एक सप्ताह पहले राजबली को खिन्न पाया था। वे एक गुमटी बना रहे थे। बताया कि किसी ग्राहक के लिये नहीं, घर के बाहर लगेगी और पोता उसमें दुकान लगायेगा। पान मसाला बेचेगा।
“अरे, आप लोग तो कारीगर हैं। हाथ में हुनर है। इस तरह दुकान लगाने की क्या जरूरत? काम तो आप लोगों के पास आता है!” – मैंने कहा। मुझे वास्तव में आश्चर्य हो रहा था।
राजबली विश्वकर्मा गांव के कारीगर हैं – खाती और लुहार। भट्ठी, धौंकनी, बसुला, घन, हथौड़े से काम करने वाले। खेती किसानी उनके बल पर चलती रही है। आज भी उनके हुनर के अनेक प्रकार के काम गांवदेहात और शहर को कराने होते हैं। मेरी मचिया के फ्रेम उन्होने ही बनाये हैं।

जो उस दिन राजबली ने कहा; उससे स्पष्ट हुआ कि हुनर ही काफी नहीं। काम समय और नियमितता मांगता है। आपको अपनी साख के अनुसार मिल कार्य समय पर निपटाना पड़ता है – गुणवत्ता से भी और समय से भी। उसमें कोताही नहीं चल सकती। लगता है, उनके पोतों ने काम करने में कोताही की थी। उसका दर्द राजबली की बातचीत में झलक रहा था। बताया कि सवेरे छ बजे से काम में लगे हैं और चार घण्टे में पेट में एक दाना तक नहीं गया है।
दो ही दिन में गुमटी लगभग बन गयी है। उनकी गाय जहां बंधा करती थी, वहां अब गुमटी रख दी गयी है। अभी शायद कुछ काम बाकी है। पर मैं आशा करता हूं कि गुमटी का प्रयोग करने की उनके परिवार को जरूरत न पड़े। उनका परिवार अपने हुनर, अपने धर्म के अनुसार चले। देखें, आगे क्या होता है।
[…]
उस दिन की खिन्नता के उलट आज राजबली प्रसन्नमन थे। बसुला से एक लम्बी लकड़ी छील रहे थे। मैंने पूछा – क्या बना रहे हैं?
“फरसा का बेंट।”

“पर इसको तो बसुले से छील कर आधा कर दे रहे हैं। आप खुद ही कहते हैं कि लकड़ी बहुत मंहगी है। उसमें भी आधी लकड़ी छिलाई में निकल जायेगी। पैसा तो आप पूरी लकड़ी का ही लेंगे?!”
राजबली ने बताया कि लकड़ी मंहगी है, उसकी चिराई भी मंहगी है और छिलाई का भी अपना दाम है। पर कोई चीज बरबाद नहीं होती।
राजबली ने मेरे लिये कुर्सी मंगाई। घर से एक महिला चाय ले कर आई। मुझे कहा कि पी लूं। “चीनी बहुत कम डाली है।”
राजबली के चीनी न लेने के बारे में सवाल पूछने पर मैंने कहा – “नौकरी की जिंदगी में शारीरिक काम तो किया नहीं। चीनी जितनी खानी थी जिंदगी भर में, उससे दुगुनी, तिगुनी खा डाली। तो अब रोक तो लगानी ही पड़ेगी। … आपकी तरह बसुला तो चलाया नहीं। इसी लिये कहता हूं कि आप अपना काम सिखा दीजिये मुझे।”
“आप से नहीं चल पायेगा। दो दिनमें पेखुरा पिराई लागे। हाँथ की कोई न कोई उंगली कट जायेगी या चोटिल हो जायेगी। अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आ जायेगी। आप मेरा काम नहीं कर सकते, मैं आपका काम नहीं कर सकता।” राजबली कहते हैं कि दो तीन घण्टा बसुला और घन चलाते हैं वे। भट्ठी की धौंकनी भी खींचते हैं। इस उम्र में भी इतना करते हैं। अब आंखें कमजोर होने लगी हैं इसलिये पलंग बनाने का बारीक काम नहीं करते, बाकी सब कर रहे हैं।
मैं उनकी चाय की तारीफ करता हूं तो वे अपने तरीके से कॉम्प्लीमेण्ट लेते हैं। “चाय हम लोगों के लिये क्या है! उपरी क पेट सोहारी से थोरौ भरथअ (उपले की जरूरत वाली खुराक के लिये पतली मठरी से कुछ फर्क थोड़े ही पड़ता है)। हम लोग तो मोटी मोटी खूब रोटियां खाने वाले लोग हैं।” उनके कहने का तात्पर्य यह था कि ग्लास भर की चाय उन लोगों के लिये तो ऊंट के मुंह में जीरा है!
राजबली ने कहा कि अगर मैं उनसे दस बीस साल पहले मिला होता तो वे मेरे साथ ही हो लेते। कोई भी नौकरी दिला देता तो ज्यादा बढ़िया रहता। … मुझे उनका काम स्वप्निल लगता है और उन्हे मेरी साहबी। हम दोनो जानते हैं कि एक दूसरे से केवल बोल बतिया ही सकते हैं। आपस में मिलने का आनंद ले सकते हैं। न वे मेरा काम कर सकते हैं न मैं उनका।
पर हम दोनो को एक दूसरे का साथ अच्छा लगता है। ऐसा मुझे अनुभव होता है। उन्हे भी होता ही होगा! उनसे मुलाकातें होती ही रहती हैं।

Sir, good quality of work as well as wood. It seems that Mr Rajbali has maintained quality because he made it for himself. Workers maintaing quality are slowly disappearing. Hand work is vanishing and machine work is taking its place. In view of work of Mr Rajbali is like a cool breeze. I can not type in hindi hence writing in English. I am following your blog since you were in Railways may be 8~9 years. I am working on Kashmir Rail project.
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जय हो रस्तोगी जी! आप मेरे पुराने पाठक हैं, यह मेरे लिए बहुत सम्मान का विषय है. आशा है आप सानंद होंगे. आपको बहुत धन्यवाद.
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