बच्चों के लिये नयी नयी तरह की साइकिलें आ गयी हैं। इक्कीसवीं सदी में बचपन गुजारने वाली शहराती नयी पीढ़ी ने गैजेट्स में उपभोक्ता की महत्ता का विस्फोट देखा है। तीन साल के बच्चे को दो पहिये वाली साइकिल ले कर दी जाती है। छोटे पहिये की उस साइकिल में पीछे दोनो ओर अतिरिक्त दो छोटे पहिये जुड़े होते हैं जिससे बच्चा चलाना भी सीख सके और उसे गिरने से बचाने को टेका भी मिलता रहे।
मेरी पोती चिन्ना पांड़े ने वैसी ही साइकिल से शुरुआत की है। अब उसे कुछ बड़ी साइकिल ले कर देनी है।शायद उसके अगले जम्नदिन पर। बच्चा जब तक बड़ा होता है, तीन चार साइकिल बदल चुका होता है। यह भी हो सकता है कि वह साइकिल चलाना सीखने के पहले स्कूटर या मॉपेड/मोटर साइकिल चलाना सीख जाये।

हमारे बचपन में घर में एक साइकिल होती थी। तेईस या छब्बीस इंच के चक्के वाली बड़ों की साइकिल। गांव में तो सम्भावना होती थी कि वह साइकिल किसी को दहेज में मिली हो। उसी साईकिल से बच्चे चलाना सीखते थे। छोटे बच्चे उचक कर सीट पर तो बैठ ही नहीं सकते थे। बिठा भी दिये जायें तो पैडल तक उनके पैर नहीं पंहुचते थे।
अत: साइकिल सीखना कैंची चला कर ही सम्भव होता था। सीट के नीचे के सड़क के समांतर डण्डे के नीचे दांयी टांग निकाल कर दांये पैडल पर रखते हुये साइकिल चलाना और दो चक्कों पर गतिमान हो कर बैलेंस बनाना कुछ कठिन काम था, पर उसके सिवाय कोई चारा नहीं था।
हम सभी साइकिल की कैंची युग के जीव हैं! मेरे पिताजी की रेले ब्राण्ड साइकिल हुआ करती थी, जिससे वे पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर दफ्तर जाया करते थे। छुट्टी के दिन साइकिल चलाने-सीखने को मिलती थी। उसपर अपने ही प्रयत्न से चलाना सीखा। कैंची सीखी, उसके बाद उचक कर सीट पर बैठने का अभ्यास और फिर पूरी तरह चलाने की सनद पायी। याद तो नहीं है, पर सीखने की प्रक्रिया में घुटने छिले जरूर होंगे, जिनपर गरम हल्दी का लेप और घर में पुरानी कमीज-बनियान फाड़ कर पट्टी बांधी गयी होगी। आजकल की तरह घर में कोई फर्स्टएड बॉक्स तो होता नहीं था। ले दे कर एक दवा – बर्नॉल और एक पीने की दवा – अमृतधारा घर में पायी जाती थी। वह भी अड़ोस-पड़ोस में उधार दी-ली जाती थी। अभावों की पीढ़ी रही है हमारी।

उस दिन गांव में एक बच्चे को कैंची चला कर साइकिल साधते देखा तो बचपन की सारी स्मृतियां कौंध गयीं। यह गांव है, जहां भारत कुछ कुछ वही है, जो मेरे बचपन में हुआ करता था। यद्यपि यह भी मेरे बचपन के युग से कहीं ज्यादा सम्पन्न है। पर अभाव के चिन्ह हैं जरूर और गांव ने अभी भी इतने कार्बन फुटप्रिण्ट्स नहीं छापे हैं कि असहजता और अपराध बोध हो। बस; पत्तल की बजाय प्लास्टिक और थर्मोकोल का अपराध जरूर कर रहा है गांव।
पर अभी भी बच्चे कैंची चला कर ही बड़े हो रहे हैं। जिस साइकिल पर कैंची सीख रहे हैं, वह भी कोई नई नहीं है। उतनी ही पुरानी है, जितनी मेरे बचपन में – पचपन साल पहले – हुआ करती थी। भारत बहुत बदला है, पर अभी भी किसी न किसी मायने में जस का तस है। भारत और इण्डिया के बीच की खाई बहुत बढ़ी है। वह कैंची सीखती साइकिल से नहीं नापी जा सकती।