जन्मदिन पर बहुत से लोगों ने शुभकामनायें दीं। सोशल मीडिया में जन्मदिन की शुभकामनायें ठेलने का रिवाज है। लोग आलसी भी हों तो फेसबुक वाला जबरी ठिलवाता रहता है। प्रियंकर जी रस्म अदायगी वाले अन्दाज में नहीं, हृदय के कोर से दिये मुझे शुभकामनायें। उनका ई-मेल मिला।
उसमें शुभकामनाओं के साथ एक लम्बी हिंदी पुस्तकों की सूची थी तथा उपहार स्वरूप एक पुस्तक की पीडीएफ प्रति भी –
“साथ ही रसूल हम्जातोव की अनुपम गद्य-पुस्तक ‘मेरा दागिस्तान’ आपको जन्मदिन के उपहार की तौर (पीडीएफ फॉर्म में) भेज रहा हूं . यह मेरी सर्वाधिक प्रिय पुस्तकों में से एक है . हम्जातोव का गद्य कविता को नाकों चने चबवाता भावपूर्ण गद्य है . वैसे भी पुस्तक सूची में आपको कविता के प्रकोप से बचा कर रक्खा है ।” 🙂
पुस्तकों की लम्बी सूची में हिन्दी के उत्कृष्ट फिक्शन और नॉन-फिक्शन थे। वह सब जिसे पढ़ने में मुझे शायद एक दशक लग जाये।
फेसबुक नोट्स में नवम्बर 19′ 2017 को पब्लिश की गयी पोस्ट।
मैने यह सूची उनसे इस लिये मांगी थी कि वे पुस्तकें पढ़ कर हिन्दी भाषा में मेरा शब्द ज्ञान 2000 से बढ़ कर पांच सात गुणा हो जायें। वे शब्द जिनके साथ सोना-जागना हो। पहले तो प्रियंकर जी ने यह कह कर टालने की बात की थी कि कोई आवश्यकता नहीं है – मेरा शब्द ज्ञान पर्याप्त है। पर बाद में मेरी बात मान कर यह ई-मेल भेज दिया।

पर असल चीज, असल उपहार वह सूची नहीं, रसूल हम्ज़ातोव का हिन्दी अनुवाद में उपन्यास था – मेरा दागिस्तान। रसूल हम्ज़ातोव (रूस के) काकेशिया के दागिस्तान के अवार भाषा के कवि थे। यह उनकी गद्य रचना है। और क्या गजब की रचना। यह उनके गांव त्सादा के इर्द-गिर्द घूमती पुस्तक है। एक गद्य काव्य। ज्यादा इस लिये नहीं लिखूंगा कि – 1) प्रियंकर जी को मेरे पठन का उथलापन स्पष्ट हो जायेगा और; 2) अभी पढ़ने में जो आनन्द आ रहा है, उसे शब्दों में समेटना सम्भव नहीं लग रहा।

मैने उनके द्वारा भेजी गई पीडीएफ़ प्रति को किण्डल के अनुसार परिवर्तित किया और अब किण्डल पर पढ़ रहा हूं। जन्मदिन पर इससे बेहतर कोई उपहार नहीं हो सकता था। प्रियंकर जी, सुन रहे हैं न?!
मेरा दागिस्तान के बारे में कल अपनी पत्नीजी से चर्चा कर रहा था – रसूल जैसी दृष्टि मेरी क्यों नहीं? अपने गांव को ले कर क्यों मैं छिद्रान्वेशी बनता जा रहा हूं। उसके लोगों, बुनकरों, महिलाओं, मन्दिरों, नीलगायों, नेवलों-मोरों में मुझे कविता क्यों नहीं नजर आती। नदी, ताल और पगडण्डियां क्यों नहीं वह भाव उपजाते? क्यों मन में रागदरबारी जैसा व्यंग ही घूमता रहता है? कहीं न कहीं गलती मेरे अपने मन में है। मुझे अपना कोर्स करेक्शन करना चाहिये।

