
राजबली ने कई दिनों से मचिया बना कर नहीं दिया। बता रहे हैं कि लकड़ी खत्म हो गयी है। लकड़ी सप्लाई करने वाले को बोला है। जैसे ही मिलेगी, एक एक कर बना कर देते रहेंगे। अभी जितने लोगों को बातचीत में आश्वासन दिया है, मचिया का; उनको देने के लिये पांच सात और जरूर चाहियें। उसके अलावा हमें भी घर में तीन चार और की आवश्यकता होगी।
दस मचिया तो राजबली जी से बनवानी ही हैं। उसके बाद की देखी जायेगी। वैसे जैसा रघुनाथ जी ने किया है; मचिया ड्राइंगरूम में अथवा पूजा घर में प्रयोग लायक फर्नीचर है। हम तो उसपर बैठ कर रामचरित मानस पाठ करते हैं, रोज रात में। वह पूजा क्षेत्र की पवित्र वस्तु हो गयी है।

उस दिन शाम साढ़े चार बजे राजबली से मिलने अपनी साइकिल से गया। राजबली घर के बाहर बेंच पर शाम की चाय की ग्लास लिये बैठे थे। उनकी पतोहू मेरे लिये भी चाय ले कर आयी। मैंने शिष्टता से मना किया – चीनी वाली चाय नहीं पीता। उनके साथ वहीं बेंच पर बैठ कर बात हुई।
राजबली ने कहा कि लकड़ी देने वाले के पास फिर जायेंगे तकाजा करने। अब मौसम सुधर गया है। अब वे सवेरे चार बजे गंगा किनारे जाना शुरू कर चुके हैं। लूटाबीर (अगियाबीर का घाट) जाते हैं गंगा स्नान को। वहां लोगों से मिले थे, जो मेरे बारे में जानते हैं। … राजबली उन लोगों को जानते हैं, जिन्हे मैं जानता हूं। अर्थात मेरा नेटवर्क बढ़ रहा है।

उनके बारे में पूछना शुरू किया। वे सन 1952 में जन्मे। पढ़ाई दसवीं तक की। मिडिल स्कूल तक महराजगंज कस्बे के स्कूल में और दसवीं तक औराई के इण्टरकॉलेज में। उसके आगे नहीं पढ़े। उसके बाद ममहर बाजार में किराने की दुकान खोली। दुकान चल रही थी, पर उनके बब्बा को यह पसंद नहीं था कि घर से दूर राजबली पुश्तैनी धंधे से अलग किराने का काम करें।
उनके बब्बा एक बार उनके यहां ममहर आये। पर उन्होने राजबली के यहां पानी तक नहीं पिया – “काहे कि, मेरी दुकान जहां थी, वहां बहुत सी मुसलमानों की बस्ती थी आस पास। उनके अनुसार मैं अपवित्र हो गया था। मैंने बब्बा से कहा कि वे औजार बनाते हैं। भले ही बधिक द्वारा प्रयोग किये जाने वाले छुरे या तलवार नहीं बनाते; पर जो फरसा या रसोईं का सब्जी काटने वाला चाकू बनाते हैं, उससे भी तो कोई बलि दे सकता है। और लोग देते भी हैं। पर हमारे पुश्तैनी काम करने वाले उससे अपवित्र या पाप के भागी तो नहीं हो जाते?!”
बहरहाल, पारिवारिक विरोध के कारण उन्होने वह किराना की दुकान बंद कर दी। दुकान सन अठहत्तर तक चली। अठहत्तर की बाढ़ में ममहर का इलाका इस ओर से कट गया था। लोग गुड़ बनाने वाले कड़ाहे को नाव बना कर पानी में आवागमन कर रहे थे। उसी समय उन्होने दुकान बंद की। फिर घर आ कर पुश्तैनी काम – लुहार-खाती के काम में लगे।
मैंने राजबली जी को फिर कहा कि उनके साथ नियमित बैठ कर उनके अतीत के बारे में नोट्स लिया करूंगा और ब्लॉग पर प्रस्तुत करूंगा। राजबली सवेरे पूजापाठ के बाद अपनी धौकनी वाली भट्ठी और कारपेण्टरी के काम में लग जाते हैं। इस बीच जो कुछ खाने को मिलता है, वह उन्हें वहीं परोस दिया जाता है। कोई मिलने वाला आया तो उसके साथ भी शेयर होता है वह नाश्ता। बारह बजे वे भोजन करते हैं। उसके बाद उनके पास खाली समय रहता है।

मैं राजबली के पास दोपहर-शाम के समय ही जाऊंगा अपनी नोटबुक ले कर। राजबली आकर्षक और रोचक व्यक्तित्व हैं। उनके बारे में लिखना मेरे ब्लॉग को एन-रिच करेगा। निश्चय ही!
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