शैलेंद्र चौबेपुर के हैं। यहां मर्यादी वस्त्रालय के बेसमेंट में दुकान खोली है। मनिहारी, जनरल सामान, प्रसाधन और जूते चप्पल – ये सब रखा है दुकान में। पहले नजर में इस सब चीजों की एक दुकान का कॉन्सेप्ट समझ नहीं आता। पर शैलेंद्र से बात करने पर लगा कि, बाभन होने के बावजूद उन्हें समझ है दुकानदारी की।
ऊपर मर्यादी स्टोर में लोग शादी के कपड़े खरीदते हैं। दुल्हा-दुल्हिन का शादी की पोषाक भी मिलती है वहां। वह खरीदने के बाद ग्राहक टिकुली-बिंदी-प्रसाधन-जूता आदि की दुकान का रुख करते होंगे। उस ग्राहकी का दोहन शैलेंद्र अपनी दुकान में बखूबी कर पायेंगे। कस्बाई स्तर पर यह कॉम्प्लीमेण्ट्री थीम की दुकान खोलने का आईडिया अच्छा लगा। शैलेंद्र (कामना है) की दुकानदारी के व्यवसाय में कई मुकाम तय करेंगे।
“दुकान खोलने के लिये मेरे पास कटका पड़ाव (अपने गांव) का विकल्प था। पर वहां इतने और हर दिशा से आने वाले ग्राहक नहीं मिलते। यहां ग्राहक दो-तीन दिशाओं से मिल जायेंगे। दूसरे, ऊपर के वस्त्रालय वाले खरीदने आने वाले ग्राहक तो हैं ही।”
शैलेंद्र के व्यवहार के कारण मैंने जहां सौ-सवा सौ रुपये की खरीददारी करनी थी, जब वहां से निकला तो पांच सौ की खरीददारी कर चुका था।
जातिगत व्यवसाय के बदलाव मुझे आकर्षित करते हैं। ब्राह्मण-क्षत्रिय की नयी पीढ़ी के पास नौकरियां नहीं हैं। माँ-बाप इंजीनियरिंग/मैडीकल/सिविल सर्विसेज की कोचिंग के लिये अपनी औकात के बाहर खर्च कर अपने बच्चे को ट्यूशन करवाते हैं। अधिकांश मामलों में बच्चा चार पांच साल वह लीप पोत कर क्लर्की, थानेदारी, या चपरासी की नौकरी के लिये आवेदन करता है। उसमें भी गजब की घूसखोरी चलती है। इन सब उपक्रमों के बावजूद एक बड़ी फौज – अनएम्प्लॉयड और अनएम्प्लॉयेबल – बनती जा रही है।
उस दर्दनाक और चरित्रहीन प्रक्रिया की सुरंग में घुसने की बजाय अगर शैलेंद्र चौबे जैसा नौजवान इस तरह की दुकान खोलता है और दुकान चलाने लायक पर्याप्त विनम्रता और व्यवसायिक काबलियत पाने की जद्दोजहद करता है तो उसकी प्रशंसा करनी ही चाहिये।
शैलेंद्र चौबे की दुकान पर दुगनी खरीद करना मुझे खल नहीं रहा। चलते चलते उसका धन्यवाद देना और दुकान पर आते रहने का अनुरोध करना अच्छा लगा। यह व्यवहार, जब उसकी दुकान चलने लगे और आगे और विकसित हो, तब भी कायम रहे; इसकी अपेक्षा करता हूं।
छोटे स्तर पर ही सही; एक सवर्ण नौजवान की सरकारी नौकरी की मरीचिका से पार निकलने की कोशिश बहुत अच्छी लगी!