इसी भाव से आज सबेरे घर से निकला बटोही (साइकिल) के साथ। द्वारिकापुर में गंगा तट पर दृष्य बहुत आनन्ददायक था। मछली पकड़ने-खरीदने वालों के अलावा आज मुझे सोंईस कई बार उछलती दिखी। लगता है, सरकार ने जो कुछ भी किया है, उससे प्रदूषण कुछ कम हुआ है और सोंईस (गांगेय डॉल्फिन) की संख्या बढ़ी है।

सोंईस के अलावा मुझे बनारस से बिन्ध्याचल लौटती सैलानी वाली तीन पाल वाली डोंगियां भी दिखीं। अपने परिवेश के बारे में आज सब कुछ काव्यात्मक था। पर वापस लौट कर साइकिल का ताला खोला तो नजर पड़ी कि आगे वाले पहिये में हवा नहीं है। देखा तो पीछे वाला पहिया भी वैसा ही था। किसी व्यक्ति ने दोनो पहियों के वाल्व (छुछ्छी) चुरा लिये थे।
“काव्य से कर्कशता के मोड में चला गया मन। गंगा के करार पर उतरते-चढ़तें मेरे गठियाग्रस्त घुटने थक कर चूर थे। पत्नीजी को फोन किया तो उल्टा सुनने को मिला – मैं तो पहले ही कहती थी कि कहां ऊचे-खाले घूमते रहते हो!”
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काव्य से कर्कशता के मोड में चला गया मन। गंगा के करार पर उतरते-चढ़तें मेरे गठियाग्रस्त घुटने थक कर चूर थे। ऐसे मे साइकिल ढो कर ले चलना मेरे लिये सम्भव नहीं था। मेरी कार का ड्राइवर भी आज रविवार होने के कारण आने वाला नहीं था कि कार बुला कर घर लौटा जाये। पत्नीजी को फोन किया तो उल्टा सुनने को मिला – मैं तो पहले ही कहती थी कि कहां ऊचे-खाले घूमते रहते हो!
भला हो राजन भाई मेरे साथ थे। उन्होने पता किया कि उस गांव में हरिजन बस्ती में एक साइकिल रिपेयर करने वाला है। मैं कुंये की जगत पर बैठा और वे अपनी साइकिल मेरे पास छोड़ मेरी साइकिल ठीक करवाने गये।
इस दौरान कौतूहल वश लोग आते जाते मुझे देख रहे थे। एक ट्रेक्टर वाला रोकने की मुद्रा में आया, फिर चलता चला गया। रोज सवेरे गंगा स्नान को आने वाले रिटायर्ड मास्टर चौबेजी गुजरे। उन्होने मुझसे पूछा – क्या हुआ? मैने बताया कि कोई मेरे साइकिल के पहियों के वाल्व चुरा ले गया है।
“मैं कन्फ्यूज हो गया – गांव को किस नजर से देखूं – रसूल हम्ज़ातोव का त्सादा गांव मानूं या श्रीलाल शुक्ल की “रागदरबारी” का शिलिर-शिलिर जीने वाला शिवपालगंज?“
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मुझे लगा कि वे सहानुभूति में कुछ कहेंगे। पर वे “अच्छा-अच्छा” कह कर आगे बढ़ गये। मानो कोई खास बात नहीं हो।
राजन भाई साइकिल ठीक करा कर लौटे। उस साइकिल वाले ने छुछ्छियां लगाईं और हवा भरी। कोई पैसा भी नहीं लिया। एक ही गांव में छुछ्छी-चोर भी निकले और निस्वार्थ सहायता करने वाले भी।
मैं कन्फ्यूज हो गया – गांव को किस नजर से देखूं – रसूल हम्ज़ातोव का त्सादा गांव मानूं या श्रीलाल शुक्ल की “रागदरबारी” का शिलिर-शिलिर जीने वाला शिवपालगंज?
(पोस्ट में रसूल हम्जातोव के चित्र विकीपीडिया से, साभार)
