्र नजर आते हैं! सवेरे गंगा किनारे नावों के पास बैठे नौजवान उसी प्रकार के हैं। आपस में चुहुलबाजी करते। उनमें से एक नौजवान बार बार मुझे उसका चित्र लेने के लिये कहता है। वह आटा सान रहा है एक दोने में। बताया कि मछली पकड़ने के लिये चारा बना रहा है। फोटो खिंचाने के लिये पोज बना कर खड़ा हो जाता है। अगले दिन वह फिर मिलता है। मैं पूछता हूं – मछली मिली?

“नहीं, सब बदमास हैं। ये कंटिया वाला डण्डा भी टूट गया उनके चक्कर में; पर मिली नहीं।”
वहीं पर राजेश मिला। राजेश सरोज। वह बम्बई गया था। वहां से मुझे फोन पर बताया था कि किसी मछलीमार नौका में स्थान बनाने का यत्न कर रहा है। अब यहां गंगाकिनारे बताया कि बम्बई से वापस आ गया है। लॉकडाउन के पहले ही आ गया था। तब ट्रेने चल रही थीं। बाकायदा टिकट ले कर ट्रेन से आया था। अब बालू हेण्डलिंग में काम कर रहा है। वह अन्य मजदूरों के साथ ट्रेक्टर ट्रॉली में बालू लाद रहा था।

राजेश को मैं चार साल से जानता हूं। अवधेश की चाय की चट्टी पर मिला था। उस समय उसका पहला बच्चा – एक लड़की – हुआ था। काफी दबाव में था। बताया कि घर के खर्चे बढ़ गये हैं। जल्दी ही वह बम्बई जायेगा। पहले भी जा चुका है। किसी मछली वाले जहाज पर नौकरी करेगा।
बाद में उसे कई बार बम्बई जाते-आते देख चुका हूं। सरल है राजेश। घरेलू जीव। शायद मन गांव में रहने को करता है और आर्थिक जरूरतें उसे बम्बई की ओर ठेलती हैं। उसके जैसे कई हैं जो गांव-बम्बई; बम्बई-गांव के बीच लटकते-पटकते रहते हैं। अब देखें कब तक वह गांव में रहता है। फिलहाल जो संक्रमण और अर्थव्यवस्था की दशा है; उसके हिसाब से निकट भविष्य में बम्बई जाना सम्भव तो नहीं लगता।
आज शाम गुन्नी पाण्ड़े आये थे। एक सज्जन की दशा बता रहे थे। दो शादियां हुई थीं उन सज्जन की। पहली से एक लड़का है जो नौकरी कर रहा है। पहली पत्नी के देहावसान के बाद दूसरी शादी हुई तो उससे चार लड़के हैं। चारों ही अकर्मण्य। बेचारे बुढापे के वानप्रस्थाश्रम में भी उन सब की जीवन-गाड़ी हाँकने को खट रहे हैं। प्रारब्ध।
आसपास देखें तो जो दुख, जो समस्यायें, जो जिंदगियां दिखती हैं, उनके सामने कोरोना विषाणु की भयावहता तो पिद्दी सी है। पर जैसा हल्ला है, जैसा माहौल है; उसके अनुसार तो कोरोना से विकराल और कुछ भी नहीं।
यह समय भी निकल जायेगा। This time will also pass.
ऊबिये नही पांडेय जी , अपनी दिंनचर्या और खानपान जैसे चला रहे है वैसे ही चलाते रहिये और हौसला बनाये रखिये / आपको एक माह पहले ही आगाह कर दिया था कि कोरोना का कोई इलाज नही है / अब फिर आगाह कर रहा हू कि आयुर्वेद की ओर आइये और आयुष इलाज को प्राथमिकता दीजिये / क्योंकि आयुष के इलाज से ही इम्यू निटी बढेगी और बीमारी से बचाव भी होगा / किसी पास के आयुष डाक्टर के सम्पर्क मे रहे और सलाह भी ले / हमारा चैनल भी देखते रहे / जो रोजाना कार्यक्रम प्रसारित करता है / http://www.youtube.com/drdbbajpai aur http://www.facebook.com/Ayurshworld Broadcast
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धन्यवाद बाजपेयी जी ।
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